ज़ाहिद ख़ान
बीता साल आम आदमी के दुख-दर्द और परेशानियों को अपने कार्टूनों के मार्फ़त हमेशा आवाज़ देने वाले रासीपुरम कृष्णस्वामी लक्ष्मण यानी आर.के. लक्ष्मण का जन्मशती साल था। वे आम आदमी की मुख़र आवाज़ थे। उन्होंने अपने कार्टूनों के ज़रिए न सिर्फ़ आम आदमी की रोज़मर्रा की मुश्किल भरी ज़िंदगी, समस्याओं को देश के सामने रखा, बल्कि सियासी-समाजी मसलों पर उनकी कभी मासूम, तो कभी तीख़ी टिप्पणी सियासतदानों को सोचने पर मज़बूर करती थी। ख़ास तौर पर राजनीतिक मामलों पर बनाए गए उनके कार्टून, लोगों को बेहद आकर्षित करते थे। लक्ष्मण ने अपने काटूर्नों में देश के सियासतदानों की जमकर ख़बर ली और उन पर तंज़ कसने के लिए आम आदमी के नज़रिये से सोचा। यही उनके कार्टूनों की असल ताकत थी। उन्होंने सामाजिक बुराइयों और हुक्मरानों के जन विरोधी कामों-फैसलों को हर दम निशाना बनाया और लोगों के बीच जागरूकता फैलाई।
आर.के. लक्ष्मण के कॉमिक किरदार ‘कॉमन मैन’ ने देश की कई पीढ़ियों को मुतासिर किया। साधारण से दिखने वाले उनके कार्टून चरित्र में एक अलग ही नैतिक ताकत थी, जो ताक़तवरों को भी अपने आगे झुका देती थी। उनके कार्टूनों में सिर्फ हास्य नहीं, जबर्दस्त तंज और व्यंग्य होता था। एक छोटा-सा कार्टून, अपने समय पर एक सशक्त टिप्पणी है।
आर.के. लक्ष्मण ब्रिटिश कार्टूनिस्ट सर डेविड लॉव से काफ़ी प्रभावित थे। अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित उनके कार्टून के तो वे जैसे दीवाने ही थे। दीवानगी ऐसी कि जब उन्होंने पढ़ना-लिखना भी नहीं सीखा था, तब भी वे उनके कार्टूनों को ग़ौर से देखा करते। फिर ठीक उसी तरह से उन्हें दीवारों पर बनाने की मासूम कोशिश करते। पढ़ाई पूरी करने के बाद आर. के. लक्ष्मण ने अपनी पहली फुलटाइम नौकरी मुंबई के ‘फ्री प्रेस जर्नल’ में एक राजनीतिक कार्टूनिस्ट के तौर पर की। बाद में वे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ से जुड़ गए। यहीं से पाठकों पर उनका जादू चढ़ने की शुरुआत हुई। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के पहले पन्ने पर आर. के. लक्ष्मण के ‘यू सेड इट’ यानी ‘आपने कहा’ कैप्शन वाले पॉकेट कार्टून का सुहाना सफ़र बीसवीं सदी के पचास के दशक में शुरू हुआ। यह सिलसिला पूरे छह दशक तक चला। उन्होंने देश के सारे प्रधानमंत्रियों पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह का ज़माना देखा और उस दौर को बड़ी ही ज़िम्मेदारी से अपने कार्टूनों में चित्रित किया। देश में इतिहास बनाने वाली अहम घटनाओं को उन्होंने अपने कार्टूनों से दर्शाया, तो सरकार की जन विरोधी नीतियों की भी आलोचना की। अपने कार्टूनों में वे सत्ता और समाज की गड़बड़ियों, राजनीतिक विचारधाराओं की विषमता को निशाना बनाने में कभी नरमी नहीं बरतते थे। वे अक्सर कहा करते थे, ‘नेता भले ही देश के लिए बुरे हो सकते हैं, लेकिन उनके पेशे के लिए वे काफी अच्छे रहे हैं।’ राजनेता भी उनके व्यंग्य और कटाक्ष का कभी बुरा नहीं मानते थे। दरअसल आर.के. लक्ष्मण राजनीतिकों में भी उतने ही लोकप्रिय थे, जितने कि अपने पाठकों में। खु़द पं. जवाहरलाल नेहरू तक उनके कार्टूनों और बेमिसाल सलाहियत के प्रशंसक थे। देश में इमरजेंसी का दौर आया, तो प्रेस पर कई तरह की सेंसरशिप लग गई। आर.के. लक्ष्मण मीडिया की आज़ादी को लेकर काफ़ी संवेदनशील थे। वे इस संबंध में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले और उन्होंने श्रीमती गांधी को आगाह किया कि वे ग़लत कर रही हैं। देश में लक्ष्मण ही एक अदद ऐसे कार्टूनिस्ट थे, जिनके कार्टून इमरजेंसी के दौरान भी लगातार प्रकाशित होते रहे।
आर.के. लक्ष्मण के कार्टून का मुख्य किरदार ‘कॉमन मैन’ था। इस किरदार को बनाने में उन्हें थोड़ी सी जद्दोजहद करनी पड़ी। वज़ह, वे एक ऐसी शख्सियत को गढ़ना चाहते थे, जिसमें किसी ख़ास मज़हब, जाति, नस्ल और वर्ग का अक्स न दिखे। वह पूरे देश के आम नागरिकों की नुमाइंदगी करे। बहरहाल, थोड़ी सी कोशिशों में इस किरदार ने जो शक्ल इख्तियार ली, उसका ख़ाका कुछ इस तरह से है-धोती, चैक वाला बंद गले का कोट, पांव में सस्ते जूते और गांधी चश्मा। यह कॉमन मैन, आगे चलकर पूरे देश में किसी जीती-जागती हस्ती की तरह मशहूर हुआ। कार्टूनिस्ट के अलावा आर. के. लक्ष्मण बेहतरीन लेखक भी थे। अपने बड़े भाई उपन्यासकार आर. के. नारायण की तरह वे भी साहित्यिक लेखन करना चाहते थे, लेकिन उनकी पहचान कार्टूनिस्ट के रूप में ही रही। लक्ष्मण ने ‘होटल रिवेरा’ और ‘द मैसेंजर’ नामक दो उपन्यास लिखे। ‘द टनल ऑफ टाइम’ शीर्षक से उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी। दूरदर्शन पर प्रसारित टीवी धारावाहिक ‘मालगुड़ी डेज’ को भला कौन भूल सकता है, जिसमें उनके स्कैच बहुत कुछ कह जाते थे।
इंडियन एक्सप्रेस का ‘बीडी गोयनका अवार्ड’ के अलावा भारत सरकार ने उन्हें देश की कार्टून कला में बेमिसाल योगदान के लिए नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ और फिर उसके बाद ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। लक्ष्मण को पत्रकारिता, साहित्य और सृजनात्मक संवाद कला के लिए साल 1984 में प्रतिष्ठित ‘रेमन मैगसेसे पुरस्कार’ भी प्रदान किया गया। इस ‘कॉमन मैन’ की लोकप्रियता इस बात से आंकी जा सकती है कि साल 1988 में जब ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के 150 साल पूरे हुए, तो भारतीय डाक विभाग ने एक डाक टिकट जारी किया।
आर. के. लक्ष्मण लंबी उम्र जिये। 26 जनवरी, 2015 को 94 साल की उम्र में उन्होंने इस दुनिया से अपनी आख़िरी विदाई ली।