विश्वनाथ सचदेव
पिछले आम-चुनाव में जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली ‘मन की बात’ में कहा था, ‘जनतंत्र हमारे संस्कारों में है, हमारी संस्कृति में है। जनतंत्र हमारी विरासत है।’ अच्छा लगा था यह सुनकर। निस्संदेह चुनाव में भाजपा को भारी सफलता मिली थी। कोई भी पार्टी ऐसी स्थिति में इतरा सकती है, लेकिन इस भारी सफलता ने भाजपा के कंधों पर एक भारी-भरकम बोझ डाल दिया था—जनतांत्रिक भावना की रक्षा का बोझ। इस बोझ का तकाज़ा था कि भाजपा फलों से लदे पेड़ की तरह ज़रा झुक जाती, उन परंपराओं की लकीर को गहरा करने का काम करती, उन्हें और लंबा करती जो जनतंत्र को सार्थक और मज़बूत बनाती हैं।
भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और अब देश के गृहमंत्री ने तब कहा था कि देश को कांग्रेस-मुक्त करना उनका मिशन है, और जिस तरह एक के बाद दूसरे राज्य में सत्ता कांग्रेस के हाथ से फिसली, उससे लगने लगा था कि वे अपने घोषित मिशन को पूरा करने में लगातार सफल हो रहे हैं। गिनती के राज्य ही कांग्रेस के हाथ में बचे थे। उत्तर-पूर्व के राज्यों में कांग्रेस को अपदस्थ करके भाजपा की ताकत अचानक बढ़ गयी थी। पर इस ताकत को बढ़ाने में भाजपा कुछ खो भी रही थी—सत्ता तो मिली, पर पार्टी की विश्वसनीयता पर आंच आने लगी थी। यह सही है कि इसके बावजूद सरकारों की संख्या की दृष्टि से भाजपा अपने अभियान में सफल हो रही थी, पर उन तरीकों पर सवालिया निशान भी लग रहे थे, जिन्हें अपना कर ‘अलग पहचान’ का दावा करने वाली पार्टी अपना विजय-रथ बढ़ा रही थी।
चुनाव से पहले दूसरे दलों के व्यक्तियों को अपने पाले में लाकर अपनी स्थिति मज़बूत करना और चुनाव के बाद दल-बदल करवा कर सरकारें गिराना-बनाना अपने आप में कुछ खास ग़लत नहीं लगता, पर सिद्धांतहीन दल-बदल को स्वस्थ जनतंत्र की पहचान भी तो नहीं कहा जा सकता। जिस तरह मध्य-प्रदेश में सरकार बनायी गयी थी, और जिस तरह दल-बदल करने आने वालों को इनाम में मंत्री-पद दिये गये थे, वह स्तरहीन राजनीति और जनतंत्र के अपमान के रूप में ही याद किया जायेगा। वैसे ऐसा मामला इनाम का नहीं, सौदेबाजी का माना जाना चाहिए। इसी तरह, चुनाव से पहले दूसरे दलों से नेताओं को अपने पाले में लाकर अपनी टीम को मज़बूत बनाना ही भले ही ऊपरी तौर पर ग़लत न लगता हो, पर कल तक जिन नेताओं को दाग़ी कहा जा रहा था, अपने पाले में लेकर उन्हें बेदाग़ घोषित करना भी तो उचित नहीं कहा जा सकता। पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनाव-प्रचार में ममता बनर्जी इसी बात को लेकर भाजपा की तुलना ‘वाशिंग मशीन’ से कर रही हैं।
बहरहाल, दल-बदल का ताज़ा उदाहरण दक्षिण भारत के केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में दिखा है। इकत्तीस सदस्यों वाली पुडुचेरी की विधानसभा में कांग्रेस के नारायणसामी के नेतृत्व वाली सरकार को 19 सदस्यों का समर्थन प्राप्त था। चुनावों में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने अपनी पार्टी के तीन कार्यकर्ताओं को नामजद करके पुडुचेरी में विधायक बना दिया था। आपत्ति तो उठायी गयी थी इसे लेकर, पर नारायणसामी की सरकार, चूंकि बहुमत में थी, इसलिए ज़्यादा बवाल नहीं उठा। पर पिछले चार साल के कार्यकाल में उपराज्यपाल किरण बेदी के माध्यम से केंद्र