केवल तिवारी
सहज, सरल एवं निश्छल पहाड़ और वहां की संपदा की महत्ता का पता तब चलता है जब वहां से सैकड़ों किलोमीटर दूर दमघोटू माहौल में रहना पड़ता है। पहाड़ छोड़ने के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन वहां की नदियों की कल-कल ध्वनि, फलों का स्वाद, फूलों की खुशबू जैसी अनेक चीजें याद आती रहती हैं। एक कवि हृदय व्यक्ति जब वहीं से निकली नदियों का मैदानी इलाकों में हश्र देखता है तो उसकी कलम से वेदना के स्वर फूटने लाजिमी हैं। डॉ. हरीश चंद्र लखेड़ा ने अपनी किताब ‘नदियों के गीत’ में संवेदनाओं का ऐसा संसार पेश किया है कि पहाड़ों को समझने वाला भी और न समझने वाला भी उसमें रच-बस जाता है।
बीच-बीच में उत्तराखंड के देशज शब्दों का प्रयोग कर कवि ने अपनी रचनाओं को पहाड़ से सीधे जोड़ दिया है। कहीं डॉ. लखेड़ा ने लिखा है, ‘काफल पाको, मिल नी चाखो’ तो कहीं वह ‘जंगल के पिरुल’ जैसे वाक्यांशों का प्रयोग करते हैं। इसी तरह कहीं उन्होंने लिखा है, ‘एक हाथ में ले आना दरांती-थमाली’ तो कहीं पहाड़ की नैसर्गिक सौंदर्य के चित्रण के साथ ही वहां के जीवन को दर्शाया है। अपनी कविताओं में उन्होंने पलायन के दंश को भी उकेरा है। अपनी कविता ‘मेरे गांव में’ वह लिखते हैं, ‘…बढ़ रहा है जंगल, घट रहे हैं लोग।’ पलायन की पीड़ा के साथ ही शहरों में संघर्षरत युवाओं की वेदना को भी वह दर्शाते हैं।
अपनी कविता चिट्ठी में वह लिखते हैं, ‘यह नौकरी शब्द पैदा कर देता है फासले हर बार…।’ फिर इसी दर्द का विस्तार… कविता ‘कैद दुनिया’ में वह लिखते हैं, ‘किराये के घरों में यहां… फिर कैद हो जाते हैं उस दुनिया में।’ कवि ने अपनी इस किताब में प्यार, मनुहार, उम्मीद, आशंका जैसे तमाम मनोभावों को उकेरा है। कविताओं की यह किताब नदियों की तरह प्रवाहमयी है।
पुस्तक : नदियों के गीत लेखक : डॉ. हरीश चंद्र लखेड़ा प्रकाशक : किताबवाले, नयी दिल्ली पृष्ठ : 98 मूल्य : रु. 450.