राजवंती मान
भगवानदास मोरवाल का ऐतिहासिक उपन्यास खानजादा मध्यकालीन तुगलक शाही से लेकर मुगलिया सल्तनत के पांव जमाने के बीच की अस्थिरता और राजनीतिक उठापटक को सामने लाता है। दिल्ली की सुल्तानी जंग में पानीपत के दो और अन्य कई युद्धों के अतिरिक्त यह उपन्यास दिल्ली से सटे इलाकों विशेषकर मेवात क्षेत्र को केंद्र में रखकर, इतिहास में प्राय: विस्मृत या धूमिल रहे योद्धाओं का ऐतिहासिक सामाजिक नैरेटिव प्रस्तुत करता है और यही भूमिका इसे खास बनाती है।
भगवानदास मोरवाल ऐतिहासिक गल्प के ऐसे कथाकार और इतिहास अन्वेषक हैं, जिन्हें भूतकाल को वर्तमान में पेश करने की अनूठी महारत हासिल है। वे युद्धों, सत्ता के षड्यंत्रों, क्रूरताओं, आक्रान्ताओं से लोहा लेने वाले मेवातियों का ऐसा जीवंत विवरण पेश करते हैं कि सब कुछ आंखों के सामने घटित होता प्रतीत होता है।
उपन्यास खुलता है चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में। अलवर के अरावली शिखर पर बने परकोटे में निकुंभ राजपूतों द्वारा रोजाना की जाने वाली क्रूरता में चंपा का बेटा आज बलि चढ़ गया। शोकग्रस्त मां बहादुर नाहर के पास जाकर विलाप करती है—ऐसे तो हम एक दिन निरबंस हो जाएंगे। रोज-रोज कहां तक बलि दें सरदार बहादर! क्रोधित बहादुर नाहर अगली बलि लिए जाने के समय चंदा के राख की टोकरी नीचे फेंकने के संकेत पर निकुंभों पर हमला कर कब्जा कर लेते हैं। वह स्थान आज डूमनी की दांता कहलाता है।
उपन्यास का शीर्षक खानजादा एक उपाधि है जो जादू वंश के शौपरपाल और समरपाल राजपूत भाइयों के फिरोजशाह तुगलक के सामने इस्लाम कबूल करने के बाद छज्जू खां और बहादुर नाहर खां हो गये। बाद में तैमूर लंग ने बहादुर नाहर खां को खानजादा ख़िताब दिया और ये मेवात क्षेत्र पर हुकूमत करते रहे।
उपन्यास में दिल्ली के अफगानी शासक इब्राहिम लोदी को हराने के लिए बाबर द्वारा खानजादा हसन खां मेवाती को मजहब के नाम पर साथ देने का पैगाम और हसन खां का वतनपरस्ती में इनकार-मुल्क मजहब से बड़ा होता है। तैमूरी बाबर का काबुल से चलकर पानीपत में युद्ध, इब्राहिम लोदी की मौत और दिल्ली पर कब्जा और नृशंसता की कथाओं का मार्मिक चित्रण है। शेरशाह सूरी, हेमू, हुमायूं, अकबर जैसे शासकों के अतिरिक्त यह उपन्यास हसन खां मेवाती, बैरम खां, अब्दुर्रहमान खानेखाना जैसे योद्धाओं के शौर्य और निजी जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर रोशनी डालता है जिनका इतिहास के पन्नों में धुंधला-सा जिक्र है या फिर है ही नहीं।
खानवा के युद्ध में राणा सांगा और हसन खां मेवाती की एकजुटता से डरे बाबर को जंगे मैदान में कई जगह आग जलती दिखाई देती है। पूछने पर पता लगता है कि राजपूत सामंतों और राजाओं का खाना बनाने के लिए चूल्हे जल रहे हैं। अलग-अलग वर्णों वाले लोग खाना बना रहे हैं। बाबर हैरान हो सोचता है कि जहां जंगी सिपाहियों का खाना एक जगह नहीं बनता, उनके दस्तरखान भी अलग-अलग हैं वहां हमें कोई नहीं हरा सकता । हिंदुस्तान ताकत और दौलत का समंदर है। यहां फूट डालो और राज करो की नीति चलेगी। खैर इस युद्ध के साथ ही खानजादा सियासत का अंत हो जाता है।
लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से युद्धों की विभीषिका, कलम किये सिरों की कल्ला मीनारों, राजपूत रानियों के जौहर कुंड में कूद कर सती होने आदि के हृदयविदारक विवरण प्रस्तुत केए हैं। अकबर के नौ रत्नों में शामिल योद्धा और सहृदय कवि अब्दुर्रहीम खानेखाना की शोहरत, दानशीलता और कलम की सत्यता से आहत शहंशाह जहांगीर द्वारा उसे सब खिताबों और ओहदों से विहीन कर देने के मार्मिक प्रसंग के साथ उपन्यास खत्म होता है। प्रवाहमयी भाषा शैली, लोक योद्धाओं की गाथाएं, मेवाती बोली की महक, देसज और उर्दू- फारसी शब्दों का यथोचित उपयोग उपन्यास को रोचक और पठनीय बनाता है।
पुस्तक : खानजादा लेखक : भगवानदास मोरवाल प्रकाशक : राजकमल प्रकाश्ान, नयी दिल्ली पृष्ठ : 392 मूल्य : रु. 399.