दोहों में जीवन विसंगति बांचती सतसई : The Dainik Tribune

पुस्तक समीक्षा

दोहों में जीवन विसंगति बांचती सतसई

दोहों में जीवन विसंगति बांचती सतसई

डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

यों तो हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल और रीतिकाल दोहों की रचना से इतना अधिक संपुष्ट है कि हमें कहीं और दोहों के लिए जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती, फिर भी वर्तमान में हिन्दी-साहित्य में दोहे इतनी प्रचुर मात्रा में लिखे जा रहे हैं कि हमें इस छंद की महिमा का कायल होना ही पड़ता है।

नीति के मार्मिक और यादगार दोहों के प्रख्यात रचयिता कविवर रहीम ने दोहा छंद की विशेषता बताते हुए एक दोहा ही रच दिया है :-

‘दोहा दीरघ अरथ के, आखर थोरे आहिं।

ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिट कूद चलि जाहिं।’

निःसंदेह, 11 और 13 मात्राओं वाली दो पंक्तियों के इस दोहा छंद में कवियों ने ऐसे-ऐसे गहरे अर्थ भर दिए हैं कि समीक्षकों को इस छंद को ‘छंदों का राजा’ कहना पड़ा है।

मेरे सामने है एक दोहा संग्रह ‘बैठ समय के तीर’, जिसके रचयिता हैं दोहाकार भारत भूषण आर्य। आर्य ने भी ‘सतसई-परंपरा’ को निभाते हुए इस दोहा-संग्रह में कुल 723 दोहे रखे हैं। 700 दोहे ‘सतसई’ के और 23 दोहे अतिरिक्त, किसी कमी की पूर्ति के लिए। अपनी दोहा-कृति को भारत भूषण ने अपने ‘दोहा-गुरु’ डॉ. देवेंद्र आर्य को समर्पित किया है।

भारत भूषण आर्य यूं तो ‘वाणिज्य’ स्नातक हैं, लेकिन उन्हें मां शारदा ने भरपूर वरदान दिया है और वे अपने साहित्यिक गुरु की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अर्थपूर्ण दोहे रचने में सफल हुए हैं। अपने इस कथन को सिद्ध करने के लिए मैं उनका ‘दर्शनपरक’ यह दोहा आपके समक्ष रखना चाहूंगा :-

‘मैं क्या नन्ही बूंद-सा, क्या मेरा विस्तार?

बिना बूंद लेकिन कहां, सागर हुआ अपार।’

यह दोहा ‘ईश्वर के समक्ष स्वयं को बूंद’ मानते हुए भी ‘स्वयं अर्थात‍् ‘जीव’ के बिना ईश्वर के अस्तित्व’ पर ही दोहाकार ने प्रश्नचिह्न लगा दिया है?

वर्तमान में माता-पिता के मन की गहरी पीड़ा को समेटे हुए भारत भूषण के इस दोहे को पढ़कर आपकी आंखें क्या बरबस गीली नहीं हो जाएंगी :-

‘बेटे जा-जा बस गए, कोसों दूर विदेश।

बिन मोबाइल भेजती, मां रो-रो संदेश।’

और आधुनिकता की चकाचौंध में पूरी तरह खो चुकी आज की महानगरीय युवा-पीढ़ी का चित्र देखकर आपका हृदय जुगुप्सा और रोष से भर उठेगा :-

‘मॉल कभी, किट्टी कभी, घूम रहा परिवार।

बूढ़े दादा हो गए, घर के चौकीदार।’

आज की राजनीति पर करारे और चुटीले व्यंग्य देखकर आप दोहाकार भारत भूषण को बधाई जरूर देंगे :-

‘कभी काग के संग तो, कभी हंस के संग।

राजनीति की नीति के, कहां अजब ये रंग।’

आज के समाज में मानव-मन कितना विचलित और भ्रमित है, इस पर भी दोहाकार ने लिखा है :-

‘बीस बार गीता पढ़ी, रामायण सौ बार।

फिर भी मैं समझा कहां, ‘मैं’ पर रहा सवार।’

ग़ज़लकार दुष्यन्त को याद कराता एक दोहा मैं यहां इसलिए दे रहा हूं कि आप आर्य की अभिव्यक्ति का वह सौंदर्य देख सकें जो व्यंजना के माध्यम से आता है :-

‘कहां झोपड़ी के लिए, कोई जली मशाल।

कल था जैसा आज भी, वैसा ही जन-हाल।’

उनका दोहा उद्धृत करता हूं, जिसने मुझे भीतर तक छुआ है, आपको भी छुएगा जरूर :-

‘पास बैठ, दो बात कर, पूछ स्वयं का हाल।

जमा-घटा में ही दिया, ‘भूषण’ जन्म निकाल।’

दोहाकार भारत भूषण आर्य की यह ‘सतसई’ सभी मौजूदा स्थितियों का दर्पण कही जा सकती है।

पुस्तक : बैठ समय के तीर रचनाकार : भारत भूषण आर्य प्रकाशक : साहित्य सहकार प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 721 मूल्य : रु. 450.

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