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सफेद गुड़हल के फूल

बांग्लादेशीय कहानी
चित्रांकन संदीप जोशी
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जागकर रात बिताने वाली अमीना बेगम अब दिन के उजाले  की बेसब्री से प्रतीक्षा करती और सुबह होते ही मणिमय का राह देखने लगती। मानो इतने दिनों बाद उसे करने लायक कोई जरूरी काम मिल गया हो। यों अपने खाने के प्रति अक्सर लापरवाह रहती और जो कुछ जुटता, वही खाकर गुजारा करती। अचानक कुछ विशेष खाने की इच्छा बलवती होती, तभी कुछ रांधती। अब किसी के लिए कुछ बनाने की चाह में उसके दिन मजे से बीतने लगे थे।

अमीना बेगम का छोटा-सा घर गांव के मुहाने पर वहां पर अवस्थित है जहां से भूतिया नाम के मशहूर जलाशय की शुरुआत होती है। कहने को घर है जबकि यह गोलपत्रों से छायी एक पर्णकुटिया मात्र है, जिसके सामने घने वृक्षों से भरा पूरा एक आंगन है। आसपास एक सफेद गुड़हल, कुछेक तुलसी और तीनेक कपूर के पौधे हैं। फूलों से भरे सफेद गुड़हल को देखते ही कोई भी उसके प्रति आकर्षित हो सकता है, हालांकि इस ओर का रुख कभी-कभार ही कोई करता है। अतः वह लोगों की आंखों से प्रायः ओझल ही रहता है। फिर भी भंवरे और तितलियां उस पर सारा दिन मंडराते रहते हैं।

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अमीना बेगम ने मन-ही-मन इस पौधे को एक नाम दे रखा है—बेवा सुंदरी। तकरीबन पांच वर्ष पूर्व हलदर के बगीचे से स्वयं एक डाल तोड़ लायी थी वह और उसे घर के पास रोप दिया था। इस प्रकार के विधवा रंग का फूल इसी घर में शोभा दे सकता है। यहां के अन्य सारे पौधे भी उसी ने लगाए हैं। उसके सिवाय लगाएगा भी कौन? अकेली तो रहती है। निस्संतान अमीना बेगम को विधवा हुए भी अब लगभग बीस वर्ष  हो चुके हैं।

अमीना बेगम को उसके गांव के लोगों ने कभी उसके नाम से नहीं पुकारा। दस-बारह वर्ष पूर्व तक उसका नाम था, रहमत की बहू। लोगों की स्मृति से उस नाम को मिटे एक अर्सा हो गया है। सो, अब उसका अपना नाम भी बदल चुका है। लोग अब उसे बांझ बूढ़ी कहकर पुकारते हैं और घर भी इसी नाम से जाना जाता है।

बुढ़िया के दिन अकेले में कटते हैं। रसोई से निपटने के बाद वह पेड़-पौधों और कुत्ते- बिल्लियों से बतियाती रहती है। जरूरत न हो तो जलाशय की ओर के इस रास्ते का कोई रुख नहीं करता। दैवयोग से ही कोई उसकी कुटिया में पांव धरता है। फिर भी मीलों दूर से गोद में बच्चे लिए जरूरतमंद महिलाएं कभी-कभार उसके द्वार पर आ ही जाती हैं। वे आती हैं अपने बच्चों की खांसी-सर्दी, ताप और पेट की तकलीफों पर उसके आंगन से तुलसी, अडूसी और ब्राह्मी के पत्तों के लिए। अमीना किसी के घर नहीं जाती। बाजार से कुछ लाना हो तो पड़ोस में रह रहे रिश्ते में जेठ के बेटों से मंगा लेती है। अलग से पांच-दस रुपये दे देने पर वे मना भी नहीं करते। अधिक कुछ मंगाती भी नहीं। बस वही नमक, तेल, मसाले जैसी सामान्य चीजें। अधिक हुआ तो यदा-कदा मोहन चंद मिष्ठान्न भंडार से खोये के संदेश के लिए कह देती है।

