ऋतु सारस्वत
विश्व के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई ने इस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य को पुनः सिद्ध कर दिया कि लैंगिक समानता की बातें कागजों में ही बेहतर लगती हैं वास्तविकता का इससे दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। हाल ही में बोर्ड ने महिला और पुरुष खिलाड़ियों की मैच फीस की घोषणा की है। पुरुष टीम के टॉप ग्रेड खिलाड़ी को सालाना सात करोड़ रुपये और वहीं महिला टीम का कॉन्ट्रैक्ट ही 5.1 करोड़ रुपये का है यानी 14 गुना कम और इसके पीछे तर्क दिया गया है महिला क्रिकेट टीम के कम मैच होने का जबकि यह जगजाहिर है कि मैच कराना बीसीसीआई की जिम्मेदारी है।
महिलाओं की क्षमता को सदैव ही संदेह से देखा जाता रहा है जबकि आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते हैं। साल 2014 के बाद महिला टीम टी-20 और 50 ओवर वर्ल्ड कप के फाइनल तक पहुंच चुकी है जबकि पुरुष टीम तीनों वर्ल्ड कप के सेमीफाइनल में ही हार गई। इतना ही नहीं टी-20 इंटरनेशनल में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले महिला और पुरुष खिलाड़ी टॉप पांच में पहले दो स्थानों पर काबिज महिलाएं पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ते हुए यह साफ संदेश दे रही हैं कि पितृसत्तात्मक समाज अब यह भ्रम न पाले कि खेलों पर उनका ही वर्चस्व है।
दुनियाभर में महिलाओं को खेलों में गैर-बराबरी का यह दर्जा क्यों प्राप्त है यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। दरअसल, हर वह क्षेत्र जो आधी दुनिया को आत्मनिर्भर और आत्मबल प्रदान करता है वह पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था को स्वीकार नहीं है क्योंकि यह प्रत्यक्ष रूप से समाज में स्थापित उनके वर्चस्व को चुनौती देता है। खेल के माध्यम से महिलाएं सामाजिक, सांस्कृतिक बंधनों और लिंग भेदभाव की रूढि़वादी सोच को चुनौती दे सकती हैं। पुरुष और महिला खिलाड़ियों के बीच असमानता तब से सुर्खियों में है जब संयुक्त राज्य अमेरिका की महिला टीम ने यूएस सोकर पर मुकदमा दायर किया था और लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई थी। हैरानगी तो इस बात की है कि जिस अमेरिकी महिला फुटबॉल टीम ने चार बार वर्ल्ड खिताब अपने नाम किया उसी टीम को समान वेतन के मुद्दे पर लॉस एंजेलिस की अदालत में हार का सामना करना पड़ा। उल्लेखनीय है कि इस संबंध में फुटबॉल संघ की दलील है कि महिलाओं को कम मेहनताना विश्व फुटबॉल संघ फीफा के नियमों के कारण मिलता है जो कि पुरुष और महिला फुटबॉल के लिए संघ को अलग-अलग फीस देती है। पुरुषों का खेल देखने के लिए अधिक भीड़ जुटने का दावा करने वाला फेडरेशन इस प्रश्न का उत्तर नहीं खोज पाया कि उनके दावों के विपरीत महिला टीम ने पुरुष टीम के मुकाबले बेहतर आर्थिक लाभ दिया है बावजूद इसके महिलाओं के खेलों के प्रति छिपी नकारात्मकता को पितृसत्तात्मक सोच छुप नहीं पाती।
वर्ष 2016 में टेनिस स्टार नोवाक जोकोविच ने कहा था कि ‘आदमियों को खेल के लिए महिलाओं से ज्यादा पैसा इसलिए मिलना चाहिए क्योंकि उनका खेल ज्यादा देखा जाता है।’ वहीं 2017 में जॉन मेकेनरो ने अपने एक ट्वीट में कहा कि ‘इस समय महिला टेनिस में पहली रैंक पर खेलने वाली सेरना अगर पुरुषों के साथ खेल रही होती तो उनकी रैंक 700वीं होती। जॉन मेकेनरो की टिप्पणी बॉबी रिंग्स की याद दिला देती है जब उन्होंने कहा था कि महिलाओं के टेनिस में कोई दम नहीं है, जिसके प्रतिउत्तर में बिली जीन किंग ने पूर्व नंबर एक टेनिस खिलाड़ी बॉबी रिंग्स की चुनौती स्वीकार की थी। ‘बैटल ऑफ सेक्सेस’ के नाम से विख्यात इस खेल में बिली ने 6-4, 6-3, 6-3 के सेट से बॉबी रिंग्स को पराजित कर दिया। इस जीत ने महिला एथलीट की क्षमता को तो अवश्य स्थापित किया परंतु खेल की दुनिया में महिलाओं के विरुद्ध बरती जाने वाली असमानताएं नहीं बदल पाईं, जिसकी परिणति आज भी महिला खिलाड़ियों का बराबरी के लिए अनवरत संघर्ष है।
नवंबर, 2019 में ब्राजील महिला फुटबॉल खिलाड़ियों ने पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में मिलने वाले कम मेहनताने का विरोध करने के लिए अपने एक मैच के दौरान गोल स्कोर को 20 प्रतिशत कम करके दिखाया क्योंकि उन्हें अपने समकक्ष पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में 20 प्रतिशत कम मेहनताना मिलता था। सौभाग्य से ब्राज़ील फुटबॉल फेडरेशन ने अपनी महिला खिलाड़ियों के रोष को समझा और बीते वर्ष ऑस्ट्रेलिया, नॉर्वे और न्यूजीलैंड के साथ वह उन देशों के क्रम में आ खड़ा हुआ जहां महिला टीम को पुरुष टीम के बराबर वेतन दिया जाता है।
इस सत्य से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता कि जो अधिकार बिना किसी संघर्ष के महिला खिलाड़ियों को स्वाभाविक रूप से प्राप्त होने चाहिए उसके लिए न केवल उन्हें संघर्ष करना पड़ता है बल्कि जब उन्हें यह समानता मिल भी जाती है तो उन्हें यह महसूस करवाया जाता है कि इसके लिए उन्हें पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था का अहसानमंद होना चाहिए। महिला खिलाड़ियों के लिए जमीनी स्तर पर इतनी असमानताएं हैं कि अब उस पर विमर्श होना आवश्यक हो गया है।
वर्ष 2017 में बिली जीन ने कहा था ‘समान कार्य के लिए समान वेतन एक सपना नहीं होना चाहिए। यह वर्तमान पीढ़ी के लिए आजादी के इनाम में से एक होना चाहिए। इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए यह महत्वपूर्ण है।’ यह तय है कि महिलाएं किसी भी स्तर पर पुरुषों से कमतर नहीं हैं परंतु पुरुषसत्तात्मक वैश्विक व्यवस्था के गले से यह बात नहीं उतरती और इसीलिए वे तमाम हथकंडों का प्रयोग करते हुए महिलाओं को हाशिए पर धकेलने की कोशिश करते हैं। हैरानी तो इस बात की है कि दुनियाभर में समान कार्य के लिए समान वेतन का नियम लागू है परंतु फिर भी महिलाएं खेल के मैदान में इस अंतर को निरंतर झेल रही हैं जो कि मानवाधिकार की खुलेआम अवमानना है।