हेमंत पाल
किसी से पूछा जाए कि उन्हें कौनसा संगीत पसंद है, तो निश्चित रूप से जवाब में कोई फ़िल्मी गीत सुनाई देगा! वास्तव में यह जवाब गलत नहीं है, क्योंकि यही फिल्म संगीत की लोकप्रियता का पैमाना भी है। संगीत को आज फ़िल्मी गीतों का पूरक मान लिया गया। फ़िल्मी गीत लोगों के दिलो-दिमाग में इस तरह रच-बस गए कि उन्हें ही असली संगीत समझा जाने लगा! जबकि, हमारे देश में शास्त्रीय संगीत को बहुत ऊंचा दर्जा मिला है। संगीत के घरानों और संगीतज्ञों की परंपरा बहुत पुरानी है। सामान्यतः पक्के शास्त्रीय रागों का फ़िल्मी गीतों से सीधा वास्ता तो नहीं होता लेकिन, इन गीतों में शास्त्रीय संगीत का दखल हमेशा ही रहा है। वास्तव में फिल्म संगीत भी शास्त्रीय संगीत का ही अंग है, पर उसने शास्त्रीयता के बंधन से रास्ता निकालकर उसे सुगम बना दिया। शास्त्रीय संगीत पहले राज दरबारों की रौनक था। पर, फिल्म संगीत के विकसित होने पर शास्त्रीय संगीत का दायरा सिकुड़ गया, पर लोकप्रियता नहीं घटी! इसके बावजूद कालजयी फिल्मों के गीत शास्त्रीय संगीत की बंदिशों में ही रचे गए!
सिनेमा संगीत में शास्त्रीय संगीत की परंपरा का निर्वहन नहीं होता। यह एक तरह से मुक्त संगीत होता है। इसमें शास्त्रीय संगीत की शैली और ताल का अपनी सुविधा के अनुसार उपयोग किया जाता है। यही स्थिति वाद्य यंत्रों के साथ भी होती है। कई फ़िल्मी गीतों में ताल के साथ तबले का उपयोग देखा गया, जबकि तबला उत्तर भारतीय वाद्य है। कर्नाटक संगीत में ताल के साथ मृदंगम या पखावज का उपयोग होता है। अब तो शास्त्रीय संगीत के साथ पाश्चात्य संगीत का फ्यूज़न बनाने का प्रयोग किया जाने लगा है। शास्त्रीय संगीत से जुड़े गीत भी आजकल बेहद चर्चित हो रहे हैं। मोरा पिया मोसे बोलत नाही (राजनीति), अलबेला सजन आयो री (हम दिल दे चुके सनम), आओगे जब तुम साजना (जब वी मेट), ओरे पिया (आजा नच ले) जैसे गीत शास्त्रीय संगीत की ही देन हैं। फिल्मों में जो भी नामचीन संगीतकार हुए हैं, सभी ने किसी न किसी गुरु के सान्निध्य में संगीत की शिक्षा ली है। एसडी बर्मन, मदन मोहन, कल्याणजी-आनंदजी, आरडी बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की मू ल संगीत शिक्षा शास्त्रीय ढंग से ही हुई थी। संगीत स्कूलों से निकले जानकार भी संगीतकार बने। लखनऊ के मैरिस म्यूजिक कॉलेज से निकले कई गुणी संगीतकारों ने फिल्मों में संगीत दिया। उनमें सरस्वती देवी और मदन मोहन का नाम उल्लेखनीय है।
‘बैजू बावरा’ के साथ संगीतकार नौशाद ने हिंदी फिल्म गीतों में शास्त्रीय संगीत का एक नया रूप पेश किया था। शास्त्रीय संगीत से सजी 1952 में आई इस फिल्म की सफलता में संगीत का बड़ा हाथ था। तब नौशाद ‘रतन’, ‘अनमोल’, ‘शाहजहां’ और ‘मदर इंडिया’ जैसी फिल्मों में संगीत के कारण पहचाने जाने लगे थे। ‘बैजू बावरा’ के गीतकार शकील बदायुंनी भी नौशाद की खोज थे, लेकिन, इस फिल्म के लिए उन्हें उर्दू छोड़नी पड़ी और शुद्ध हिंदी में गीत लिखे। गीतों के साथ भजन ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ भी संगीतबद्ध किया गया था। नौशाद ने ‘बैजू बावरा’ के लिए डीवी पलुस्कर व उस्ताद अमीर खां की आवाज का भी इस्तेमाल किया था। नौशाद ने शास्त्रीय रागों का इस्तेमाल कर कई अच्छे फ़िल्मी गीत रचे। 