नई बहू के रूप में जब वह इस गांव में आई थी तब आस-पड़ोस के घरों में उसका आना-जाना बना रहता था। धीरे-धीरे वह बंद हो गया। विवाह के पांच-छह वर्ष बाद भी जब उसे कोई संतान नहीं हुई तो उसने अपने आप को खुद ही घर की चारदीवारी में कैद कर लिया था। बांझ औरत को अपना मुंह सुबह-सवेरे किसी को दिखाना नहीं चाहिए। किसी भी शुभकार्य में उसकी उपस्थिति ठीक नहीं। अमीना ने कभी किसी का दिन खराब करना नहीं चाहा। शुभकार्यों में अमंगल नहीं लाना चाहती थी। उससे बड़ी बात यह थी कि किसी गर्भवती का उभरा पेट देखने पर या फिर किसी गोद में शिशु को मां का स्तनपान करते देखती तो उसका मन उचाट हो जाता।  इसीलिए हमेशा खुद को घर के कामों में उलझाए रहती।

फिर भी कोई उसके द्वार पर आता तो वह फल और अन्य खाने की चीजें  देकर उनका आवभगत करती। जितनी देर हो सकता, उन्हें अपने घर पर रोके रखती। आखिरकार मनुष्य मनुष्य के बिना गुजर-बसर कैसे कर सकता है? अलबत्ता उसकी मीठी बातें, हरी सब्जियां और अन्य खाद्य आगंतुक को अधिक देर तक रोक नहीं पाते। आने वाले अधिक देर न ठहरकर जो मिलता, लेकर अपने- अपने घरों को लौट जाते। इन दिनों उसका दिन किसी तरह बीत जाता है, परंतु रातें काटे नहीं कटती। क्या शीत और क्या ग्रीष्म, उसका एकाकीपन भीगे कपड़े की तरह उससे चिपके रहता। यहां तक कि भादों की भीषण दोपहरी में अमीना बेगम जब कम वस्त्र में तपन से मुक्त होने का प्रयास करती, तब भी मृत-देह की तरह की उसकी अंदरूनी शीतलता थोड़ी-सी उष्णता के लिए लालायित हो उठती, हालांकि उसमें नारी देह का ताप एक अर्से से लुप्त हो चुका है। वह रहमत की दूसरी बीवी  है। पहले बच्चे को जन्म देकर रहमत की पहली बीवी मर गई थी। फिर मां को खोने के बाद शिशु भी कुछ ही दिन बच पाया। विवाह के बाद रहमत से जब उसकी गोद नहीं भरी, तभी वह समझ गई थी कि गर्भधारण की क्षमता उसी में नहीं है। धीरे-धीरे देह के प्रति आकर्षण भी खोता चला गया और अब तो उसका एक पांव कब्र में लटक रहा है।

पिछले कुछ हफ्तों से हिंदू मोहल्ले का मणिमय दास एक छोटा-सा जाल लेकर अमीना के घर के पास के जलाशय में मछली पकड़ने आ रहा है। छोटे रास्ते से कभी-कभार वह उसके घर के सामने से गुजरता है। युवावस्था में कदम रखता मणिमय अक्सर किसी फिल्म का कोई चलताऊ गीत ऊंचे स्वर में गाता निकल जाता है। कभी उसकी निगाह अमीना पर पड़ती है तो कह उठता है, ‘अरे ओ बूढ़ी, कैसी हो?’ या फिर ‘ओ बुढ़िया, क्या कर रही हो?’

कुछ दिन पहले अमीना अपने दालान की झुकते छत वाली रसोई में चूल्हा सुलगा रही थी कि ठीक उसी समय मणिमय ने  हांक दी, ‘ओ बूढ़ी, क्या पका रही हो?’

‘आकर देख जा।’ उसने कहा।

न जाने क्या सोचकर उस दिन मणिमय उसके पास चला आया। चूल्हे पर रखी हांडी की ओर देखकर पूछा, ‘इसमें क्या है?’

‘कपूर की खटाई। सरसों के दाने के साथ पकाऊंगी। फिर गुड़ भी डालूंगी। भोजन करने के बाद मुंह का स्वाद इससे बदल जाता है। खट्टा-मीठा खाकर तृप्ति मिलती है। यह देखो, घर के सामने कपूर उगे हैं।’ लाल फलों से लदे पौधों की ओर वह उंगली से इशारा करती है।

चूल्हे से सुलगती लकड़ी खींचकर निकालने के बाद वह उस धधकती लकड़ी पर पानी की छीटें मारती है और उठ खड़ी होती है। फिर मणिमय से कहती है, ‘तुम जरा ठहरो। तुम्हारे लिए एक गिलास में थोड़ा-सा देती हूं।’ वह तेजी से घर के अंदर जाती है और नारियल के खोल से बने कड़छी से हांडी से पेय निकालकर एक कांच के गिलास में डालती है।

