यह आंकड़ा विचलित करता है कि दुनिया में हत्याओं के मुकाबले आत्महत्या करने वालों की संख्या ज्यादा है। जिसके मूल में आर्थिक विसंगतियां, जटिल होती जीवन की परिस्थितियां, दरकते सपने और तंत्र की नाकामी समेत कई शारीरिक-मानसिक रोग शामिल हैं। कहीं न कहीं हमारा समाज मानसिक बीमारियों के प्रति संवेदनहीन बना रहता है। दरअसल, समाज में हत्या जैसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिये सरकारी तंत्र, कानून प्रवर्तन एजेंसियां, जेल व न्यायालय मौजूद हैं लेकिन आत्महत्याओं को रोकने के लिये कोई कारगर तंत्र मौजूद नहीं है। तब यह चिंता ज्यादा बढ़ जाती है जब हम पाते हैं कि भारत में हत्या की तुलना में आत्महत्या की संभावना पांच गुना अधिक है। जहां इस संकट को संबोधित करने के लिये सरकारों के स्तर पर कारगर तंत्र नहीं है, वहीं मानसिक अवसाद व रोग के प्रति समाज की सहानुभूति का भी नितांत अभाव है। मानसिक स्वास्थ्य के उपचार के लिये भी कारगर चिकित्सा व्यवस्था नहीं है। यदि हम लैटिन अमेरिका के कुछ ड्रग माफिया ग्रस्त इलाकों के अपवाद को नजरअंदाज कर दें तो हत्या बनाम आत्महत्या की वैश्विक दर समान है। यह ठीक है कि देर-सवेर आत्महत्या के आंकड़ों के प्रति सरकारों ने अब ध्यान देना शुरू किया है। उन समूहों को चिन्हित किया जा रहा है जिनमें आत्महत्या की दर अधिक है। इनमें शैक्षिक जगत में नाकामी झेलने वाले छात्र, पारिवारिक तनाव से जूझते बुजुर्ग-महिलाएं, जटिल परिस्थितियों में तनाव के बीच काम करने वाले सैन्य व अर्द्धसैनिक बलों के जवान भी शामिल हैं। कम वेतन से घिसटती जिंदगी तथा बेरोजगारों में यह संकट बढ़ा है। यह अच्छी बात है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति वाले लोगों की देखभाल व पुनर्वास की तरफ अब सरकार भी गंभीरता से सोचने लगी है। इस दिशा में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 को एक सार्थक पहल के रूप में देखा गया। इसके अंतर्गत सोच थी कि कोई व्यक्ति आत्मघाती कदम एक मानसिक रोगी के रूप में उठाता है, जिसके प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण रखते हुए उसे अपराधी के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए।
दरअसल, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 के माध्यम से मानसिक रोगियों के प्रति सरकार की ओर से संवेदनशील पहल की गई जहां मानसिक रोगियों को पर्याप्त स्वास्थ्य-चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही गई, वहीं मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों को बिजली के करंट के झटके से उपचार की पद्धति पर रोक लगाने को कहा गया। दरअसल, अधिनियम का मकसद मानसिक रोगों के उपचार को प्राथमिकता देना था। निस्संदेह, इस राह में तमाम तरह की बाधाएं हैं। पहले तो रोगी व्यक्ति अपने मानसिक रोग को स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। कोई स्वीकारता भी है तो समाज में उसे तुरत-फुरत पागल करार देने की प्रवृत्ति अभी गई नहीं है। देश कई विषम परिस्थितियों के चलते तमाम मानसिक रोगों से जूझ रहा है। समाज में अवसाद व मादक द्रव्यों का सेवन इस रोग को विस्तार देता है। साथ ही हमारे समाज में मानसिक रोगों के उपचार के लिये पर्याप्त चिकित्सालय व प्रशिक्षित डॉक्टरों का नितांत अभाव है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े डराने वाले हैं। इसके अनुसार भारत में साल 2020 में आत्महत्या करने वालों की संख्या अपने उच्चतम स्तर पर डेढ़ लाख तक जा पहुंची। निस्संदेह, कोरोना संकट ने इस रोग को अधिक बढ़ाया। इस महामारी की लहर में बहुत अधिक लोगों ने अपने परिजनों, रिश्तेदारों व मित्रों को खोया है। लाखों परिवारों के मुखिया के महामारी की चपेट में आने से पूरा परिवार गहरे अवसाद में डूब गया। लाखों बच्चों ने अपने माता या पिता में से किसी को खोया। महामारी के अज्ञात भय ने पूरे समाज को उद्वेलित किया। यह विडंबना ही है कि हम देश में मानसिक रोगों के उपचार के लिये पर्याप्त संख्या में मनोचिकित्सकों व परामर्शदाताओं के साथ मानसिक उपचार की सुविधाओं की व्यवस्था करने में विफल रहे हैं। इसके उपचार के लिये समाज में जागरूकता फैलाने की जरूरत है कि शारीरिक बीमारी की ही तरह मानसिक बीमारी का भी उपचार संभव है। निस्संदेह, मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों के प्रति समाज का संवेदनशील व्यवहार आत्महत्या रोकने में कारगर साबित हो सकता है।