सुभाष रस्तोगी
बीती सदी के आठवें दशक में लघुकथा को एक स्वतंत्र विधा के तौर पर स्थापित करने वाले लघुकथाकारों में निःसन्देह अशोक भाटिया की प्रमुख भूमिका रही है।
वास्तव में ही लेखक की यह सद्य: प्रकाशित कृति ‘सवाल-दर-सवाल’ पहली दफा सतर्क-सप्रमाण इस तथ्य को रेखांकित करती है कि रमेश बत्तरा की लघुकथा के विकास में महत्वपूर्ण रचनात्मक भूमिका रही है। रमेश बत्तरा की उपलब्ध चौबीस लघुकथाएं, पांच आलेख और लघुकथा पर पहला साक्षात्कार इस पुस्तक में दिए गये हैं। जया रमेश ने अपने बेहद आत्मीय संस्मरण में माना है कि ‘अपने प्रति लापरवाह थे रमेश। रमेश अधिक लिखने के कभी पक्षधर नहीं रहे। जितना लिखो उसकी बुक्कत होनी चाहिए, मात्र लफ्फाजी नहीं।’ इसी संस्मरण में जया ने सबसे छोटी लघुकथा का जिक्र किया है, ‘एक लादा था। वह बहुत गलीब था।’ वास्तव में ही यह सबसे छोटी लघुकथा है जो पाठक के समक्ष सोच के विस्तृत आयाम खोल देती है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि अपरिमित वैभव के बावजूद राजा गरीब था। सुशील राजेश, अशोक जैन, भगीरथ, बलराम, सुभाष नीरव और अशोक भाटिया का आलेख ‘लघुकथा की रचनात्मक धारा के प्रतीक : रमेश बत्तरा’ इस कृति को संग्रहणीय बनाते हैं।
रमेश बत्तरा के तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं और एक उपन्यास धारावाहिक रूप से ‘हिन्दी मिलाप’ (दैनिक) में प्रकाशित हुआ, लेकिन पुस्तक रूप में संभवतः उपलब्ध नहीं हो पाया। उनके तीन प्रकाशित कहानी-संग्रहों ‘नंग-मनंग’, ‘पीढ़ियों का खून’ और ‘फाटक’ की काफी चर्चा भी हुई। महेश दर्पण ने ‘कथादेश’ में अपनी एक टिप्पणी में लिखा है कि वे ‘सवाल-दर-सवाल’ अपना लघुकथा-संग्रह छपवाना चाहते थे। वहीं लघुकथा-संग्रह ‘सवाल-दर-सवाल’ अब डॉ. अशोक भाटिया के अथक प्रयासों से प्रकाशित हुआ है। इस तरह के निरंतर शोधपरक प्रयासों के लिए संपादक में गज भर का कलेजा होना चाहिए और अशोक में निश्चय ही गज भर का कलेजा है। रमेश बत्तरा की 24 लघुकथाएं ये हैं- सिर्फ एक, शीशा, हालात, नौकरी, उसकी रोटी, खोया हुआ आदमी, संदर्भ, अनुभवी, मांएं और बच्चे, कहूं कहानी, खोज, निजाम, सूअर, लड़ाई, नागरिक, बीच-बचाव, वजह, राम-रहमान, अंधे खुदा के बंद, दुआ, सिर्फ हिंदुस्तान में, स्वाद, नई जानकारी व चलोगे।
एक लघुकथाकार और लघुकथा चिंतक के रूप में रमेश बत्तरा का निजी योगदान यह है कि उन्होंने लघुकथा के कथ्य और कहन दोनों में आमूल-चूल बदलाव उपस्थित किया। रमेश की ‘दुआ’ लघुकथा इसके एक जबरदस्त साक्ष्य के रूप में देखी जा सकती हैmdash; ‘दुआ का स्कूटर वाला दंगाग्रस्त इलाके से कुछ इधर ही ब्रेक लगा देता है और सवारी बिना पैसे दिए भाग खड़ी होती है, तब स्कूटर वाला किराया हजम करने वाले काे यह ‘दुआ’ देता है- ‘साला हिन्दू है तो मुसलमान के हाथ लगे और मुसलमान है तो हिन्दुओं में जा फंसे।’ रमेश बत्तरा जिन दिनों ‘सारिका’ में उपसंपादक थे, उन दिनों के निकाले गये ‘सारिका’ लघुकथा विशेषांक आज भी किसी दस्तावेज से कम नहीं माने जाते हैं। रमेश बत्तरा से गौरीनंदन सिंहल द्वारा लघुकथा विषयक लम्बी बातचीत की गयी। रमेश की यह स्वीकारोक्ति गौरतलब है जो स्वयं में कई प्रश्नों का अचूक उत्तर भी है, ‘गोलियां खत्म होने पर संगीन की मुठभेड़-सा करतब लघुकथा बखूबी निभा सकती है।’
रमेश बत्तरा की लघुकथाएं अपने समवेत पाठ में सवाल-दर-सवाल उठाती हैं और अपनी कहन की तुर्शता से पाठक की अंतश्चेतना को उधेड़ कर रख देती हैं।
पुस्तक : सवाल-दर-सवाल- रमेश बत्तरा का लघुकथा साहित्य लेखक : अशोक भाटिया प्रकाशक : भावना प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 112 मूल्य : रु. 175.