राजवंती मान
समीक्षाधीन उपन्यास ‘जया गंगा’ फ्रांस में रह रहे भारतीय लेखक, फिल्म-निर्माता, पटकथा लेखक विजय सिंह द्वारा पैंतीस साल पहले अंग्रेजी में लिखे गए उनके प्रथम उपन्यास का हिन्दी अनुवाद है। इसे ‘जया गंगा-प्रेम की खोज में एक यात्रा’ शीर्षक से मंगलेश डबराल ने अनुवादित किया है जो दिसम्बर, 2020 में उनके निधन के बाद प्रकाशित हो सका है। विजय सिंह द्वारा स्वयं इस उपन्यास पर आधारित एक फिल्म भी बनाई गई थी जो कई फिल्म-उत्सवों और लगभग चालीस देशों में दिखाई गई। फ्रांस और इंग्लैंड में तो 49 सप्ताह तक चलती रही।
उपन्यास पेरिस में रहने वाले एक युवा लेखक निशांत की हिमालय में गंगा के उद्गम यानी गोमुख से लेकर गंगोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार से नाव द्वारा कलकत्ता तक की गई गंगा यात्रा का रहस्यमयी, रोमांचपूर्ण सफरनामा है। उपन्यास का आरम्भ फ्रांस में नायिका जया से मिलन के बाद उसके बिछोह और यादों से होता है। जया एक शादीशुदा औरत है और सांसारिक या बाहरी मजबूरी से वे अलग हो जाते हैं। नायक की गंगा यात्रा के दौरान निरंतर जया की यादें उसका पीछा करती हैं।
उपन्यास रोचक है। विशेष खूबी यह है कि यह रहस्य-रोमांच और पुलक पैदा करता है। नायक की गंगा-यात्रा के दौरान जया की स्मृतियां उसके मन-मस्तिष्क में छाई रहती हैं। गंगा किनारे उसकी मुलाकात जहरा से होती है जो एक तवायफ है। जया और जहरा की छवियों के साथ-साथ मार्ग में नायक साधुओं, नाविकों, आम लोगों, पत्रकारों, इंजीनियरों, दलालों से मिलता है और उनसे अनेक विषयों पर यथा राजनीति से लेकर फिल्मों, 1962 की लड़ाई, हथियारों से लेकर मन्दिरों तक, कांग्रेस से हिन्दू महासभा तक, फिलोसोफी से लेकर इतिहास पर बातें होती हैं। उपन्यास का वाक्य विन्यास प्रभावी है।
उपन्यास में जितना कहा गया है, उससे अधिक अनकहा रह जाता है। यानी लेखक के साथ पाठक भी रचना में सहभागी बन जाता है। उनकी रुचियों और अभिकल्पनाओं के लिए भी उपन्यास में भरपूर स्पेस दिया गया है जो हिंदी उपन्यासों में कम ही देखा गया है। उपन्यास अपने अंतिम छोर की ओर बढ़ता है और नायक को जया का इंतजार है। सूर्यास्त हो जाता है और उसके बाद जो घटित होता है, उसके लिए उपन्यास के कुछ पन्ने बिल्कुल खाली, एकदम कोरे रखे गये हैं जहां पाठक अपनी कल्पनाओं के अनुसार विचरण कर सकते हैं। उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते कई बार हल्के-भूरे रंग का पश्मीना शाल ओढ़े आवरण पेज की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है।
उपन्यास को पढ़ते हुए यह बिल्कुल ही नहीं लगता कि यह अनुवाद है। भाषा शैली की सहजता, सरसता और तरलता ऐसी है कि पाठक इसमें रम जाता है।
पुस्तक : जया गंगा लेखक : विजय सिंह प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 231 मूल्य : रु. 295.