सरकार पर राज्य की सरकार को निर्विघ्न कार्य न करने देने के आरोप लगातार लगते रहे। यहां तक कि मुख्यमंत्री को राष्ट्रपति के दरबार में गुहार लगानी पड़ी कि वे उपराज्यपाल को वापस बुला लें। पर कुछ हुआ नहीं। रस्साकशी चलती रही। अब, जबकि कुछ ही सप्ताह बाद पुडुचेरी में चुनाव होने वाले थे, एक दिन अचानक उपराज्यपाल पद से किरण बेदी को हटा दिया गया। इसी दौरान पिछले एक महीने में कांग्रेस के छह विधायकों ने पद से त्यागपत्र दे दिया, इनमें यूनियन टेरिटरी के दो मंत्री भी शामिल थे। अंतत: नारायणसामी के नेतृत्व वाली सरकार गिर गयी और चुनाव से कुछ ही सप्ताह पहले पुडुचेरी कुल मिलाकर केंद्र सरकार के अधीन हो गया। चुनाव ज़्यादा दूर नहीं है, इसलिए अब राष्ट्रपति-शासन लागू कर दिया गया है। पर हवा में जो सवाल उछल रहे हैं, उनमें एक यह भी है कि चार-साढ़े चार साल तक शासन में रहने के बाद अचानक छह कांग्रेसी विधायकों को घुटन महसूस क्यों होने लगी?
नारायणसामी इस दल-बदल के लिए भाजपा की केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि दो विधायकों का शक्ति-परीक्षण से एक रात पहले दल-बदल करना एक खुला रहस्य है। उनका यह भी कहना है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व नहीं चाहता था कि चुनाव के समय पुडुचेरी में कांग्रेस की सरकार रहे, इसीलिए यह दल-बदल का खेल खेला गया और इसीलिए उपराज्यपाल को भी बदला गया।
अपने इन आरोपों को प्रमाणित करने के लिए नारायणसामी के पास कोई प्रमाण तो नहीं हो सकता, पर घटनाक्रम को देखते हुए, और गोवा, मेघालय, मध्य-प्रदेश आदि के पिछले उदाहरणों से यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि सब कुछ उतना सहज-सरल नहीं है, जितना दिखाने की कोशिश हो रही है। विधानसभा से इस्तीफे देने वाले दो सदस्यों ने तो भाजपा की सदस्यता भी ले ली है!
जिन जनतांत्रिक संस्कारों और संस्कृति की बात प्रधानमंत्री ने आम-चुनाव शान से जीतने के बाद की थी, दल-बदल के ये उदाहरण उन्हें धूमिल ही करते हैं। तकनीकी दृष्टि से भले ही पुडुचेरी के विधायकों के इस्तीफों में कुछ ग़लत न लगता हो, पर सब कुछ सही भी नहीं लग रहा। दल-बदलुओं का एक लंबा इतिहास रहा है हमारा। इसे लेकर गंभीर सवाल भी उठते रहे हैं। कानून भी बने हैं इन संदर्भ में। पर राजनीतिक स्वार्थों के चलते सत्ता के दावेदार ‘जनतंत्र की इस बीमारी’ से मुक्त भी नहीं होना चाहते। यह दल-बदलू संस्कृति जनतंत्र की मूल भावना पर आघात करती है। जनतांत्रिक व्यवस्था कुछ मूल्यों और आदर्शों के अनुरूप चलनी चाहिए। इन मूल्यों और आदर्शों की बात तो हमारे नेता करते हैं, पर उनके अनुसार आचरण करने की आवश्यकता महसूस नहीं करते। यह एक त्रासदी है। राजनीतिक स्वार्थों के चलते रातों-रात पाला बदलने वाले-और बदलवाने वाले भी- चाहे कुछ भी तर्क दें, पर हकीकत यही है कि हमारी राजनीति जनतांत्रिक संस्कारों-संस्कृति से मेल नहीं खाती। पुडुचेरी अकेला उदाहरण नहीं है। पश्चिम बंगाल में भी जिस तरह की चुनावी-राजनीति चल रही है, वह भी निराश ही करने वाली है। जिस तरह के तर्क, और जिस तरह की भाषा हमारे शीर्ष नेता काम में ले रहे हैं, वह निराश करने वाली है। अब यह मतदाता पर निर्भर करता है कि वह इस निराशा से कैसे उबरता है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।