राजकुमार सिंह
जिस सत्ता की खातिर, कोरोना की अधिक घातक लहर की चेतावनी के बावजूद, देशवासियों की जान जोखिम में पड़ने दी गयी, उसका जनादेश भी आ गया। किसी के हिस्से सत्ता आयी तो किसी के हिस्से निराशा, पर जनता के हिस्से तो इलाज और दवाइयों के अभाव में अपनों की टूटती सांसें ही आयीं। शर्मनाक यह कि सरकारी आंकड़ों से परे मौतों की वास्तविक संख्या का इससे सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है कि शवों के अंतिम संस्कार के लिए लाइनें लगी हैं और जगह कम पड़ने लगी है। फिर भी इतराइए कि हम विश्व के सबसे बड़े और जीवंत लोकतंत्र हैं! यह भी कि फिर से विश्व गुरु बनते हुए जल्द ही हम पांच खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था भी बन जायेंगे! कोरोना काल की बहुप्रचारित सामान्य सावधानियों को भी धता बताते हुए चार राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश पुड्डुचेरी में भारी भीड़ के बीच चुनाव प्रचार किया गया, रोड शो निकाले गये। जाहिर है, सत्ता के इस खेल में दांव बहुत ऊंचे थे, तभी तो जान-माल से भी ज्यादा तरजीह उसे दी गयी। कभी अपनी वैश्विक साख के लिए जाना गया भारत का चुनाव आयोग न्यायपालिका की फटकार के बाद तब जागा, जब सांप निकल चुका था। फरमाना आया कि विजय जुलूस नहीं निकलेंगे!
आंकड़े गवाह हैं कि चुनाव प्रचार की इसी अवधि में कोरोना की दूसरी लहर न सिर्फ आयी, बल्कि और अधिक मारक होती हुई बेकाबू भी हो गयी। कहां तो हम कोरोना से जंग में विश्व समुदाय का नेतृत्व करने के लिए खुद ही अपनी पीठ थपथपा रहे थे, कहां हम कोरोना के हर रोज आने वाले नये केसों में विश्व रिकॉर्डधारी बन गये। तर्क दिया जा सकता है कि आबादी के अनुपात में देखें तो अन्य देशों की तुलना में हमारे यहां मरीजों और मौतों की संख्या बहुत ज्यादा भी नहीं है, पर उन देशों की तुलना में हमारी चिकित्सा व्यवस्था का ढांचा कहां टिकता है? सवाल बहुत हैं, पर जवाब देने वाला कोई नहीं। दरअसल, आईना दिखाने वाले सवालों का जवाब कोई भी सत्ता-व्यवस्था नहीं देना चाहती। इसलिए सत्ता के खेल यानी चुनावी राजनीति की ओर लौटते हैं। केंद्रशासित प्रदेश पुड्डुचेरी के अलावा चार राज्यों : असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए। हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल सरकार बचाने की जद्दोजहद में रहता है तो विपक्षी दल उसके नीचे से सिंहासन खींचने के। कुछ राज्यों में मुकाबला दो दिग्गजों के बीच होता है तो कहीं दो गठबंधनों के बीच और कहीं तीसरा दावेदार भी जोर आजमाइश करता देखा जा सकता है।
केंद्रशासित प्रदेश पुड्डुचेरी समेत जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए, उनमें से सिर्फ असम में भाजपा सरकार थी, जबकि अकेले पुड्डुचेरी में कांग्रेस सरकार थी, जो चुनाव से पहले ही जोड़तोड़ में चली गयी। अब दो मई को मतगणना के बाद परिदृश्य यह है कि असम में भाजपा अपनी सरकार बचाने में सफल रही है और तमाम कवायद के बावजूद कांग्रेस उसे कड़ी चुनौती तक पेश नहीं कर पायी। पुड्डुचेरी में सरकार गिराने के लिए कांग्रेस के अंतर्कलह का फायदा उठाते हुए भाजपा ने जो बिसात बिछायी थी, उसका लाभ उसे चुनाव में भी मिला है। कांग्रेस सत्ता से दूर है तो भाजपा से आशीर्वाद प्राप्त उसके बागी एन. रंगास्वामी की पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। तमिलनाडु में लंबे अरसे बाद बिना लोकप्रिय चेहरे के चुनाव हुआ। इसके बावजूद मुख्य मुकाबला दो क्षेत्रीय दलों : सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक और विपक्षी द्रमुक के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच ही रहा, जिनमें दोनों राष्ट्रीय दलों : भाजपा और कांग्रेस की भूमिका जूनियर पार्टनर की है।
