
डॉ. पवन शर्मा
पितृ पक्ष में पितरों का श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। इन दिनों कौवों को भी भोजन कराया जाता है। शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध करने के बाद जितना जरूरी ब्राह्मण को भोजन कराना होता है, उतना ही जरूरी कौवों को होता है। मान्यता है कि कौवे पितरों के रूप में उपस्थित रहते हैं।
इसके पीछे एक पौराणिक कथा जुड़ी है :- इन्द्र के पुत्र जयन्त ने ही सबसे पहले कौवे का रूप धारण किया था। त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अवतार लिया। एक बार जयंत ने कौए का रूप धारण कर माता सीता के पैर में चोंच मारी थी। तब भगवान श्रीराम ने जयंत को दंडित किया। उसके माफी मांगने पर तब श्रीराम ने उसे वरदान दिया कि तुम्हें अर्पित किया भोजन पितरों को मिलेगा। तभी से श्राद्ध में कौवों को भोजन कराने की परंपरा चली आ रही है।
शास्त्रों के अनुसार कोई भी क्षमतावान आत्मा कौए के शरीर में विचरण कर सकती है। भादों महीने के 16 दिन कौआ हर घर की छत का मेहमान बनता है। कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई जीव-जन्तु बन जाता है। तब प्रश्न कि छोटे से पिंड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? स्कंद पुराण के अनुसार एक बार राजा करंधम ने महायोगी महाकाल से पूछा, ‘मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिंडदान किया जाता है वह जल, पिंड आदि तो यहीं रह जाता है फिर कैसे पितरों को तृप्ति होती है?
महाकाल ने बताया कि विश्व नियंता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरूप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं। दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गई स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति— इन 9 तत्वों से उनका शरीर बना होता है तथा इसके भीतर 10वें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गंध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से तृप्त रहते हैं। पवित्रता से प्रसन्न हो वर देते हैं। पितरों का आहार अन्न का सारतत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है। नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं।
एक बार पुष्कर में श्रीराम जी अपने पिता दशरथ जी का श्राद्ध कर रहे थे। श्रीराम जी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गईं। बाद में श्रीराम जी ने कारण पूछा तो सीता जी बोलीं, ‘आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारण कर अपने पिता-दादा आदि का आह्वान किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छाया रूप में उपस्थित थे। फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघन कर वहां कैसे खड़ी रहती? इसलिए मैं ओट में हो गई।’ श्राद्ध से बढ़कर कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है।
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