1972 में ‘पाकीजा’ के संगीतकार गुलाम मोहम्मद के निधन के बाद नौशाद ने ही इस फिल्म का संगीत पूरा किया था। ‘अंदाज’ और ‘दुलारी’ जैसी फिल्मों के जरिये लता मंगेशकर के कैरियर को बढ़ाने में उनकी भूमिका रही। वे पहले संगीतकार थे, जिन्होंने फिल्म संगीत में बांसुरी, सितार, सारंगी का एक साथ इस्तेमाल किया।
मूक फिल्मों को आवाज मिलने के बाद संगीत का सिलसिला तेजी से चला। इसका असर ये हुआ कि फिल्मों की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर शास्त्रीय संगीत के कई दिग्गजों ने भी फिल्म संगीत में योगदान दिया। विख्यात बांसुरी वादक पन्नालाल घोष अपने कैरियर के शुरुआती दौर में फिल्मों से जुड़े रहे। 1957 में आई फिल्म ‘बसंत बहार’ में लता मंगेशकर के गाये गीत ‘मैं पिया तेरी तू माने या न माने, दुनिया जाने तू जाने या न जाने’ में पन्नालाल घोष को बांसुरी बजाने के लिए दिल्ली से बंबई लाया गया था। उनकी बांसुरी ने इस गीत को अमर बना दिया। सरस्वती देवी के संगीतकार बनने की कहानी भी इससे अलग नहीं है। हिमांशु राय के कहने पर वे फिल्मों में संगीत देने के लिए राजी हुई थीं। वे शास्त्रीय गायन में माहिर थीं, पर उन्हें प्रसिद्धि मिली सिनेमा की पहली महिला संगीतकार के रूप में! ‘अछूत कन्या’ और ‘जीवन नैया’ में सरस्वती देवी के संगीत ने जो किया, वो इतिहास बन गया। ‘गूंज उठी शहनाई’ के गीत ‘तकदीर का फसाना जाकर किसे सुनाएं’ में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई ने जो मधुरता घोली, उसे आज भी सुनने वाले महसूस करते हैं।
उस्ताद अल्ला रक्खा खां ने 50 के दशक में करीब 20 फिल्मों में संगीत दिया। इनमें ‘सबक’ और ‘बेवफा’ चर्चित हुई। सरोद वादक उस्ताद अली अकबर खां ने 1952 में फिल्म ‘आंधियां’ का संगीत दिया। विख्यात सितार वादक पं. रविशंकर ने ‘धरती का लाल’ में पहली बार संगीत दिया था। चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ में भी रविशंकर का ही संगीत गूंजा था। साल 1948 में उदय शंकर ने नृत्य नाटिका पर आधारित फिल्म ‘कल्पना’ बनाई थी। तय है कि भाई की फिल्म में रविशंकर ही संगीत देंगे! सत्यजीत राय की बांग्ला फिल्म ‘पाथेर पांचाली’, ‘अपूर संसार’ और उनकी पहली हिंदी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का संगीत भी उन्होंने ही दिया। 1960 में बनी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अनुराधा’ और ‘गोदान’ की संगीत रचना भी रवि शंकर की ही थी। बांसुरी वादक पं. हरिप्रसाद चौरसिया ने संतूर वादक शिवकुमार शर्मा के साथ जोड़ी बनाकर शिव-हरि के नाम से 1982 में यश चोपड़ा की फिल्म ‘सिलसिला’ में संगीत दिया था। बाद में इसी बैनर की ‘डर’, ‘लम्हे’ और ‘चांदनी’ में भी इसी जोड़ी ने संगीत दिया। ये सभी फिल्में अपने संगीत माधुर्य के कारण भी लोकप्रिय हुई।
