अरुण नैथानी
अभिनेता यशपाल शर्मा संघर्षों से तपे एक ऐसे स्टार हैं जो सदा अपनी जड़ों से जुड़े रहे हैं। एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे यशपाल शर्मा ने अभावों की तपिश को शिद्दत से महसूस किया। इसी तपिश ने उन्हें कुंदन-सा निखारा। जीवन के संघर्ष ने उन्हें संवारा। शायद मां-बाप ने जब उनका नाम यशपाल रखा होगा तो विश्वास होगा कि बेटा यश ही यश कमाएगा। यशपाल शर्मा ने उन आकांक्षाओं को हकीकत में बदला। जीवन के शुरुआती दौर में भी वे जिम्मेदार बेटे के रूप में नजर आये। परिवार को संबल देने के लिये उन्होंने हर छोटा-बड़ा काम किया। रामलीला से अभिनय की शुरुआत करने वाले यशपाल की हिसार से लेकर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा तक की यात्रा उनकी उत्कट आकांक्षा और साधना की पर्याय थी। वे मायानगरी में अपनी मंजिल तलाशने वर्ष 1997 में मुंबई पहुंचे। मुंबई के संघर्ष में वे और निखरे। थियेटर भी किया तो टीवी में सीआईडी, मेरा नाम करेगी रोशन, तारक मेहता का उल्टा चश्मा व नीली छतरी वाले जैसे बहु चर्चित सीरियल भी उनके हिस्से में आए हैं।
प्रसिद्ध कला फिल्मों के निर्देशक गोविंद निहलानी की बहुचर्चित फिल्म ‘हजार चौरासी की मां’ से बॉलीवुड में दस्तक देने वाले यशपाल के खाते में अभिनय का भरपूर यश आया। उनकी बहुचर्चित फिल्मों में वेलकम टू सज्जनपुर, अपहरण, गंगाजल, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, सिंग इज किंग, वेल डन अब्बा, ये साला जिंदगी, आरक्षण, गैंग्स ऑफ वासेपुर, राउडी राठौर, अब तक छप्पन, मुंबई से मेरा दोस्त, समर, शूल, अर्जुन पंडित, मुझे कुछ कहना है, ट्यूबलाइट आदि शुमार हैं। एक बांग्लादेशी फिल्म करके वे अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों में भी दस्तक दे चुके हैं। उनके बहुरंगी किरदारों से दर्शकों ने खुद को जोड़ा, लेकिन आमिर खान की ऑस्कर के लिये भेजी गई बहुचर्चित फिल्म लगान के लाखा ने उन्हें लाखों में एक बनाया। इस किरदार ने उन्हें विशिष्ट पहचान दी।
ताकि दुनिया में फैले माटी की खुशबू
मायानगरी में अभिनय की ऊंचाइयों को छूने के बाद भी यशपाल को लगा कि कुछ अधूरा है। मुझे अपनी जन्मस्थली हरियाणा की माटी की महक वाली फिल्मों को भी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पहचान देनी है। फिर 2014 में मुंबइया फिल्मों से ब्रेक लेकर हरियाणा को अपनी कर्मस्थली बनाया। वे हरियाणवी फिल्मों के उत्थान में जुट गये। उनकी हरियाणवी फिल्म ‘पगड़ी : द ऑनर’ और ‘सतरंगी’ को दर्शकों का सार्थक प्रतिसाद मिला और राष्ट्रीय स्तर पर पहचान भी। साथ ही फिल्म के कथानक व संदेश के महत्व के चलते इन फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले।
कामयाबी का सबूत
हाल ही में रिलीज हुई उनकी महत्वाकांक्षी फिल्म ‘दादा लख्मी चंद’ कामयाबी की नई इबारत लिख रही है। इस फिल्म को अंतिम रूप देने में वर्षों की मेहनत और शोध की बड़ी भूमिका रही। उनकी मेहनत रंग लाई और फिल्म को पिछले दिनों राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। फिल्म को अब तक राष्ट्रीय पुरस्कार समेत कुल 68 अवार्ड मिल चुके हैं।
ताकि जीवंत हो सके चरित्र
एक गंभीर कथानक व सांस्कृतिक विरासत पर बनी ‘दादा लख्मीचंद’ को इतने पुरस्कार मिलना बताता है कि रोमांस, कॉमेडी व नाच-गाने के बगैर भी अच्छी फिल्में बनायी जा सकती हैं और ज्यूरी और दर्शकों का अच्छा प्रतिसाद भी मिल सकता है। गदर फेम मशहूर संगीतकार उत्तम सिंह, छायाकार सुप्रतिम भोल, माला डे की ड्रेस डिजाइनिंग और राजस्थानी फिल्म निर्माता रविंद्र सिंह रजावत की ‘धनश्री’ ने यशपाल शर्मा की छह साल की मेहनत को नई रंगत दी है। फिर हरियाणा के शेक्सपीयर व कबीरदास कहे जाने वाले दादा लख्मीचंद का चरित्र जीवंत हो सका।
…जिसे परिवार देखे साथ-साथ
यशपाल शर्मा की कोशिश थी कि ऐसी फिल्म बने जिसे परिवार के सभी लोग दादा-दादी के साथ बैठकर साथ देख सकें। जहां किरदारों की बात करें तो यशपाल शर्मा के साथ ही दादा लख्मीचंद की पत्नी का किरदार कवयित्री अल्पना सुहासिनी ने निभाया है। तमाम शोध के साथ दादा लख्मीचंद के पोते विष्णु के जरिये तमाम जानकारी जुटाई गई हैं। यह फिल्म की सफलता ही है कि करीब ढाई सौ कलाकारों की मेहनत से बनी फिल्म कान्स फिल्म फेस्टिवेल में दिखाई जा चुकी है। यशपाल शर्मा को विश्वास है कि फिल्म को ‘चंद्रावल’ जैसी सफलता जरूर मिलेगी।
रागनी की नई शैली का सपना
यशपाल शर्मा स्वीकारते हैं कि हरियाणा की संस्कृति की पहचान रागनियों की नई शैली तैयार की जाये ताकि मिठास के संगीत के साथ नई पीढ़ी भी इससे जुड़ सके। उनका विश्वास है कि हरियाणा के मशहूर सांगी एवं रागनी रचनाकार सूर्य कवि दादा लख्मीचंद पर बनी कालजयी फिल्म साबित होगी। उनके इस विश्वास का आधार यह है कि दादा लख्मीचंद का व्यक्तित्व व कृतित्व इतना व्यापक है कि उसे एक फिल्म में नहीं समेटा जा सकता। फिल्म की सफलता के बाद यदि जरूरत पड़ी तो वे इसका दूसरा भाग बनाएंगे। वे इसे अपना ड्रीम प्रोजेक्ट मानते हैं। साथ ही इसे अंग्रेजी में बनाकर अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों के बीच भी ले जायेंगे।