भरत झुनझुनवाला
इस समय अर्थव्यवस्था में मीठे -खट्टे दोनों संकेत मिल रहे हैं। एक तरफ कृषि उत्पादन चरम पर है, रेलवे द्वारा की जा रही ढुलाई बढ़ रही है, कोरोना से लोहा लेने के लिए दवा, वेंटिलेटर और पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट बड़ी मात्रा में बन रहे हैं एवं प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भारी मात्रा में आ रहा है। ये ऊर्ध्वगामी मीठे संकेत हैं लेकिन इसके सामने तमाम विपरीत यानी खट्टे संकेत भी मिल रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार इस वर्ष बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय 1888 डॉलर प्रति व्यक्ति रहेगी जबकि भारत की इससे कम 1877 डॉलर। मूडी ने भारत सरकार की रेटिंग को बीएए3 स्तर पर घटा दिया है जो कि निवेश के लायक रेटिंग का न्यूनतम स्तर है। हमारी रेटिंग यदि इससे एक पायदान भी नीचे गिरती है तो उसका अर्थ होगा कि वैश्विक आकलन के अनुसार भारत सरकार द्वारा जारी किये गये ऋण में निवेश करना खतरनाक रहेगा। हमारे निर्यातों में कच्चे माल जैसे लौह खनिज और चावल के निर्यात बढ़ रहे हैं और उत्पादित माल जैसे ज्यूलरी, चमड़ा उत्पाद और कपड़े के निर्यात गिर रहे हैं जो यह दिखाता है कि हमारे उद्यम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे पड़ रहे हैं।
हम कच्चा माल बनाकर निर्यात कर रहे हैं और अपने ही कच्चे माल से उत्पादित तैयार माल को उनसे खरीद रहे हैं। वैश्विक भुखमरी संकेतांक में बांग्लादेश विश्व में 75वें पायेदान पर, म्यांमार 78वें पर, पाकिस्तान 88वें पर और भारत इन सबसे नीचे 94वें पायेदान पर खिसक गया है। कोविड की बात करें तो श्रीलंका में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर 1 मृत्यु हुई है, म्यांमार, बांग्लादेश और पाकिस्तान में 40 से कम मृत्यु हुई हैं और भारत में 97 मृत्यु हुई हैं। यानी कोविड का सामना करने में भी हम अपने पड़ोसी देशों से बहुत पीछे हैं। इन खट्टे संकेतों से समझ आता है कि हमारी स्िथति गम्भीर है और पुराने फार्मूले इस परिस्थिति में नहीं चलेंगे।
इस परिप्रेक्ष्य में रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा है कि भारत को संरक्षणवाद का फार्मूला नहीं अपनाना चाहिए। संरक्षणवाद के अंतर्गत हम बाहर से आने वाले माल पर आयात कर अधिक आरोपित करते हैं, जिससे कि विदेशों में बना सस्ता माल हमारे देश में प्रवेश नहीं कर पाता है। ऐसे में हमारे देशी माल के दाम ऊंचे हो जाते हैं और हमारे अकुशल उद्योग भी माल बनाकर उसे बेच पाते हैं। वर्ष 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले हमने इसी नीति को अपना रखा था और अपने देश में 150 प्रतिशत तक आयात कर लगाये जाते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि विदेशी माल महंगा पड़ता था, हमारे उद्यमियों को विदेशी माल से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी पड़ती थी और वे अपने अकुशल और महंगे उत्पाद को बाजार में बेच पाते थे क्योंकि बाजार में विदेशी सस्ता माल प्रवेश नहीं कर रहा था।
