आलोक यात्री
उदzwj;्भ्रांत को जानना इतना आसान नहीं है जितना वह अपनी किताब ‘जो मैंने जिया…’ में कहते हैं। व्यक्ति और कवि के रूप में वह दो अलग-अलग शख्सियत के तौर पर नजर आते हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से यह आकलन कर पाना मुश्किल है कि बतौर कवि वह बड़े हैं या शख्सियत के तौर पर उनका कोई मुकाम बड़ा है।
‘मैंने जो जिया…’ उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड है। जो उनकी रहगुजर का बयान अधिक प्रतीत होता है। इस पुस्तक में उनका बयान यह साबित करने में सफल है कि उदzwj;्भ्रांत उन कुछ गिने-चुने लोगों में से हैं जो सच को सच के तौर पर कहने का साहस रखते हैं। इस बात का यकीन जरूर हुआ कि हर समय, हर कालखंड में एक उदzwj;्भ्रांत आवश्यक है। जो सच को जिंदा रखने, परोसने का साहस अपने भीतर रख सके। हम सब प्रेमचंद को पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। हमारे प्रतिमान निःसंदेह उदzwj;्भ्रांत से मेल नहीं खाते लेकिन उनके द्वारा कई तरह का सच जब आम आदमी की जिंदगी के फ्रेम की तस्वीर में ज्यों का त्यों सामने खड़ा मिलता है तो हमें सोचना पड़ता है कि यह कौन शख्स है जो बजिद हमें आईना दिखा रहा है।
‘जो मैंने ज़िया…’ का दूसरा खंड पढ़ते हुए मैं यह कह सकता हूं कि उदzwj;्भ्रांत को लेकर कई तरह की अफवाहें उड़ी होंगी। लेकिन बतौर एक लेखक, एक कविzwnj;, आप उन्हें खारिज नहीं कर सकते। ‘मैंने जो जिया…’ उदzwj;्भ्रांत की आत्ममुग्धता का ही जयघोष है, लेकिन यह किताब यह सोचने पर भी मजबूर करती है कि दूसरा उदzwj;्भ्रांत हमारे पास है कहां? होता तो सच कहने का कोई और सरोकार उसके पास होता क्या? मुझे लगता है कि एक कवि जो चंद पंक्तियों में अपनी बात कह सकता है वह खंडकाव्य रूपी रचना हमारे समक्ष प्रस्तुत क्यों करता? मैं तो यही कहूंगा कि किसी बहाने उदzwj;्भ्रांत के भीतर झांकने का अवसर मिल जाए तो चूकिएगा नहीं। ‘मैंने जो जिया…’ नि:संदेह एक श्रमसाध्य प्रयास है।
रमाकांत शर्मा उदzwj;्भ्रांत हिंदी के उन चंद साहित्यकारों में शामिल हैं जिन्होंने गीत, कविता, नवगीत, ग़ज़ल, कहानी के अलावा समीक्षा, अनुवाद से लेकर बाल साहित्य के क्षेत्र में भरपूर कार्य किया है। यूं तो उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा नव गीतकार के रूप में शुरू की थी। लेकिन हाल ही में आये उनके आत्मकथात्मक ग्रंथ ‘मैंने जो जिया-2’ ने साहित्य के क्षेत्र में काफी हलचल मचा रखी है। आत्मकथा को लेकर यह मान्यता है कि वह सच का बयान भी है, लेकिन सच कहने की एक मर्यादा है। अपनी आत्मकथा में वह कहीं-कहीं बहुत अधिक मोहग्रस्त और आत्ममुग्धता से भरे दिखाई देते हैं। कई नामचीन हस्तियों का जिक्र बहुत हल्के तौर पर करते हैं।
पुस्तक में अपना चरित्र चित्रण वह कई जगह करते हैं। एक जगह वह कहते हैं ‘उदzwj;्भ्रांत का व्यक्तित्व तमाम तरह की उचित-अनुचित भावदशाओं का प्रतिबिंब था। वह रोमैंटिक था, प्रेमी था। रूढ़ियों के विद्रोह, नवीनता के प्रति आकर्षण। अराजकता की सीमा तक दुस्साहसी…। कहा जा सकता है उदzwj;्भ्रांत ने सत्य को अनावृत्त ही रखा है। लेकिन यह पुस्तक स्वयं के जयघोष के तौर पर अपनी पहचान बनाएगी। इसे उत्कृष्ट आत्मकथा के तौर पर पहचान बनाने में लंबा वक्त लग सकता है।
पुस्तक : मैंने जो ज़िया-2 लेखक : रमाकांत शर्मा उद् भ्रांत प्रकाशक : अमन प्रकाशन, कानपुर पृष्ठ : 368 मूल्य : रु. 375.