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व्यंग्य में हास्य व तल्खी की धार

पुस्तक समीक्षा

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गोविंद शर्मा

साहित्यकार व पत्रकार प्रदीप कुमार दीक्षित का यह पहला व्यंग्य संग्रह ‘अपना अपना आनंद’ प्रकाशित हुआ है। उनके व्यंग्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। संग्रह को पढ़ कर लगा कि यह तो अपना-अपना व्यंग्य है अर्थात‍् समाज, राजनीति और इंसान का कोई अंश बचा नहीं है, जिस पर इस संग्रह में व्यंग्य नहीं हो। व्यंग्य किसलिए होता है? तिलमिलाने के लिए या मुस्कुराने के लिए? लेखक ने दोनों प्रस्तुत किए हैं। नि:संदेह कुछ आलेख मुस्कुराने के लिए मजबूर करते हैं तो कुछ तिलमिलाने के लिए।

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जैसा कि पहले व्यंग्य में संदेश है कि आदमी को अपना काम बन जाने पर उतना आनंद नहीं आता, जितना दूसरे के बिगड़ जाने पर आता है। कुछ लोगों की हालत कैसी भी हो, उनकी मंशा ऐसी रहती है कि पड़ोसी आगे न बढ़ पाए। अगले आलेख में चटोरों को बरी किया गया है।

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परीक्षा आने पर छात्र ही परेशान नहीं होते, प्राध्यापक भी होते हैं। क्योंकि छात्र को तो केवल फेल होने का डर होता है, प्राध्यापक को कई होते हैं। जैसे किसी छात्र को नकल करते पकड़ने पर हमला होने का डर या कोई मुझे नकल करते छात्र को न पकड़ते हुए न देख ले। आंदोलन जीवी मुन्नालाल हो या थानेदार सुल्तान सिंह, अपने-अपने हिसाब से विकसित होते रहते हैं, आप चाहे उन पर कितनी ही नुक्ताचीनी करें।

संग्रह के 52 व्यंग्यों की एक खूबी यह भी है कि किसी आलेख में अनावश्यक विस्तार नहीं है। आप लगातार पढ़कर कई व्यंग्यों का आस्वादन कर सकते हैं। भाषा में नरमाई है तो कहीं-कहीं तीखापन भी। ये व्यंग्य पढ़ते-पढ़ते आप कभी ठंडापन भी महसूस कर सकते हैं। वैसे तो जीवन में विसंगतियां ही व्यंग्य लिखवाती हैं। कुछ व्यंग्य ऐसी विसंगतियों पर भी लिखे गए हैं, जो व्यंग्यकारों की विशेष पसंद रही हैं। व्यंग्यकार प्रदीप कुमार दीक्षित ने प्रमाणित किया कि वह सिर्फ सामने ही नहीं, चारों तरफ देखते रहे हैं।

पुस्तक : अपना अपना आनंद लेखक : प्रदीप कुमार दीक्षित प्रकाशक : बोधि प्रकाशन जयपुर पृष्ठ : 120 मूल्य : रु. 150.

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