जाहिद खान
साहिर के मायने जादूगर होता है। शायर-नगमा निगार साहिर लुधियानवी वाकई में एक जादूगर थे। वे जब मुशायरे में अपना कलाम पढ़ने के लिए खड़े होते तो उनकी शायरी पर लोग झूम उठते। उर्दू अदब में उनका कोई सानी नहीं। 8 मार्च, 1921 को लुधियाना के नजदीक सोखेवाल गांव में जन्मे साहिर लुधियानवी का वास्तविक नाम अब्दुल हेई था। शायरी से लगाव ने उन्हें साहिर लुधियानवी बना दिया। विद्यार्थी जीवन में ही साहिर लुधियानवी की ग़ज़लों, नज़्मों का पहला काव्य संग्रह ‘तल्खियां’ प्रकाशित हुआ। उर्दू के साथ-साथ हिंदी में ‘तल्खियां’ के कई संस्करण प्रकाशित हुए और आज भी ये किताब खूब बिकती है। अपनी मकबूल ग़ज़ल ‘ताजमहल’ में वे लिखते हैं, ‘ये चमनजार, ये जमना का किनारा, ये महल/ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये महराब, ये ताक/इक शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर/हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक।’
साहिर लुधियानवी नौकरी की तलाश में लाहौर आ गए। बावजूद इसके साहिर ने लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा। एक वक्त ऐसा भी आया, जब उनकी रचनाएं उस दौर के उर्दू के मशहूर रिसालों ‘अदबे लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सबेरा’ में अहमियत के साथ शाया होने लगीं। साहिर लुधियानवी का शुरुआती दौर, देश की आजादी के संघर्षों का दौर था। सभी लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपनी रचनाओं एवं कला के जरिए आजादी की अलख जगाए हुए थे। साहिर भी अपनी शायरी से यही काम कर रहे थे। एक ग़ज़ल में वे कहते हैं, ‘सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं/ बरसों नए निजाम के नक्शे बनाये हैं।’ साहिर की रचनाओं में वर्ग चेतना स्पष्ट दिखलाई देती है। अपने हक, हुकूक के लिए एक तड़प है, जो उनकी शायरी में मुखर होकर नुमांया हुई है।
‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें’ साहिर लुधियानवी की वह किताब है, जिसने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इस काव्य संग्रह पर उन्हें कई साहित्यिक पुरस्कार मिले। जिनमें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’, ‘उर्दू अकादमी पुरस्कार’ और ‘महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार’ भी शामिल है। हिंदी फिल्मों में साहिर लुधियानवी ने दर्जनाें सुपरहिट गाने दिए। ‘वो सुबह तो आएगी’ (फिर सुबह होगी), ‘जिन्हें नाज है हिंद पर’, ‘ये तख्तों ताजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो’ (प्यासा), ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमां बनेगा’ (धूल का फूल), ‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को’ (साधना) आदि ऐसे उनके कई गीत हैं, जिसमें जिंदगी का एक नया फलसफा नजर आता है। साहिर लुधियानवी महिला-पुरुष समानता के बड़े हामी थे। साल 1958 में प्रदर्शित फिल्म ‘साधना’ में साहिर द्वारा रचित निम्नलिखित गीत को औरत की व्यथा-कथा का जीवंत दस्तावेज कहा जाए, तो अतिश्ायोक्ति न होगा, ‘औरत ने जनम दिया मर्दों को/मर्दों ने उसे बाजार दिया/जब भी चाहा मसला, कुचला/जब जी चाहा दुत्कार दिया।’ साल 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘प्यासा’ में साहिर ने खोखली परंपराओं, झूठे रिवाजों और नारी उत्पीड़न को लेकर जो सवाल खड़े किए है, वह आज भी प्रासंगिक है ‘ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के/ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के/कहां हैं? कहां हैं? मुहाफिज खुदी के?’ साहिर लुधियानवी के बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा गया। जिसमें भारत सरकार का पद्मश्री अवार्ड भी शामिल है।
25 अक्तूबर, 1980 को इस बेमिसाल शायर, गीतकार ने अपनी जिंदगी की आखिरी सांस ली। आज भले ही साहिर लुधियानवी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी ग़ज़लें, नज़्में और नगमें मुल्क की फिजा में गूंज-गूंजकर इंसानियत और भाईचारे का पाठ पढ़ा रहे हैं, ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें, कल के वास्ते।’