मीरा गौतम
‘जब मां कुछ कहती मैं चुप रह सुनता’ काव्य-संग्रह के 170 पृष्ठों में, प्रवासी भारतीय कवि रामा तक्षक की 96 कविताएं संगृहीत हैं जिनमें पूरा विश्वग्राम बसता है। कविताएंं साबित करती हैं कि ‘प्रवास’ महज एक भौगोलिक स्थानांतरण है जो न विस्थापन है, न निर्वासन है और न ही आत्मनिर्वासन। वह स्वेच्छया नीदरलैंड्स में जा बसे हैं। राजस्थान की मिट्टी में जन्मे इस कवि की रगों में, उनका देश भारत स्पंदित है। भारत एक अवधारणा है जिसकी सुन्दर देह है, सुदृढ़ मन है और सात्विक आत्मा है जो इतिहास की काली छायाओं से पराजित नहीं होती। इसलिए, नीदरलैंड्स का प्रवास उनके लिए औपचारिकता मात्र है। कवि रामा तक्षक वहीं रहते हुए भारत की अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘विश्वरंग’, नीदरलैंड्स की ‘साझा संसार’ और ‘प्रवास : मेरा दूसरा जन्म’ जैसी वैश्विक और सांस्कृतिक संस्थाओं के निदेशक के रूप में निरंतर सेवारत हैं।
काव्य-संग्रह मां को समर्पित है :- ‘मां सार है शब्दकोश का/ मां संश्लेषण है जीवन का/ मां भाव महासागर सा।’
अतः संग्रह की कविताएं शब्द धाराओं के सहज रूप में रास्ते तलाशतीं, विश्व समुद्र में एकाकार हो गयीं हैं। ‘विश्वरंग’ और ‘साझा संसार’ की आयोजक त्रयी-संतोष चौबे, लीलाधर मंडलोई और रामा तक्षक ने वैश्विक अंतरालों को मिटाकर धरती की एक नयी परिभाषा गढ़ी है। संग्रह की कविताएं नहीं लगतीं कि ‘किसी दूर देस के वासी’ कवि ने लिखी हैं :-‘मैं राजदूत हूं भारत का/ मैं पत्थर इसी इमारत का/ मैं पूरे प्रण से प्रतिष्ठित हूं/ मैं इसी भाव से पोषित हूं/ मैं हिस्सा इसी इमारत का।’
उन्होंने सही कहा है क्योंकि इन कविताओं में घर-गांव बसा हुआ है। मां की सीख गांठ में बांधकर वह दूर देस निकला है। शीर्षक कविता ‘जब मां कुछ कहती’ में उसने मां की गवाही दी है :-‘तीन वाक्य हैं मां के धारे/ काम कर थक मत/ खा पर छक मत/ बात कर बक मत/ …मैं चुप रह सुनता/ जब मां कुछ कहती।’
यहां मां जैविक इकाई नहीं। कवि के लिए ‘सृष्टि का सार’ है। मां को हृदय में लेकर चलने का अर्थ है ब्रह्मांड को साथ लिए चलना। मां पांवों में गति और चेतना की अन्तर्यात्रा है। मां की बातें ध्यान से सुनी हैं इसीलिए कविताएंं अपनी सहजता में विश्व छोरों को पकड़कर आगे बढ़ती दिख रही हैं। मां ने दो टूक समझाया और कवि ने दो टूक अपनाया। कविताएंं भी बतियाती आगे बढ़ चली हैं।
‘एक नन्हा-सा जुगनू’ सूक्ष्म में विस्तार का प्रतीक है। अपनी निडर उड़ान में वह सुनसान अंधेरे के घनेरे परिवृत्तों में चैतन्यता भरता आगे बढ़ता जा रहा है।‘तिमिर से लड़ता/ करता राह आसान/ विचरता न थकता/ करता पथ-प्रदर्शन/ एक नन्हा-सा जुगनू।’
इस कविता में कवि के संघर्ष जाहिर हैं जहां वह अल्प साधनों में बीहड़ों में पगडंडी मापता हुआ, विश्वमार्ग तक जा पहुंचा है। इस रास्ते की खंदक और खाइयों में, हिन्दी के कीबोर्ड ने उसका बड़ा साथ दिया है कि जिससे उसका 36 का आंकड़ा अब 63 हो गया है। ‘प्रारब्ध-प्रवाह’ कविता में उसकी साखी भी दी गयी है, ‘तीन और छह का/ मेरे धैर्य व कम्प्यूटर बीच/ है आंकड़ा।’ और तो और इस प्रयत्न और अभ्यास में उसके अधैर्य ने उसे ‘रूदाली’ बनाकर नौ-नौ आंसू भी रुलाया है।