‘सावधानी से पकड़ो, बहुत गर्म है।’ कहकर वह मणिमय की ओर ऊंचा पीढ़ा बढ़ा देती है। मणिमय उस पीढ़े पर बैठकर फूंक मारता हुआ कहता है, ‘तुम्हारी इस खटाई का रंग तो बहुत ही बढ़िया है, बिल्कुल तुम्हारी तरह। स्वाद के तो कहने ही क्या? मणिमय चुस्की ले लेकर खट्टा-मीठा पेय पीने लगता है। इसी दौरान वह अमीना बेगम के छिटपुट सवालों का जवाब भी रुक-रुक कर दिए जा रहा है।

अंत में एक लम्बी चुस्की के साथ गिलास खाली कर वह चूल्हे के पास रख देता है और उठ खड़ा होता है। मणिमय दाएं हाथ को अमीना की गर्दन से घुमाकर उसके दाएं कांधे पर रखकर कहता है, ‘बूढ़ी, तुमने आज एक लाजवाब और मजेदार पेय का स्वाद चखाया। इस लालच में मुझे हर रोज तुम्हारे यहां आना पड़ेगा।’

‘किसने रोका है तुझे? तुम रोज ही आ जाओ।’

‘अच्छा चलता हूं। देखूं, कोई मछली मिलती भी है या नहीं?’

मणिमय को जाते हुए देखती रहती है अमीना बेगम।

इसी तरह हर रोज मणिमय अमीना बेगम की रसोई के सामने आकर खड़ा हो जाता। बुढ़िया कभी उसे कपूर की खटाई तो कभी नीबू के पत्ते से इमली की खटाई या फिर किसी दिन आम की चटनी खिलाती रहती है। जिस दिन खटाई नहीं बन पाती, उस दिन बारहमासी अमरूद या फिर पका पपीता खिला देती।

जागकर रात बिताने वाली अमीना बेगम अब दिन के उजाले  की बेसब्री से प्रतीक्षा करती और सुबह होते ही मणिमय का राह देखने लगती। मानो इतने दिनों बाद उसे करने लायक कोई जरूरी काम मिल गया हो। यों अपने खाने के प्रति अक्सर लापरवाह रहती और जो कुछ जुटता, वही खाकर गुजारा करती। अचानक कुछ विशेष खाने की इच्छा बलवती होती, तभी कुछ रांधती। अब किसी के लिए कुछ बनाने की चाह में उसके दिन मजे से बीतने लगे थे, जबकि मणिमय के आने-जाने और खाने-पीने में मुश्किल से आधा घंटा  वक्त ही गुजारता। फिर भी इतने में ही अमीना के दैनंदिनी में तब्दीली आ गई थी।  उसे बहुत अच्छा लगता जब मणिमय कहता, ‘बूढ़ी, तुम्हारे हाथों में जादू है।’ या फिर तीन उंगलियों से उसके चिबुक को हिलाकर कहता, ‘इसी खटाई को खिलाकर शायद तुमने बूढ़े पर जादू कर रखा था?’

मणिमय के वहां से चले जाने के बाद भी अमीना के हृदय में आनंद की हिलोरें उठती रहतीं। मणिमय का उसे स्पर्श करना, क्षणभर के आलिंगन की उष्णता का अनुभव वह सारा दिन करती रहती। अमीना का अतीत उसे कचोटता रहता कि पहले कब किसने उसे गले लगाया, उसे स्पर्श किया या फिर माथे पर हाथ फेरा? उसने  भी कब किसे गले लगाया, माथे पर हाथ धरा? उसे कुछ भी याद नहीं आता। इस धरा पर लाखों-करोड़ों लोग हैं परंतु कोई भी ऐसा नहीं जो उसे आलिंगनबद्ध कर उष्णता प्रदान कर सके।

पौधों में लगे कपूर के फलों की ओर निहारती अमीना बेगम सोचती है कि एक दिन वह सभी को तोड़कर खटाई बना डालेगी वरना वे सूख जाएंगे। दूसरे दिन खट्टी-मीठी चटनी के बाद चावल चढ़ाया और उसमें एक अंडा और दो आलू उबलने को डाल दिए। आज इसके अलावा कुछ नहीं बनाएगी वह। आज स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं। सोचा था, साल में अंतिम बार की कपूर की खटाई मणिमय को खिलाएगी परंतु आज वह आया ही नहीं। हारकर अमीना बेगम रसोई समेटकर बिस्तर पर जाकर लेट गई।

दोपहर बाद अनायास दरवाजे पर मणिमय की आवाज सुनाई दी, ‘ओ बूढ़ी, कहां हो?’

