सुभाष रस्तोगी
‘वह कोठे वाली है’ गीता पंडित का सद्य: प्रकाशित उपन्यास है जो स्त्री विमर्श का एक नया रूपक रचता प्रतीत होता है। यह उपन्यास कई भागों में विभाजित स्त्री देह के, मन के प्रश्नों से आंख मूंदकर बैठे हुए उस समाज के सामने एक सवालिया निशान बन कर खड़ा हो जाता है, जिस पितृसत्तात्मक समाज में आज भी स्त्री अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं है।
लेखिका का मानना है कि ‘सदियों से समाज स्त्री को एक ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा करता रहा है जहां उसका जीवन उसके लिए एक प्रश्न बन जाता है। हर आती-जाती श्वास उससे प्रश्न करने लगती है। उसे वही करना पड़ता है जो पुरुष चाहता है।’ लेकिन इस उपन्यास की नायिका जीवो, माही, अनामा, वसुंधरा कुछ ऐसा कर गुजरती हैं जो स्त्री के अस्तित्व के लिए आवश्यक ही नहीं, जरूरी भी है जो उसका होना सिद्ध करता है।
प्रत्यक्ष में जीवो को कोई दु:ख नहीं है। बेहद प्यार करने वाला प्रेमी पति जुनून है। दो प्यारी बेटियां हैं—जुजू और झांझर। पिता जैसी ममता, स्नेह और आत्मीयता से लबालब श्वसुर पंडित जी हैं। लेकिन अनाथ होने की यातना जीवो को प्रतिक्षण भीतर ही भीतर खोखला किए जा रही है। जीवो की एक ही चिंता है, एक ही पीड़ा है कि उसकी मां कौन है, वह कहां रहती है, पता-ठिकाना क्या है उसका। आखिर उसे पता चलता है कि वह एक कोठे वाली की बेटी है। पंडित जी जीवो के श्वसुर, जिन्हें वह पापा कहती है, उसे एक दिन समझाते हुए कहते हैं, ‘मैं सही कह रहा हूं। वह इसे राज रखना चाहती है तुम्हारे हित के लिए, इसलिए अपने जिगर के टुकड़े से वह जीवनभर नहीं मिली। कितनी यातना सही होगी उसने। उसके दु:ख, उसकी तकलीफ का अंदाजा है मुझे, लेकिन लगता है तुम्हें नहीं है।’
आखिर जीवो अपनी मां को ढूंढ़ निकालती है। उसे पता चल जाता है कि वह एक कोठे वाली की बेटी है। वह ठान लेती है कि उसे अपनी मां को अपने साथ ही अपने घर में रखना है। लेकिन जुनून इसके लिए तैयार नहीं होता क्योंकि उसे अपनी दोनों बेटियों जुजू और झांझर के भविष्य की चिंता है। वह किसी भी स्थिति में जीवो की मां को ‘अपने घर’ में रखने के लिए तैयार नहीं है। जुनून सीधे निर्णयात्मक स्वर में कहता है ‘वह कोठे वाली है… तुम जानती हो न। उसका मेरे बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा और मेरे घर में एक कोठे वाली का क्या काम।’
जीवो यह सुनकर सन्न रह जाती है कि अब तक जिस घर को वह अपना घर समझती थी, वह तो उसका घर है ही नहीं। वह तत्क्षण यह निर्णय करती है कि वह अब अपनी दोनों बेटियों जुजू, झांझर तथा अपनी मां के साथ अपने घर में ही रहेगी। अपने कोचिंग सेंटर की उस बिल्डिंग में जो उसने ट्यूशंज के पैसों से तैयार की थी।
गीता पंडित का सद्य: प्रकाशित यह उपन्यास स्त्री-विमर्श का इसलिए एक नया स्वरूप रचता प्रतीत होता है क्योंकि अपने समवेत पाठ में स्त्री के अस्तित्व, स्त्री के होने पर प्रकाश वृत्त केंद्रित करता है। निश्चय ही स्त्री के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ा करना पाठक की चेतना में गहरा उद्वेलन पैदा करता है। अतीत और वर्तमान की कड़ियां इस उपन्यास में इतनी सहजता से जुड़ती चली जाती हैं कि लेखिका की कहन शैली पर अचरज होता है। भाषा इस उपन्यास की सबसे प्रमुख विशिष्टता है।
पुस्तक : वह कोठे वाली है लेखक : गीता पंडित प्रकाशक : केएल पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद पृष्ठ : 200 मूल्य : रु. 500.
आर्थिक मसलों की सरल व्याख्या
केवल तिवारी
मराठी मूल के हिंदी साहित्य सेवी लक्ष्मण राव की नयी किताब ‘भारतीय अर्थव्यवस्था एवं मौलिक सिद्धांत’ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अर्थव्यवस्था की व्यावहारिक विवेचना है। कोरोना महामारी के दौर में अर्थव्यवस्था की रीढ़ ‘मजदूरों’ के पलायन और लाखों लोगों के रोजगार जाने के दंश से उपजी परिस्थितियों का संदर्भ के तौर पर जिक्र करते हुए लेखक ने समझाया है कि अर्थव्यवस्था का मूल सिद्धांत क्या है?