ये कविताएं प्रश्न और समाधान साथ-साथ लिए चल रही हैं। कवि अकेला नहीं है। हिन्दी के कवियों और उनके सृजन-संस्कारों को वह अपने प्रवास में निरन्तर जी रहा है।
स्त्री मन की यह वेदना कवि के संवेदनशील हृदय का परिचय दे रही है। ‘मेरी अंखियों के दीप,’ ‘आंचल के आंगन में,’ ‘प्रकाश पुंज तुम मेरी आत्मा,’ ‘हिचकी बिरहन की’, ‘बौराई सांझ,’ ‘खुले पंख’, ‘कुछ तितली’, ‘दिल तेरे समन्दर में’ और ‘प्रेम लिखने को फुरसत नहीं है, प्यार करने की फुरसत बहुत है’ जैसी कविताओं में कोमल मन की आहटें हैं। प्रेम करने की फुरसत निकाल लेना इस व्यस्त-त्रस्त जीवन में बहुत बड़ी बात है।
‘हे महिला! तुम हो सबला।’ कविता में कवि विशेष रूप से महिलाओं को उनकी शक्ति की पहचान देकर आह्वान करता है कि बहुत हो गया- अब उठो और सिर पर मुकुट पहन ही लो। हाथों में शस्त्र उठा लो और उन प्रश्नों के जवाब दो जो तुम्हारे सामने चुनौती बनकर खड़े हो गये हैं। अब तुम अधिकार सम्पन्न स्त्री हो, कमज़ोर नहीं हो, ‘निष्ठा तेरी क्यों प्रश्नों भरी है?/ उत्तर चुनौती आन पड़ी है।/ अब मुकुट लो चढ़ा, अस्त्र उठा/ तुमसे उत्तर मांगे, जग सारा।/ हे महिला! तुम हो सबला।’
कहना न होगा कि कवि ने यहां मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियों को उलट दिया है, ‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी/आंचल में है दूध और आंखों में पानी।’ कवि तक्षक स्त्री को हर तरह से शक्ति सम्पन्न देखना चाहते हैं। संग्रह में उन्होंने अपने परिवार की उन स्त्रियों और उनकी बेटियों के चित्र अंकित किये हैं जिन्होंने अपनी पहली संतान बेटी को जन्म देकर धरती को सौंप दी है कि बेटियां अभी भी प्रसाद की देवसेना ही बनी हुई हैं, ध्रुवस्वामिनी नहीं।
घर-गांव के संयुक्त परिवारों के आत्मीय रिश्तों की उष्मा ‘रेत की छुवन’ कविता में मौजूद है जिसकी छुवन में होली के रंग महकते हैं, जो मटियाले आंगन, खेत और खलिहान, सावन की पहली बरसात से उपजी मिट्टी की ख़ुशबू साथ लिए कवि संग चली आयी है जहां मां, चाची और ताई में कोई फ़र्क ही नहीं है।
‘लाल पसीना’, ‘सत्ता-सीढ़ी’ और ‘मेरी झोली’ जैसी कविताओं में देश के इतिहास, वर्तमान परिदृश्य और राजनीतिक विसंगतियों पर दृष्टिपात किया गया है। कविताओं में विचार-दृष्टि है परन्तु किसी विशेष विचारधारा का दबाव नहीं है।
‘बीसियों बरस बाद’ कविता में दाम्पत्य-सम्बन्ध और ‘समझ प्रमाद’ में लिंगभेद समानता, ‘टस्कनी घाटी का सवेरा’ में प्रकृति-सौन्दर्य, ‘खजुराहो : प्रेम-मन्दिर’-‘एक और खजुराहो : प्रेम-मन्दिर-दो’ में प्रस्तर-शिल्प, चैतन्य-अभिसार और पत्थरों में सृजित देह आवेगों की कामकथा को कवि की प्रस्तर-शिल्पी नज़र से निरखा-परखा जा सकता है। संग्रह के आख़िरी चरण में कवि फिर प्रेम-प्रश्नों पर लौटा है।
अंत में, कवि उस धरती का धन्यवाद करता है जो हम सबकी है, जिसकी हिफ़ाज़त करना हम सबका अनिवार्य कर्तव्य है। संग्रह की कविताएं निष्कर्ष दे रही हैं कि भले ही ये प्रवास में लिखी गयी हैं परन्तु उनकी धमनियों में ‘विश्वरंग’ गमक रहा है, जिसने पूरे विश्व-आकाश को सुनहला कर दिया।
पुस्तक : जब मां कुछ कहती मैं चुप रह सुनता कवि : रामा तक्षक प्रकाशक : आईसेक्ट प्रकाशन, भोपाल पृष्ठ : 170 मूल्य : रु. 250.