अमीर खां ने 1955 में वी शांताराम की फिल्म ‘झनक झनक पायल बाजे’ में वसंत देसाई के संगीत निर्देशन में एक गीत भी गाया था। 1960 की ‘मुगल-ए-आजम’ के एक गीत के लिए नौशाद ने बड़े गुलाम अली खां तक को राजी कर लिया था। पं. भीमसेन जोशी ने 1957 में ‘बसंत बहार’ में मन्ना डे के साथ एक गीत गाने के बाद 1958 में ‘तानसेन’ और 1985 में ‘अनकही’ के लिए भी गीत गाए। 1973 में ‘बीरबल माय ब्रदर’ में उनकी पंडित जसराज के साथ जुगलबंदी बेहद पसंद की गई थी। वी शांताराम की फिल्म ‘गीत गाया पत्थरों ने’ में किशोरी अमोनकर ने एक गीत गाया था। वहीं प्रकाश झा की फिल्म ‘आरक्षण’ में अलका याज्ञनिक के साथ पं. छन्नूलाल मिश्रा ने ‘सांस अलबेली’ में आवाज दी थी।
रागों और फ़िल्मी गीतों का साथ
रागों और फ़िल्मी गीतों का लम्बा साथ रहा है। इनमें राग बिहाग, राग भैरव, भीमपलासी, राग भूपाली, राग दरबारी कान्हड़ा, राग देस, राग जयजयवंती, राग जौनपुरी, राग काफी और राग केदार प्रमुख हैं, जिन पर रचे गए गीत लोकप्रिय रहे। भारतीय शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों की अच्छी खासी शृंखला फिल्म संगीत में मिलती है। राग यमन में भी फिल्मी गीतों की संख्या बहुत है, जिनकी लम्बी सूची बनाई जा सकती है। फिल्मी गीतों में ज्यादातर यमन कल्याण का प्रयोग देखने मिलता है। गीत चाहे पुरानी फिल्मों के हों या नई फिल्मों के, यमन कल्याण राग का उपयोग हर कालखंड में हुआ है।
राग भैरवी में गीतों की भरमार
फिल्मी गीतों में रागों पर आधारित गीतों की बात करें, तो इनमें राग भैरवी का भरपूर उपयोग हुआ। छोड़ गए बालम (बरसात), फुल गेंदवा न मारो (दूज का चांद), लागा चुनरी में दाग (दिल ही तो है) और दुनिया बनाने वाले (तेरी कसम) भी भैरवी की देन थे। ‘बरसात’ फिल्म के तो सभी गीत भैरवी पर आधारित थे। ‘बैजू बावरा’ का गीत तू गंगा की मौज मैं, केएल सहगल का गाया गीत बाबुल मोरा नैहर, फिल्म ‘शोला और शबनम’ का रफी-लता का गीत ‘जीत ही लेंगे बाजी हम तुम’ से लेकर एआर रहमान के फिल्म ‘दिल से’ के गीत ‘जिया जले जान जले’ तक सभी गीत राग भैरवी में रचे गए। इसके बाद राग शिवरंजनी में भी कई संगीतकारों ने गीत बनाए। शंकर-जयकिशन ने बहारो फूल बरसाओ, जाने कहां गए वो दिन, संसार है एक नदिया जैसे गीतों की रचना की। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन, हेमंत कुमार ने कहीं दीप जले कहीं दिल और आरडी बर्मन ने मेरे नैना सावन भादो जैसे सुमधुर गीत दिए। जाने कहां गए वो दिन (मेरा नाम जोकर), ओ साथी रे (मुकद्दर का सिकंदर), तेरे मेरे बीच में (एक दूजे के लिए) और ‘संगम’ का गीत ओ मेरे सनम भी शिवरंजनी की ही देन है। राग बागेश्वरी भी फ़िल्मी गीतों का प्रिय राग रहा। ‘कुदरत’ का गीत तूने ओ रंगीले, तू गंगा की मौज मैं और ‘मधुमति’ का आ जा रे परदेसी भी इसी राग पर आधारित थे।