उद्यमियों की अकुशलता के साथ-साथ नेताओं और नौकरशाहों को भी वसूली करने का पर्याप्त अवसर मिलता था। जैसे उनके द्वारा की गई वसूली से उत्पादन लागत में जो वृद्धि होती थी वह भी खप जाती थी क्योंकि आयातित माल से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी पड़ती थी। जैसे यदि विश्व में एक ट्यूबलाइट को बनाने की वास्तविक लागत 500 रुपये हो और इसमें नौकरशाही और नेताओं की वसूली 300 रुपये और उद्यमी की अकुशलता के कारण 200 रुपये की लागत में वृद्धि हो तो अपने देश में ट्यूबलाइट 1000 रुपये में बाजार में बिकेगी। इस परिस्थिति में यदि 500 रुपये की आयातित ट्यूबलाइट पर 500 रुपये का आयात कर लगा दिया जाए तो वह आयातित ट्यूब लाइट भी 1000 रुपये में पड़ेगी और तब अपने देश में बनी हुई 1000 रुपये की ट्यूबलाइट, जिसमें 300 रुपये की वसूली और 200 रुपये की अकुशलता का बोझ शामिल है, वह बिक सकेगी। इस दृष्टि से रघुराम राजन ने कहा है कि हमें संरक्षणवाद नहीं अपनाना चाहिए, आयात कर नहीं बढ़ाने चाहिए क्योंकि ऐसा करने से पुनः हम पुरानी स्थिति में आ जायेंगे और अपने देश में अकुशल उत्पादन चलता रहेगा।
लेकिन 1991 कि परिस्थिति और आज की परिस्थिति में तीन मौलिक अंतर हैं। पहला यह कि पूर्व में हम 150 या 200 प्रतिशत तक आयात कर वसूल करते थे। उस स्िथति में घरेलू उत्पादन अति अकुशल होकर भी जीवित रह सकता था। जैसे 500 रुपये की ट्यूबलाइट पर यदि 500 रुपया आयात कर लगा दिया जाए तो अपने देश में 1000 रुपये की ट्यूबलाइट का अकुशल उत्पादन चलता रह सकता है। वर्तमान स्थिति में अपने देश में औसत आयात कर लगभग 15 प्रतिशत हैं। इसे यदि बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया जाए तो अकुशलता की जो संभावना है, वह 25 प्रतिशत तक सीमित हो जायेगी। यानी 500 रुपये की ट्यूबलाइट पर यदि 25 प्रतिशत या 125 रुपया आयात कर लगा दिया जाए तो आयातित ट्यूबलाइट देश में 625 रुपये की बिकेगी और ऐसी परिस्थिति में भारत के उद्यमी की अकुशलता और वसूली का प्रभाव 125 रुपये से अधिक नहीं हो सकेगा।
दूसरा अंतर यह कि पूर्व में उद्यमियों के एकाधिकार को भारत सरकार संरक्षण देती थी। जैसे आर्थिक सुधारों के पहले अपने देश में बिरला की हिंदुस्तान मोटर्स और वालचंद की प्रीमियर मोटर्स, दो ही कार निर्माता सफल थे। टाटा ने उस समय कार बनाने का आवेदन सरकार को दिया था लेकिन बिरला और वालचंद के एकाधिकार को बचाये रखने के लिए सरकार ने टाटा को कार बनाने का लाइसेंस नहीं दिया। लेकिन आज इस प्रकार का एकाधिकार समाप्त हो गया है और लाइसेंस देने की प्रक्रिया ही समाप्त हो चुकी है। कोई भी उद्यमी कार बनाने का कारखाना लगा सकता है। इसलिए एकाधिकार के पीछे इस प्रकार की अकुशलता वर्तमान में नहीं चल सकती।
तीसरा अंतर यह है कि आज तमाम भारतीय उद्यमी भारत में उत्पादन न करके चीन में निवेश करते हैं, वहां उत्पादन करते हैं और वहां से तैयार माल को लाकर अपने घरेलू बाजार में बेचते हैं। भारतीय उद्यमियों को चीन में वैश्विक स्तर की उत्पादन प्रणालियां उपलब्ध हैं और वे वैश्विक स्तर का उत्पादन कर सकते हैं। पूर्व में ऐसी स्थिति नहीं थी। पूर्व में भारतीय उद्यमी अपने संरक्षण की दीवारों के पीछे संरक्षित थे और वे कुशल उत्पादन करना जानते ही नहीं थे। इसलिए यदि हम आज संरक्षण को अपनाएंगे तो 1991 के पहले की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। आयात करों का स्तर सीमित होने से, बड़े उद्यमी का एकाधिकार न होने से और भारतीय उद्यमियों के वैश्विक कुशलता हासिल कर लेने से आज संरक्षण की दीवार के पीछे भी हमारा उत्पादन मूलतः कुशल बना रह सकेगा। यद्यपि इसमें कुछ गिरावट आ सकती है।
इस नुकसान के सामने लाभ यह होगा कि आयातित माल पर वसूल किये गये अधिक आयात कर से हम अपने देश की जनता को सीधे रकम हस्तांतरित कर सकते हैं, जिससे कि वे कोविड संकट के समय उत्पन्न हुई गहरी आर्थिक कठिनाई का सामना कर सकेंगे। वर्तमान में अपने देश को नये तरीके की सोच के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है।
लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।