प्रकाश मनु
विष्णु प्रभाकर हिंदी के बड़े लेखक थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊंचाई दी। मुख्य रूप से वे कथाकार थे, पर साहित्य की लगभग हर विधा में उन्होंने कलम चलाई, और अपनी प्रतिभा से उसमें बहुत कुछ नया जोड़ा। खासकर उनके द्वारा लिखी गई शरत की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ तो एक मयार है कि एक बड़े लेखक की जीवनी कैसे लिखी जानी चाहिए। और सच पूछा जाए तो ‘आवारा मसीहा’ में विष्णु जी जिस ऊंचाई पर पहुंचे, आज तक वहां कोई और नहीं पहुंच सका। यों ‘आवारा मसीहा’ जीवनी विधा के साथ-साथ स्वयं विष्णु प्रभाकर के साहित्यिक तप, त्याग और समर्पण का भी एक हिमालय बन चुका है।
हालांकि, हिंदी के इस महान कथाशिल्पी की अपनी जीवन-कथा भी किसी अचरज भरी कहानी से कम नहीं है। उत्तर प्रदेश के एक साधारण गांव में जनमे विष्णु जी को अपने जन्म से लेकर किशोर होने तक गांव-कस्बे का गंवई वातावरण ही मिला, जहां पढ़ने-लिखने के साधनों या साहित्यिक चर्चाओं की गुंजाइश कम थी। पर उन्होंने खुली आंखों से अपने आसपास के जीवन को देखा, और जो कुछ पढ़ने को मिला, उसे अपने भीतर उतारते हुए, धीरे-धीरे ग्राम्य संस्कृति के सहज मूल्यों और संस्कारों को ग्रहण करने लगे।
पढ़ाई के लिए हिसार आने पर वे आर्य समाज के प्रभाव में आए। यहां उन्हें विचार और चिंतन का अपेक्षाकृत खुला परिवेश मिला। इससे हर चीज, हर घटना के बारे में अपने ढंग से सोचने-विचारने की समझ उनके भीतर बनी। वे पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में छपी कविता-कहानियां बहुत रुचि से पढ़ते। और कहीं भीतर से आवाज आती, ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूं…! कुछ अरसे बाद बहुत झिझकते कदमों से उन्होंने उस साहित्य संसार की ओर कदम बढ़ाए, जिसमें बड़े-बड़े नामों की गूंज-अनुगूंज सुनाई देती थी। उन बड़े साहित्यकारों की रचनाएं पढ़कर उन्हें लगता, इस शिखर तक पहुंचने की तो बात ही क्या, उसे छू पाना भी कठिन है।
पर अपने जीवन मूल्यों के प्रति ईमानदारी, आत्मचेतनता और परिवेश के प्रति सजगता ही उनकी ताकत थी, जिसने उन्हें जाने-अनजाने लेखक बनाया। विष्णु जी ने धीरे-धीरे मन और आत्मा के संबल के साथ अपनी सृजन-यात्रा शुरू की। सतत चलते रहने से उनके मन में आत्मविश्वास पैदा हुआ और जल्दी ही उनकी रचनाओं का असर नजर आने लगा। वे हिंदी के चर्चित और सुविख्यात साहित्यकारों में गिने जाने लगे।
विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, 1912 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक गांव मीरापुर में हुआ था। इस छोटे से गांव और उसकी सुंदर सांस्कृतिक परंपराओं के बारे में उन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा के पहले खंड ‘पंखहीन’ में लिखा है। गांव में अलग-अलग जातियों के लोग थे, पर उनमें आपसी भाईचारा था। कहीं दूर-दूर तक सांप्रदायिक वैमनस्य की छाया तक न थी। मेले-ठेले, पर्व-त्योहार, रामलीला सब में लोग बड़े उत्साह से जुटते।
विष्णु जी ने अपने बचपन को याद करते हुए लिखा है कि दादी हम बच्चों को अपने आंचल की ओट बैठा लेतीं और तरह-तरह की कहानियां सुनातीं। उनमें जीवन के नए-नए अनुभव थे, रस था और रोमांच भी। इन कहानियों को सुनते हुए वे कल्पना के पंखों पर उड़ने लगते और आनंद से भर उठते थे। उनके लेखक बनने की नीव शायद यहीं से तैयार हुई।