कुल सात खंडों में अलग-अलग अध्यायों के जरिये पुस्तक में व्यावहारिकता पर जोर दिया गया है। लेखक का मानना है कि अर्थव्यवस्था की पटरी समान नहीं होती अर्थात् यह देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करती है। वह लिखते हैं, ‘हम दूसरे देशों का उदाहरण देकर अपना विकास नहीं कर सकते। हमारा अपना धरातल क्या है? इस पर विचार करना आवश्यक है।’
अर्थशास्त्र के व्यष्टि और समष्टि दृष्टिकोण के सिद्धांतों पर चर्चा करते हुए लेखक ने बाजार, नकदी, मांग और आपूर्ति जैसे अर्थशास्त्रीय चरणों का संक्षेप में उल्लेख किया है। लेखक ने कोशिश की है कि सभी संबंधित विषयों का जिक्र किया जाये। मसलन-बैंकिंग, बजट, राजकोषीय अवधारणा, आयात, निर्यात, कर आदि एवं इनसे जुड़ी योजनाएं। कोरोना संकट, लॉकडाउन और इन वजहों से छिन्न-भिन्न हुई अर्थव्यवस्था के कारणों और परिणामों पर चर्चा करते हुए लेखक ने इस दौर की त्रासदियों पर भी प्रकाश डाला है। केंद्र सरकार की कुछ घोषणाओं को गैर जरूरी बताते हुए लेखक ने कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों के निधन, आम जनता में अविश्वास एवं मध्य प्रदेश में सरकार के बदल जाने पर भी छोटे-छोटे पाठों से मुद्दों को उछाला है। साथ ही उन्होंने आगाह किया है कि सरकारों को डीजल, पेट्रोल और शराब के जरिये ही अपना खजाना भरने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
कुल मिलाकर यह पुस्तक एक अर्थशास्त्र के विद्यार्थी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के किंतु-परंतु को समझने की इच्छा रखने वाले के लिए भी उपयोगी साबित हो सकती है। भाषा सरल है, विषय अर्थव्यवस्था और इससे जुड़े पहलू का।
पुस्तक : भारतीय अर्थशास्त्र एवं मौलिक सिद्धांत, लेखक : लक्ष्मण राव प्रकाशक : भारतीय साहित्य कला प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृष्ठ : 720 मूल्य : रु. 1200.
लघुकथाओं में गहरे निहितार्थ
अश्वनी शांडिल्य
हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में लघुकथा ने साहित्य में सार्थक व प्रभावशाली हस्तक्षेप किया है। इस विधा ने हर वर्ग के पाठक को अपनी ओर आकर्षित किया है। आलोच्य कृति ‘खाली चम्मच’ की एक सौ इक्कीस लघुकथाओं में लेखक गोविंद शर्मा ने समाज के समसामयिक विषयों को उद्घाटित करते हुए उनकी विडंबनाओं को अपने व्यंग्य की धार पर लेने का प्रयास किया है। इस संग्रह की बहुत-सी लघुकथाएं देश, समाज, पर्यावरण, परिवार, शासन-तंत्र व विभिन्न मूल्यों में आये क्षरण को मानवीय सरोकार के गलियारे में लाकर उनकी परिणति की कसौटी पर कसती हैं।
लेखक ने भारतीय राजनीति के विद्रूप, नयी पीढ़ी के स्वार्थ व बुजुर्गों की उपेक्षा, दाम्पत्य जीवन की कटुता, समाज-सेवा के पाखंड, सास-बहू के पारस्परिक संघर्ष, शासकों की क्रूरता व जिद, पर्यावरण-प्रदूषण, पेड़ों की कटाई, सैनिक की पीड़ा आदि विषयों को मुख्यत: अपने कथ्य के पटल पर संजोकर उनकी बखिया उधेड़ने के साथ-साथ अपनी संवेदना से तुरपाई करने का कार्य भी किया है। ‘कागज़ के फूल’ कर्मठ व परिश्रमी लोगों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने वाली सुंदर लघुकथा है। ‘अभिनय’ रचना में बुजुर्गों की उपेक्षा करने वाली स्वार्थी संतान पर सुंदर व सटीक व्यंग्य किया गया है। ‘वायरस’ में सभ्यता, आधुनिकता, विकास और आदमी की भूख को सबसे खतरनाक वायरस के रूप में देखा गया है। ‘निर्दोष’ तथा ‘समीक्षा’ में सास-बहू की आपसी खींचतान का सजीव चित्रण करती प्रभावशाली लघुकथाएं हैं। इनके अतिरिक्त ‘अंधेर’, ‘झूठ का वक्त’ तथा ‘इज्जत के लिए’ उल्लेखनीय रचनाएं हैं। भाव पक्ष की तुलना में शिल्प-पक्ष का अत्यधिक शिथिल होना अखरता है।
पुस्तक : खाली चम्मच लघुकथा : 121 लेखक : गोविंद शर्मा प्रकाशक : साहित्यागार धामाणी मार्केट की गली, जयपुर पृष्ठ : 140 मूल्य : रु. 250.