करिश्माई अभिनेत्री और नेत्री जयललिता के निधन के बाद से ही अंतर्कलह का शिकार अन्नाद्रमुक केंद्र सरकार और भाजपा के आशीर्वाद से सरकार का कार्यकाल भले ही पूरा करने में सफल रहा, लेकिन चुनाव वैतरणी पार नहीं कर पाया। उधर करुणानिधि के निधन के बाद डांवाडोल नजर आये द्रमुक, जिसका कांग्रेस से गठबंधन है, की नैया एमके स्टालिन पार लगाने में सफल रहे। जाहिर है, करुणानिधि के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में स्टालिन पर अब तमिलनाडु के मतदाताओं ने भी मुहर लगा दी है। कर्नाटक के बाद से ही किसी और दक्षिण भारतीय राज्य में पैर जमाने को आतुर भाजपा संतोष कर सकती है कि आधे-अधूरे राज्य पुड्डुचेरी में कमान न सही, सत्ता की डोर उसके हाथ आ गयी है। इस लिहाज से हालिया विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए बेहद निराशाजनक रहे हैं। असम में भाजपा को कड़ी चुनौती देने से चूकी कांग्रेस केरल में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा से भी सत्ता छीनने में नाकाम रही है। वायनाड से लोकसभा सदस्य चुने जाने के बाद से राहुल गांधी केरल पर विशेष फोकस कर रहे हैं, लेकिन जब कांग्रेस में ही ऐन चुनाव तक बगावत होती रही तो उसके नेतृत्व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा से किसी चमत्कार की आस भी कहां रह जाती है? हां, केरल ने एक चमत्कार अवश्य किया। उम्रदराज मुख्यमंत्री पिनरई विजयन को एक और कार्यकाल का जनादेश दे दिया तो 75 साल पार नेताओं को सक्रिय राजनीति से विदा करने वाली भाजपा ने भी 80 साल के मेट्रोमेन श्रीधरन को राजनीतिक पारी शुरू करने का अवसर दिया।
बेशक चुनाव पांच राज्यों में हुए, लेकिन चुनाव प्रचार से लेकर मीडिया में माहौल तक हर जगह पश्चिम बंगाल या कहें कि मोदी बनाम ममता का मुद्दा ही छाया रहा। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक या चुनावी हिंसा नयी नहीं है, लेकिन ऐसा विषाक्त चुनाव प्रचार लंबे समय बाद देखा गया। नैतिकता और शालीनता से तो हमारे ज्यादातर राजनेताओं का कोई सरोकार रह नहीं गया है, लेकिन सार्वजनिक शिष्टाचार की भी इस चुनाव में जम कर धज्जियां उड़ायी गयीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत केंद्र सरकार का कोई भी महत्वपूर्ण मंत्री और भाजपा का कद्दावर नेता नहीं बचा, जो बंगाल की सत्ता से ममता बनर्जी को बेदखल करने का बिगुल फूंकने वहां नहीं गया। 2 मई को मतगणना के साथ ही ममता और तृणमूल कांग्रेस की सत्ता से विदाई की भविष्यवाणी भी तमाम भाजपाई दिग्गजों ने कर दी थी। पुराने सिपहसालार शुभेंदु अधिकारी को नंदीग्राम से चुनाव मैदान में उतार कर ममता की ऐसी घेराबंदी की गयी कि पुन: सरकार बनाना तो दूर, खुद उनका विधानसभा पहुंचना मुश्किल हो जाये, लेकिन हुआ क्या?
शुभेंदु अधिकारी का प्रभाव क्षेत्र बताये जा रहे नंदीग्राम की ही एकमात्र सीट से चुनाव लड़ कर तो ममता भाजपा के चक्रव्यूह में फंस गयीं, लेकिन अभूतपूर्व हाई वोल्टेज चुनाव प्रचार भी तृणमूल कांग्रेस की सीटें कम नहीं कर पाया। मोदी बनाम ममता की बहुप्रचारित जंग में यह किसकी हार है, यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। यह सबक भी है कि मौसमी दलबदलुओं, आयातित नेताओं-वक्ताओं और मीडिया प्रबंधन के जरिये माहौल तो बनाया जा सकता है, लेकिन चुनाव नहीं जीता जा सकता। इसके बावजूद वाकपटु भाजपा नेता इस हार में भी अपनी जीत देख-दिखा रहे हैं तो इसलिए कि परिस्थितियों की अपने अनुकूल व्याख्या भी राजनीति की एक कला है। इसलिए अब भाजपा हालिया प्रदर्शन की तुलना 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन से करने के बजाय 2016 के विधानसभा चुनावों से कर रही है। तब उसे कुल तीन सीटें मिली थीं। यह अलग बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 18 सीटों तक पहुंच गयी। जाहिर है, ममता की तृणमूल कांग्रेस ने जबर्दस्त जीत हासिल की है, पर भाजपा इसे अपनी हार नहीं मान रही, तो सवाल है कि फिर हारा कौन? यह हार है, कांग्रेस और वाम मोर्चा की। दशकों तक धुर विरोधी रहे कांग्रेस और वाम मोर्चा ने मिलकर यह चुनाव लड़ा और पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने इस सिद्धांतहीन अवसरवादी गठबंधन को पूरी तरह नकार दिया। दरअसल, कांग्रेस–वाम मोर्चा गठबंधन राजनीतिक दोगलेपन की ही मिसाल रहा, क्योंकि बंगाल में मिलकर लड़ने वाले ये दल केरल में एक-दूसरे के विरुद्ध लड़े। इन चुनावों में किसने किसके साथ खेला कर दिया—यह चर्चा लंबी चलेगी, लेकिन सबसे खतरनाक खेला तो कोरोना की मार झेल रही जनता के साथ सत्तालोलुप राजनीति ने किया है।
journalistrksingh@gmail.com