राजेंद्र कुमार कनौजिया
‘माॅस्साब, हमने क्या किया किताबें पढ़कर? क्या किया साहित्य रचकर? क्या पाया दिन-रात अपना खून जलाकर? क्यों तपते रहे संवेदना की भट्ठी में? उस ताप से क्या हासिल यही है कि हम झूठे इलज़ामों के जवाब हाज़िर करते रहें।’ एक पीड़ा प्रारम्भ से ही प्रदर्शित होती है, जो हिंदी साहित्य जगत का अर्धसत्य ही है। कुछ स्पष्ट, कुछ अबूझ मातृभाषा हिन्दी के नाम पर संस्थागत, अकल्पनीय गुटबाज़ी, फूहड़ लेखन को प्रोत्साहन, परिचित को पुरस्कार, विदेश यात्रायें, पद।
मैत्रेयी पुष्पा का नया उपन्यास पढ़ने को मिला, ‘नमस्ते समथर’ कुन्तल की व्यथा के आसपास समथर के जूझने, हारने, जीतने और संघर्ष के साथ-साथ तमाम साहित्यिक संस्थाओं में व्याप्त आपसी लूट-खसोट, पुरस्कार के लिये अंधी दौड़, जब पद-प्रतिष्ठा मान-सम्मान और छल प्रपंच की ओट में लिज़लिजी काई पर फिसलन की तरह फैलती है। वो समाज में भी दीवार पर सीलन के रूप में दिखाई पड़ती है। तब वहां कुन्तल का संघर्ष मुखरित होकर सामने खड़ा मिलता है, जहां कहीं स्त्री के सामाजिक व्यवस्था में स्थापित होने के उपक्रम में एक अजीब-सी छटपटाहट के रूप में विस्फोटक बन जाने की कहानी कहता है।
दीनदयाल इंटर कॉलेज, महारानीपुर बारहवीं की क्लास में हिन्दी के स्मार्ट मास्टर सॉब यानी कि ‘मॉस्साब’ जो सफ़ेद क़मीज़ और नेवी ब्लू पैंट में टिपटॉप रहने वाले मॉस्साब का इंतज़ार कर रहे हैं कहानी कला की क्लास। एक संवाद पहले पन्ने पर ही है जो समझाने की कोशिश करता है कि ‘तुम लेखक को ही कथा का नायक मान लेते हो, अरे मूर्खो, कहानी तो कथा के पात्र लिखते हैं, लेखक तो उनका मुनीम होता है, मुनीम। समझे।’ मॉस्साब पहला ही सवाल करते हैं, ‘कभी समथर गये हो?’ लेखिका प्रारम्भ से ही इस वाक्य के साथ पाठक के मन में एक कौतूहल जगा देती हैं, जो आगे बताती हैं कि ‘समथर एक रियासत रही है, जहां क़िला भी है। लेकिन समथर एक शब्द या क़स्बा भर नहीं, बहुत कुछ है, समझो तो।’
उपन्यास के दो प्रमुख पात्र हैं, कृष्ण बिहारी श्रीवास्तव और कुन्तल जो ब्राह्मण हैं। भदरवारा गांव से महारानीपुर से किसी बरसाती नदी के प्रवाह में कहानी बहती रहती है, जो समथर में आ जाती है अपने काम के सिलसिले में। कृष्ण बिहारी को एक दिन कुन्तल कहती है-‘कृष्ण बिहारी, देखा तुमने हमारा लाल दुपट्टा, रेशमी सलवार।’ जहां उसने कहा था कि छोटी-सी सूबेदारनी याद आ जाती, जिसने लहना से कहा था- देखते नहीं यह रंगीन शालू। हिंदी पढ़ाते-पढ़ाते मॉस्साब कुन्तल को नहीं भूल पाते, जो शादीशुदा मॉस्साब के जीवन में होने से ज़्यादा अपने काम व संस्था में व्यस्त है। कुन्तल हिंदी साहित्यिक संस्था ‘भारती साहित्य संस्था’ के उत्थान के प्रति कटिबद्ध हैं, परंतु राह आसान नहीं, दो पत्रिकाओं के लिए आर्थिक अनुदान, कवि सम्मेलन का आयोजन, पुरस्कारों के चयन में धांधली, राजकीय उठापटक के बीच कुंतल मानती है कि ‘अगर आज हम पतित हैं इसका कारण ग़लत नियम हैं।’
उपन्यास एक अद्भुत कथा संसार रचता है, एक ऐसी संस्था तक पाठक को ले जाता जो साहित्य की बंदरबांट में, लूट का संस्थागत अधिकार किसी को ‘एक ऐसा गूंगा-बहरा आदमी बनाता है जो किसी भी स्वायत्त संस्था के लिये कठोर से कठोर नियम बनाकर अपना एकाधिकार बनाना चाहता है।’ मॉस्साब की बॉट जोहती नायिका कभी कमजोर, निर्बल असहाय नहीं नज़र आती, मॉस्साब का प्रेम उसको सम्बल देता है। मैत्रेयी पुष्पा फिर से स्त्री विमर्श को लेकर सजग हैं, स्त्री का संबल कोई नहीं सिर्फ़ वो खुद है, कुछ प्रतीकों, संयोगों, सपनों और साहस को अपने गौरव के साथ जीने की कला वो बखूबी जानती है, कुंतल की तरह सजीव, संघर्षमय।
पुस्तक : नमस्ते समथर लेखक : मैत्रेयी पुष्पा प्रकाशक : राजकमल पेपर बैक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 160 मूल्य : रु. 199.