विपुल ज्वालाप्रसाद
अमरचंद के घर हृदय विदारक चीख-चिल्लाहटों का कोहराम मचा हुआ था। अमरचंद सहित परिवार के सभी सदस्य छाती पीट-पीट कर करुण क्रंदन कर रहे थे। रोते-चीखते कोई-कोई अचेत भी हो जाता था। लेकिन वहां एकत्रित लोग उसके मुंह पर पानी छिड़क-छिड़क उसको बेइंतिहा प्रयत्नों से होश में लाने के लिए जुट जाते थे।
इस चीख-पुकार को सुन कॉलोनी के अन्य स्त्री-पुरुष भी माजरा जानने के लिए अमरचंद के लिए घर एकत्रित हो गए थे। लेकिन घर के भीतर से आ रही पीड़ा-व्यथा की दर्दीली आवाजों को सुन, किसी की भी भीतर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। सभी इस कातर रुदन के कारण को जानने के लिए अत्यधिक उतावले हो रहे थे। आखिर घर के भीतर से एक व्यक्ति निकला। वहां सभी उपस्थित आदमी उसकी ओर लपके ‘अरे भाई! क्या हादसा घटित हो रहा है?’ बाहर आने वाला व्यक्ति बेहद व्यथित, मातमी स्वर में बोला, ‘अमरचंद का इकलौता लड़का एक्सीडेंट में चल बसा।’ यह सुन वहां उपस्थित व्यक्तियों की आंखें कपाल से जा लगीं। भीड़ में से एक व्यक्ति अमरचंद के घर से निकलने वाले आदमी से विशेष परिचित था। वह सबके सामने उससे पूछने लगा ‘आखिर यह कैसे हुआ? सुबह तो मैंने उसे बाइक से अपनी ड्यूटी पर जाते देख था।’
‘हां! वह सुबह अपनी ड्यूटी पर स्कूल गया हुआ था। दोपहर को अपनी ड्यूटी कर वापस लौट रहा था तो प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार उसने सड़क पर सामने से विशालकाय ट्रोला को आते देखा। ट्रोला सामने से सांप की तरह बल खाता, अनियंत्रित होकर, स्पीड में चला आ रहा था। उसी के कथनानुसार ट्रोला के ड्राइवर ने बहुत शराब पी रखी थी। ट्रोला उसके नियंत्रण के बाहर हो गया था। पंकज ने ट्रोला की यह भयावह स्थिति देख, बाइक समेत सड़क से नीचे उतरकर एक तरफ खड़ा हो गया था। किंतु होनी को कौन टाल सकता है? जहां वह बाइक समेत खड़ा था, ट्रोला डगमगाता वही उलट पड़ा। पंकज ट्रोला से बुरी तरह कुचला गया तथा मौके पर ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए।’ कहते- कहते उस आदमी को एकाएक छींक आई। रूमाल से अपनी नाक पोंछ फिर कहने लगा, ‘वहां इस दृश्य को देख वह प्रत्यक्षदर्शी बेतहाशा दौड़ता थाने पहुंचा। उसने पुलिस को सारा वाकया बयान किया। पुलिस ने तुरंत घटना स्थल पर पहुंच, सबसे पहले पंकज के शव को अपनी गिरफ्त में लिया तथा ट्रोला के केबिन से उछल कर दूर पड़े घायल ड्राइवर को भी गिरफ्तार कर उसे इलाज के लिए अस्पताल भिजवाया। फिर ट्रोला को अपने कब्जे में लिया। पंकज की डायरी देख पुलिस ने अमरचंद को फोन किया। फोन मिलते ही अमरचंद बदहवास से घटनास्थल की ओर दौड़ पड़े। घटनास्थल पर पंकज की हालत देख, वह वहीं अचेत हो गए। कुछ सहयोगियों की सहायता से वह घर लाए गए। पुलिस पंकज के शव को पोस्टमार्टम कराने के लिए अस्पताल ले गई है तथा अमरचंद के आदमी पंकज के शव को लेने अस्पताल गए हैं।’ यह सुन सभी लोगों के मुख पर गहरे दुःख, व्यथा की मलीनता छा गई ‘च्य…च्य…च्य… गजब को गया। अमरचंद कितने नेक-भले, सज्जन हैं। कॉलोनी के किसी भी आदमी पर दुःख-तकलीफ आ पड़े तो वह उसकी मदद करने में बड़ी शिद्दत से मशगूल हो जाते हैं। लंगड़े-लूले, अपाहिजों की भी मदद करने में वह कोई कोताही नहीं बरतते। दूसरे भी अच्छे सामाजिक कार्यों में उनका बड़ा हाथ रहता है। पर देखो! कुदरत का उन पर यह कैसा भीषण वज्रपात!! …उनका यह कैसा निर्दय-निर्मम न्याय?…’ कॉलोनी वालों की सहायता से पंकज का दाह-संस्कार कर दिया गया।
