जी. पार्थसारथी
कारगिल क्षेत्र से पाकिस्तानी फौज को खदेड़े जाने के बाद, 12 अक्तूबर, 1999 के दिन, जब द्वंद्व से उपजा तनाव समाप्त हो चुका था, मैं और मेरा मित्र इस्लामाबाद में कुछ राहत में थे। हालांकि किसी को भी आभास नहीं था कि अब मुशर्रफ के नेतृत्व वाली फौज और प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के बीच जल्द ही अंदरूनी लड़ाई तेज होने वाली है। लेकिन, हम सबको तेज झटका लगा। सरकारी पाकिस्तान टेलीविजन की मुख्य इमारत के सामने से गुजरते वक्त समय मैंने अविस्मरणीय और अविश्वनीय नज़ारा देखा। इस्लामाबाद स्थित पाकिस्तानी सेना की 111वीं ब्रिगेड के जवान पीटीवी कब्जाने को चारदीवारी फांद रहे थे। मैं तुरंत हाई कमीशन भवन लौटा ताकि अपने सहयोगियों से तस्दीक करवा सकूं कि क्या हो रहा है। नई दिल्ली स्थित अपने प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय को बता दिया गया कि पाकिस्तान में फौज तख्ता पलट करने में लगी है।
आधे घंटे बाद हमें पता चला कि जब मुशर्रफ कोलंबो से पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस की उड़ान से इस्लामाबाद वापस आ रहे थे तो एयर ट्रैफिक कंट्रोल ने पायलट को विमान पाकिस्तान में न उतारने का निर्देश जारी किया था। अर्थात् वे भारत समेत जहां कहीं और उतरना चाहें, वहीं चले जाएं!! इसी बीच प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने मुशर्रफ को पदच्युत कर तत्कालीन आईएसआई प्रमुख ले. जनरल जिआ-उद-दीन भट्ट को सेनाध्यक्ष बना दिया। लेकिन चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ ले. जनरल अज़ीज़ खान के नेतृत्व में मुशर्रफ के वफादार जरनलों ने राजधानी अपने नियंत्रण में कर ली। जब तक मुशर्रफ का जहाज रावलपिंडी उतरता, नवाज़ शरीफ और अन्य नेता गिरफ्तार हो चुके थे। उम्मीद के मुताबिक इसके बाद वाला दौर निष्ठुर और आततायी मार्शल लॉ वाला होना ही था। इस दौरान नवाज़ शरीफ के सिर पर फांसी की तलवार लटक भी गई थी। पर सउदी अरब के सुल्तान की अंदरूनी दखल पर किसी तरह जान बच पाई।
हालिया घटनाएं जो ‘काबिल’ प्रधानमंत्री इमरान खान की देन हैं, पाकिस्तान पुनः राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से पुनः उसी पुराने हालात में जा धंसा है। इमरान ने जिस तरह जरूरत से ज्यादा झुकते हुए या फिर सोच-समझ कर आईएसआई को देश की अंदरूनी राजनीति में दखलअंदाजी करने दी है, उसका यह अंजाम होना लाजिमी था। विपक्ष को कमतर करने के प्रयास में आईएसआई प्रमुख ले. जनरल फयाज हमीद इमरान खान के सबसे नजदीकी बने रहे। जिस दिन काबुल में तालिबान अफगानिस्तान का नियंत्रण अपने हाथ में ले रहा था, उस वक्त यही आईएसआई मुखिया अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यानाकर्षण रहे थे, बल्कि तथ्य तो यह है उन्होंने सुनिश्चित किया कि ऐसा ही हो। जनरल फयाज ने अपेक्षाकृत नर्म तालिबान नेतृत्व जैसे कि अब्दुल गनी बरादार और शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिक्ज़ई जैसों को दरकिनार कर सत्ता की बागडोर चरमपंथियों के हाथ में सौंप दी। अब उक्त दोनों अपनी जान और सुरक्षा को खतरा बताकर दुबई में शरण ले चुके हैं।
ऐसे वक्त में, जब तालिबान द्वारा राजपाट संभालने के बाद मुल्क लगातार अराजकता की ओर अग्रसर है, यह बात उनके मित्र-गैर मित्र, दोनों मुल्कों को बखूबी पता है, परंतु महिलाओं के प्रति क्रूरता की वजह से वे फिलहाल सीधे राजनयिक संबंध स्थापित करने से कतरा रहे हैं। हालांकि संभव है, और ऐसा ही होगा, चंद राष्ट्र जैसे कि पाकिस्तान, चीन और रूस अपना रुख बदलकर तालिबान सरकार के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध कायम कर लेंगे। हो सकता है ओपेक संगठन के कुछेक प्रभावशाली देश चंद आवश्यक विषयों, मसलन, अल कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे अंतर्राष्ट्रीय घोषित आतंकवादी संगठन की अफगानिस्तान में उपस्थिति से जोड़कर तालिबान सरकार के साथ अर्थपूर्ण एवं सशर्त राजनयिक संपर्क स्थापित कर लें। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि महिला अधिकारों को कुचलने वाले तालिबानों की भर्त्सना एकमत से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है।