मई, 1929 में हाई स्कूल की परीक्षा पास करते ही विष्णु जी को एक सरकारी विभाग में दफ्तरी के रूप में नौकरी करनी पड़ी। कुछ समय बाद वे क्लर्क हो गए। पर मन में सपना तो कुछ और ही था। घर में साहित्यिक पुस्तकें और पत्रिकाएं आतीं। उन्हें पढ़ते तो लगता, ‘इस दुनिया में कितना कुछ है जो मुझे लिखने के लिए न्योत रहा है। मुझे भी लिखना चाहिए। लिखने का आनंद ही कुछ अलग है।’
विष्णु जी के मन में कुछ उसी तरह का रचनाकार होने की बात उमड़ रही थी, जैसे प्रेमचंद थे, जैनेंद्र थे और उस दौर के बहुत से और लेखक थे, जिनकी कहानी और उपन्यासों की धूम थी। पहली कहानी उन्होंने लिखी ‘दीवाली के दिन’। नवंबर 1931 में लाहौर के ‘हिंदी मिलाप’ में उनकी यह कहानी छपी।
1934 से विष्णु जी ने नियमित लिखना शुरू कर दिया। वे अपने भीतर एक नई ऊर्जा, नया स्फुरण महसूस कर रहे थे। जैसे शब्दों के सहारे आकाश में उड़ने का सुख क्या है, वे जान गए थे। सन् 1938 में सुभाषचंद्र बोस हिसार आए तो उन्हें अभिनंदन-पत्र दिया गया। वह विष्णु जी ने ही लिखा था। बाद में जब सुभाषचंद्र बोस को बताया गया कि यह अभिनंदन-पत्र विष्णु प्रभाकर ने लिखा है तो उन्होंने बहुत प्रशंसा की। गद्गद होकर विष्णु जी ने झट सुभाष बाबू के पैर छू लिए।
धीरे-धीरे प्रसिद्ध पत्रिकाओं में विष्णु जी की रचनाएं खूब धूमधाम से छपने लगीं। जो कुछ वे लिखते, वह असंख्य पाठकों के दिल में उतर जाता। यहां तक कि प्रेमचंद और जैनेंद्र ने भी उनकी कहानियों को सराहा।
बाद में हिसार से दिल्ली आने पर सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत और नाटककार जगदीशचंद्र माथुर के आग्रह पर विष्णु जी कुछ समय के लिए आकाशवाणी के नाट्य प्रभाग से जुड़े। पर उनके मन में लिखने की गहरी तड़प थी। लिहाजा उन्होंने नौकरी छोड़ी और रात-दिन लिखने में डूब गए।
हिंदी साहित्य को एक से एक अनमोल कृतियां उन्होंने दीं। इनमें स्त्रियों के देह शोषण और अकथनीय व्यथा-कथा को केंद्र में रखकर लिखा गया मर्मस्पर्शी उपन्यास ‘अर्धनारीश्वर’ भी है, जिस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 26 जनवरी, 2004 को राष्ट्रपति द्वारा उन्हें पद्मविभूषण सम्मान से विभूषित किया गया। सन् 2006 में साहित्य अकादमी की अत्यंत सम्मानपूर्ण फैलोशिप उन्हें प्रदान की गई।
इस पर भी अभिमान उन्हें छू न गया था। वे खुले मन के लेखक थे। जो भी मिलने आता, उससे खुलकर मिलते थे। वे सबसे इतने प्रेम से मिलते थे कि हर कोई चकित होता था।
बहुत से लोग उनको आदर्शवादी लेखक कहते हैं, हालांकि उनका आदर्शवाद हवा-हवाई न था। वह यथार्थ की गहरी उधेड़बुन के बीच से निकला था। विष्णु जी ने देहदान करके एक नया आदर्श सामने रखा। मानो दधीचि की तरह अपने शरीर को भी उन्होंने मानव-मुक्ति के यज्ञ में अर्पित कर दिया हो।
सच तो यह है कि विष्णु प्रभाकर की जीवन-यात्रा और सृजन-यात्रा दो अलग-अलग चीजें न होकर, वस्तुतः एक ही थीं। उनके लेखक होने और वास्तविक जीवन के बीच कोई फांक न थी। जो जीवन के आदर्श थे, वे लेखन के आदर्श भी बने। जो कुछ कहा, उसे जीवन में उतारा। यह भी एक बड़ा तप ही है। शब्द-तप…आत्म-तप और वाणी-तप भी!