सत्यवीर नाहड़िया
लघुकथा की अपनी अनूठी यात्रा रही है, जिसके दौरान न केवल राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथा ने अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज कराई है, अपितु भाषाओं के बाद बोलियों में भी लघुकथा ने अपना स्थान बनाया है। आलोच्य कृति ‘छोटा मुंह-बड्डी बात’ हरियाणवी लघुकथाओं का ऐसा शतक है, जो बहुआयामी सामाजिक चेतना की अलख जगाता प्रतीत होता है। प्रयोगधर्मी सृजनशीलता के लिए विख्यात, दो दर्जन से ज्यादा लघुकथा संग्रह दे चुके वरिष्ठ रचनाकार मधुकांत ने ठेठ हरियाणवी बोली के माध्यम से लघुकथा के मूल तत्वों को केंद्र में रखकर मार्मिक सृजन किया है।
हरियाणवी लघुकथाओं के इस शतक के रंग-ढंग बेहद निराले हैं तथा इनके विषयों का फलक भी बेहद विस्तृत है। कहीं सामाजिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं के मुंहबोलते चित्र हैं, तो कहीं प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर करारे कटाक्ष हैं। मानवीय मूल्यों में आई गिरावट, बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव, टूटते संयुक्त परिवारों, समाज में जहर घोलती राजनीति, खोखला होता सामाजिक ताना-बाना, बढ़ती बेरोजगारी आदि विषयों पर केंद्रित लघुकथाएं प्रभाव छोड़ती हैं।
सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं पर केंद्रित लघुकथा जात के लोग, आदमी बिकै सै, अपणा-अपणा पेट, कदे-कदे, नींद टूटै पाच्छै, सास अर मां, हाथ की रोटी, दूध अर पाणी, कर्जदार हरिया आदि अच्छी बन पड़ी हैं। म्हारा मास्टर, निबंध, सर्व शिक्षा अभियान जैसी अनेक लघुकथाएं शिक्षा विभाग की विसंगतियों पर करारी चोट हैं।
ठेठ हरियाणवी लहजा, विषय विविधता तथा कहन का अंदाज़ इन लघुकथाओं की अतिरिक्त खूबी कही जा सकती है, किंतु पुस्तक में प्रूफ की अशुद्धियां अखरती हैं। यह संग्रह हरियाणवी मां-बोली के संरक्षण एवं संवर्धन में भी निर्णायक भूमिका निभाएगा ऐसा विश्वास है।
पुस्तक : छोटा मुंह, बड्डी बात रचनाकार : मधुकांत प्रकाशक : विपिन पब्लिकेशन, रोहतक पृष्ठ : 106 मूल्य : रु. 250.