समय का रथ आगे बढ़ता जा रहा था। कुछ समय तक तो घर में पीड़ा-व्यथा, मातम का प्रेत नंगा नाचता रहा। किंतु कुछ काल के बाद उसे घर से पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। अब उस असहनीय आघात के घाव भरते जा रहे थे। तीनों प्राणियों की प्रकृति के इस क्रूर प्रकोप को अपनी नियति समझ स्वीकार कर लिया था।
उस दिन अमरचंद सुबह की सैर कर लौटे थे। घर के बरामदे में आकर बैठ गए। पत्नी यशोदा भी पास के पार्क में घूम-फिर कर आ गई थी। वह अपने घुटने में होते दर्द को सहलाती बरामदे में ही अमरचंद के पास आ बैठी थी। बहू नीलिमा भीतर से उस दोनों को चाय बना कर दे गई थी। सुबह-सुबह के बाल रवि की ऊष्मा कड़कड़ाती ठंड में गदबदे प्यारे बालक-सी सुहानी सुहानी लग रही थी। जैसे ही नीलिमा उन दोनों को चाय देकर अंदर गई, डाइबिटीज की मरीज यशोदा फीकी चाय सिप करती अमरचंद से बोली, ‘मुझसे तो नहीं देखी जाती नीलू की इस तरह सूनी मांग। उसे मैं इस हालत में देखती हूं तो मेरा कलेजा मुंह को आ जाता है। अपन ठहरे पके पान। कब बेल से टपक पड़े? कुछ कहा नहीं जा सकता। यह बिचारी इस भारी पहाड़ सी जिंदगी को अकेली कैसे ढोएगी?’
‘तो इस समस्या का क्या समाधान किया जाए?’ अमरचंद कहने लगे।
‘मेरे विचार से तो इसका पुनर्विवाह कर दिया जाए।’ कह कर यशोदा ने अपनी दृष्टि अमरचंद के मुख पर गढ़ा दी।
‘लेकिन यह जिम्मेदारी तो इसके माता-पिता, भाई वगैरा की…।’
‘यदि वे अंधे-बहरे हो जाएं तो क्या इसके प्रति हमारा कोई दायित्व नहीं बनता?’ इस पर अमरचंद कहने लगे, ‘हकीकत में मैं भी इस संबंध में बहुत समय से यही सोच रहा हूं।’
‘तो सोचना-वोचना क्या? सोच को कार्य में परिणत करो न।’
‘मैंने तो तलाश रखा है इसके लिए अपने ही समाज का एक दुहाजू युवक। विवाह होते ही उसकी पत्नी का देहांत हो गया था। वह रोटी-रुजक से लैस है। दुहाजू जरूर है पर देखने में है बिल्कुल युवक। हट्टा-कट्टा जवान पठ्ठा…’
‘तो बढ़ाओ न बात की डोरी आगे…’
‘लेकिन इस विषय में नीलू की सहमति भी तो आवश्यक…’
‘तो थाह लो न उसके मनोभावों की। नेकी और पूछ-पूछ…।’
‘ठीक है तुम्हारे सामने ही इस विषय में उसकी स्वीकृति की मुहर लगवाने का प्रयत्न करता हूं।’
तभी नीलिमा चाय के खाली कप-प्लेटों को वापस लेने के लिए भीतर से बाहर बरामदे में आई। कप-प्लेटों को वापस ले जाने लगी तो अमरचंद ने उसे टोका, ‘मेरी एक बात सुनना बेटा!’ नीलिमा उनकी ओर मुखातिब हुई। अमरचंद ने नीलिमा के समक्ष बिना कोई भूमिका बनाए हुए ही वह प्रस्ताव सपाट रूप से उसके समक्ष रख दिया। यह सुन नीलिमा अवाक-सी उनको घूरने लगी तथा कुछ ही पल बाद वह अपनी गर्दन झुका, बरामदे के फर्श पर पैर के अंगूठे से आड़ी-तिरछी रेखाएं काढ़ने लगी। अमरचंद ने उसे पुनः कुरेदा ‘हां तो बेटा! क्या निर्णय है तुम्हारा इस बारे में?’ ‘आप जो करेंगे मेरे हित में ही करेंगे।’ यह कहती नीलिमा खाली कप-प्लेटों को ले किचन में चली गई। अमरचंद के इस कथन को सुन उसकी चाल में एक अजीब उत्साह-उमंग की थिरकन दिखाई देने लगी थी। उसक आंखों में पुनः एक सुखमय जीवन प्रारम्भ करने का दीप झिलमिल-झिलमिल कर जलने लगा था।
