
मोहन सपरा
(एक)
उसने मुंह खोला
हमने मुुंह मोड़ा
उसने आंखें तरेरीं
हमने आंखें फेरीं
उसने हंसी बिखेरी
हमने हंसी समेटी
उसने कहा ‘मैं’
हमने कहा ‘हम’
उसका है यह दम्भ
कैसे हुआ वह ब्रह्म?
(दो)
वह उठाता है पहाड़
हम मिट्टी के कण से ही
सन्तुष्ट हो जाते हैं।
वे फूलों की बस्ती के बाशिन्दे हैं
हम हरे पत्तों में
सौन्दर्य ढूंढ़ लेते हैं
वे सूर्य की लालिमा से खुश हैं
हम अन्धेरे में
जीवन ढूंढ़ लेते हैं
वे पतंग-से उड़ते हैं
हम डोर बने रहना चाहते हैं
वे चीखते-चिल्लाते हैं
हमें, मौन बने रहने में मज़ा आता है।
(तीन)
हमारा रास्ता इधर है, इधर
औ’ उनका रास्ता उधर है, उधर
हम मौसम की आत्मीयता समझते हैं
औ’ वे हवा की तहज़ीब को नकारते हैं
हम सम्बन्धों की धुन पर थिरकते हैं
औ’ वे अंधेरे मुहाने पर खड़े रहते हैं
हम गुलाब-से हुए फिरते हैं
औ’ वे कांटों के हिमायती
हम बदनसीबी पर घात लगाए बैठे हैं
औ’ वे साजिशों की घूर पर बैठे हैं
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