हमीर सिंह
चंडीगढ़, 29 नवंबर
देश में 3 कृषि कानूनों, प्रस्तावित बिजली बिल-2020 और पर्यावरण के बारे में अधिसूचना के खिलाफ पंजाब से शुरू हुआ किसान आंदोलन, जहां पूरे देश में फैल रहा है, वहीं दुनिया का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। इन कानूनों को वापस लेने की मांग तो अपनी जगह ठीक है, लेकिन कृषि पहले से भी घाटे का सौदा हो गई है, इसलिए कृषि संबंधित नीतियों, इससे जुड़ी संस्थाओं और इस बारे में लिए जा रहे फैसलों पर चर्चा समय की जरूरत है। इसी के तहत कृषि तथा खाद्य मामलों के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा के साथ बातचीत हुई। इसमें उन्होंने देशभर में चल रहे किसान आंदोलन पर कहा कि इतनी ठंड के बावजूद किसानों का लगातार धरने पर बैठना और करीब 2 महीने से आंदोलन चलाना कोई अासान बात नहीं है। यह पहला मौका है कि इस आंदोलन को लेकर कोई यह नहीं कह सकता कि यह किसी विशेष विचाराधारा के अनुसार चल रहा है, बल्कि इस आंदोलन ने राजनीति को प्रभावित किया है और इसके पीछे लगने के लिए मजबूर किया है। आंदोलन कितना सफल रहेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन यह आंदोलन देश को बड़ा संदेश देकर जाएगा। देश को यह संदेश समझ लेना चाहिए कि कृषि और किसानों के बारे में अब तक जो कुछ चलता आ रहा है, अब नहीं चलेगा।
कोरोना काल में अध्यादेश लाने और फिर इसे कानून का रूप देने के बारे में उन्होंने कहा कि सरकार 5 जून को पहले अध्यादेश लाती है और इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बड़े हिस्सेदार के साथ बातचीत करना भी जरूरी नहीं समझती है। यह दलील देना कि इन कानूनों से बाजार में बहुत उत्साह है, इस बात से ही स्पष्ट है कि जिन्हें इन कानूनों से फायदा होगा वे उत्साहित हो सकते हैं, लेकिन ये कानून जिसके (यानी कि किसान) खिलाफ हैं, वे आंदोलन करने के लिए मजबूर हैं। उन्होंने कहा कि किसान आमदन की गारंटी चाहता है। इसका एक हिस्सा न्यूनतम समर्थन मूल्य से जुड़ा हुआ है। कृषि अर्थशास्त्रियों ने भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। उन्हें किसानों की तरफ से यह दलील देनी चाहिए थी कि किसान पैदावार करके नहीं, बल्कि आमदन की गारंटी के लिए संकट में है। नीतिगत स्तर पर यह दबाव नहीं बनाया गया, इसलिए किसानों को खुद मोर्चा संभालना पड़ा। आंदाेलन स्पष्ट संकेत है कि सरकार कृषि के प्रति अपना नजरिया बदले।