हालांकि, पाकिस्तान में चिंता का एक बड़ा कारण मौजूदा आईएसआई प्रमुख ले. जरनल फैयाज हमीद की बदली करने के मुद्दे पर सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा और प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच लगातार बढ़ती जा रही दूरी थी। बाजवा ने अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए फयाज हमीद को अफगान सीमा पर तैनात कोर का कमांडर नियुक्त कर दिया। हालांकि इससे नवंबर, 2022 में बाजवा की सेवानिवृत्ति उपरांत अगला सेनाध्यक्ष बनने को फयाज हमीद की राह प्रशस्त हो जाएगी। बाजवा ने कराची स्थित कोर कमांडर ले. जनरल नावेद अंजुम को अगला आईएसआई प्रमुख घोषित किया। जाहिर है बतौर नए आईएसआई मुखिया अंजुम प्रधानमंत्री इमरान खान के इतने विश्वस्त नहीं होंगे। इमरान खान को लगा कि इससे आगे जब कभी खुद पर राजनीतिक खतरा बनेगा, तो विपक्षियों को साधने में काफी मुश्किल पेश आ सकती है।
आईएसआई प्रमुख की बदली पर ‘वर्तुल के अंदर वर्तुल’ है। क्योंकि जो ताकत बतौर आईएसआई प्रमुख फयाज़ हमीद के हाथों में रही है, जिसके बूते पर वे प्रधानमंत्री को हटाने पर अामादा विपक्ष के हमलों-प्रयासों से निपटने में इमरान खान की मदद करते रहे, अब वह वैसी नहीं रहेगी। इमरान खान चाहते थे कि वर्ष 2023 के आम चुनाव तक ले. जनरल फैयाज़ किसी तरह इस्लामाबाद में बने रहें। लिहाजा प्रधानमंत्री ने उनके और जनरल अंजुम के स्थानांतरण आदेशों की तस्दीक हेतु हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। हालांकि उनके पास सेनाध्यक्ष के इस आदेश को बदलने का न तो कोई अख्तियार था, न ही माध्यम और साहस। इन हालातों के परिणाम में पाकिस्तान में भ्रम, संवैधानिक संकट और तख्ता पलट तक होने का मौका बनता जा रहा था। पाकिस्तान सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीश खुद को इस विवाद में घसीटे जाने से बचते रहे है। वैसे भी आज तक पाकिस्तान में सेना द्वारा सत्ता कब्जाने को कभी न्यायपालिका ने निरस्त नहीं किया है।
इमरान खान अपनी पैदा की मुश्किलों में उलझ चुके हैं। जहां अमेरिका, उसके यूरोपियन सहयोगी देश और कुछ अन्य मुल्क सैनिक तख्ता पलट की आशंकाओं को लेकर असहज हैं वहीं खुद पाकिस्तान में बहुत लोगों को इमरान की विदाई पर अफसोस नहीं होगा। लिहाजा उनके पास विकल्प सीमित थे, या तो बाजवा से समझौता कर लेते या फिर अगला आम चुनाव हारने का जोखिम मोल लेते। जो कि अक्तूबर, 2023 तक होने हैं। अगर वे सेनाध्यक्ष से टकराव चुनते तो अनेकानेक मुसीबतों में जा फंसते। फौज के साथ भिड़ने की स्थिति पर उनकी अपनी पार्टी के सांसद तक छुटकारा पाना चाहेंगे।
सेना प्रमुख बाजवा दोनों लेफ्टिनेंट जनरलों को अपनी नई नियुक्ति संभालने वाला आदेश जारी कर चुके थे। इस बात की संभावना भी कम थी कि वे अपने आला अफसर की हुक्मउदली करते। इस मुद्दे पर सर्वोच्च अदालत का रुख करना इमरान खान के लिए जोखिम भरा होता, न्यायपालिका स्वयं इस झमेले में फंसने को ज्यादा राजी न होती, क्योंकि एक तरफ अलोकप्रिय प्रधानमंत्री और दूसरी ओर अपेक्षाकृत शांत किंतु अपने आदेश पर अडिग सेनाध्यक्ष होता। इन हालातों में अंततः इमरान खान को अपने सेनाध्यक्ष के फैसले पर झुकना ही पड़ा। इससे उनकी किरकिरी हुई है और जग-हंसाई का पात्र बने हैं। इस बीच, भारत को सलाह है कि वह अफगानिस्तान में मुश्किलज़दा लोगों को राहत सामग्री देने हेतु तालिबान नेतृत्व से संपर्क बनाए रखे, और राजनयिक मान्यता को अफगान महिलाओं को लोकतांत्रिक आजादी देने से जोड़कर रखे।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।