‘तो नीलिमा के पिताजी से भी सहमति ले लो इस बारे में।’ यशोदा ने अमरचंद को कहा।
‘हां, यह तो मैं भूल ही गया। उनसे पूछना भी जरूरी है।’ अमरचंद ने घनश्याम को मोबाइल लगाया। उससे कुशलक्षेम पूछने के बाद वह मुद्दे की बात करने लगे। अमरचंद की सारी सुन वह बिना नथे बछड़े की तरह भड़क गया, ‘आप क्या बात कर रहे हैं समधी जी? क्या हमारे समाज में अभी तक ऐसा हुआ है।’ अमरचंद नीलिमा के भविष्य का वास्ता दे कहने लगे, ‘समधी जी! आप कौन-सी दुनिया में रहते हैं? जमाना अब बहुत आगे बढ़ गया है। हमारे ही समाज में ऐसे ही बहुत से विवाह सम्पन्न हो चुके हैं। समाज इन विवाहों को बिना हील-हुज्जत, हिचक, अपनी सहर्ष स्वीकृति दे रहा है।’
‘आप तो समाज में मेरी नाक ही कटवाने पर उतारू हैं। मेरी इज्जत पर कालिख पोतना चाहते हैं। नहीं… नहीं… नहीं, मैं आपके इस प्रस्ताव पर बिल्कुल सहमत नहीं हूं। आपको नीलू ज्यादा ही भार लगने लग रही है तो उसे मेरे यहां छोड़ जाइए…।’ यह कह फट से उसने मोबाइल काट दिया। अमरचंद पहले से ही जानते थे कि घनश्याम बेहद पुरातनपंथी… रूढ़िवादी… जमाने से दशकों पीछे जीने वाला व्यक्ति है। अमरचंद ने सारी बातें यशोदा को बताई। यशोदा उनसे कहने लगी, ‘उनसे पूछना अपना फर्ज था। सो वह फर्ज हमने पूरा कर लिया। जब इसमें नीलू की सहमति है तो आप इस काम को जल्दी से जल्दी सम्पन्न करो। जब मियां-बीवी राजी, तो क्या करेगा काजी?’
अमरचंद ने शुभ दिन देख युवक तथा उसके माता-पिता को सूचित कर वह तिथि निश्चित कर दी। युवक के माता-पिता बाकायदा बारात सजा कर, अमरचंद के यहां आए। अमरचंद ने बारात का दिल खोल कर स्वागत किया। लड़की के असली पिता की तरह नीलिमा के पुनर्विवाह की सारी रस्में पूरी कीं। युवक के साथ सात भांवरें खाते नीलिमा का चेहरा अंतस की अपूर्व प्रसन्नता… आह्लाद… उत्साह की रोशनाई से चमक रहा था नई-नवेली दुल्हन की तरह। कुछ दिन बाद नीलिमा अपने पति के साथ अमरचंद के यहां आई। उन दोनों को देख अमरचंद और यशोदा बहुत प्रसन्न-आनंदित हुए। उन्हें लगा कि उन्होंने नीलिमा का पुनर्विवाह करके एक बुझते दीप को पुनः प्रज्वलित कर बहुत ही पुनीत कार्य किया है। दोनों को जलपान करा अमरचंद नीलिमा से पूछने लगे, ‘सीधे अपने पीहर से ही आ रही हो बेटा!’
‘नहीं बाबूजी! मैं तो ससुराल से सीधे यहीं आ रही हूं।’
‘अरे यह तुमने क्या किया बेटा? पहले तुम अपने पिता के यहां जातीं।’ प्रत्युत्तर में नीलिमा बोली, ‘आप कौन से पिता की बात कर रहे हैं बाबूजी? पिता तो वह होता है जो अपनी संतान के साथ उसकी विपत्ति… संकट… संताप… दुःख में हर प्रकार की सहायता, संबल की बाड़ खड़ी करते, हर समय उसके साथ खड़ा दिखाई पड़े। मेरे उस तथाकथित पिता ने, मेरे साथ तो ऐसा कुछ किया ही नहीं। मेरे जहन में तो केवल उसी पिता की छवि रहट की तरह घूमती रहती है जो मेरी हर व्यथा, संताप में मदद करने के लिए अडिग पहाड़ की तरह खड़े रहे हैं।’
यह सुनते ही अमरचंद भावविह्वल हो आए, ‘ठीक है बेटा! जैसी तुम्हारी सोच…’