बिस्तर से उठकर अमीना बेगम हड़बड़ाहट में बाहर आई, ‘मैंने तो सोचा था कि आज तुम मछली पकड़ने नहीं आओगे।’

‘आज न जाने क्या सब सोचते-सोचते मैं इधर से बेख्याली में  गुजर गया।’

इसी बीच तेज कदमों से अमीना रसोई में जाकर एक गिलास में खटाई ले आती है।

‘दोपहर बीत गई है। आलू-अंडे की भाजी के साथ थोड़ा-सा भात खा लो।’

‘नहीं, नहीं। अब घर जाकर ही खाऊंगा। तुम्हारे अकेले का भात खा लूंगा तो फिर तुम क्या खाओगी? मुझे खटाई ही दे दो। भात सब जगह मिल जाता है पर यह मीठी खटाई कहीं नहीं मिलती।’

ठंडा पड़ चुके पेय का पानकर गिलास लौटाते हुए मणिमय ने कहा, ‘लौट रहा था। सोचा, तुम्हें भी बतलाता चलूं। उसने अमीना बेगम की ओर एक टक देखते हुए कहा, ‘कल सुबह की बस से मैं जसोर जा रहा हूं। छोटे चाचा की भूसे की मिल में काम करूंगा। अब गांव में रहना नहीं हो पाएगा। वैसे यहां रहकर करूंगा भी क्या?’

इसी बीच रुककर वह अमीना बेगम की प्रतिक्रिया की टोह लेने की कोशिश करता है।

‘ठीक ही तो है।’ कहकर अमीना कहीं और देखने लगती है।

चारों ओर एक निस्तब्धता पसर जाती है। असह्य निस्तब्धता को तोड़ने की कोशिश में मणिमय तेज स्वर में कह उठता है, ‘अरे देखो, जिस खातिर मैं तुम्हारे पास आया था, वह याद ही नहीं रहा। आज मुझे एक बड़ी मांगुर मछली मिली है।’ कहकर उसने टोकरी से एक मछली निकाली और जमीन पर रख दी।

‘सोचा, यह मछली तुम्हें दे जाऊं। तरीदार बनाकर खाना। अभी बना लो या फिर कल के लिए रख लो।’

अमीना बेगम मछली की ओर देखते हुए कहती है, ‘आजकल मांस-मछली खाने की मेरी इच्छा नहीं होती। इसे तुम अपने घर ही ले जाओ।’

निस्तब्धता पूर्ववत‍् बरकरार रहती है। अधिक कुछ न कहकर मणिमय मछली उठाकर टोकरी में रख लेता है। फिर धीमे स्वर में कहता है, ‘अच्छा तो मैं अब चलता हूं।’ हाथ में टोकरी और कांधे पर जाल लटकाए मणिमय कब घर की सीमा लांघ गया, अमीना बेगम को इसका अहसास तक नहीं हुआ।

अब अमीना को बेहद ठंड लगने लगी थी। हाथ, पांव, पेट, छाती जैसे जमकर बर्फ हो गए हों। चारों ओर जैसे अंधेरा छा रहा हो। किसी तरह चलते हुए वह अपने बिस्तर पर आ बैठी। सिर दर्द से फटा जा रहा था। कंबल खींचने के लिए वह जैसे ही अपना हाथ आगे बढ़ाती है, उसके नाक और मुंह से रक्त की धारा फूट पड़ती है। सिरहाने से माथा टिकाने पर आज उसे बहुत दिनों बाद अपने वक्ष में उष्णता का अहसास होता है। अमीना बंद आंखों से देखती है कि उसके सफेद गुड़हल के फूल धीरे-धीरे रक्तिम हो उठे हैं और वे लाल-लाल फूल एक-एक कर उसके वक्षस्थल पर एकत्रित हो गए हैं।

दूसरे दिन सुबह अमीना बेगम की छाती पर बिखरे हुए लाल गुड़हल पर भंवरे नहीं बल्कि कुछ मक्खियां भिनभिना रही होती हैं और ठीक उसी समय गांव से होकर हॉर्न बजाती मणिमय की बस जसोर की ओर रवाना हो जाती है।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रतन चंद ‘रत्नेश’

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