क्षमा शर्मा
कई बार ऐसा होता है कि एक ही किताब को आप कई-कई बार पढ़ते हैं। मगर मोह है कि छूटता नहीं। दृष्टिबाधितों पर प्रदीप सौरभ द्वारा लिखे ब्लाइंड स्ट्रीट उपन्यास के साथ भी यही हुआ।
इसमें इतने सारे चरित्र हैं, सब एक-दूसरे से अलग। अक्सर जब भी दृष्टिबाधितों के बारे में सोचते हैं तो हाय बेचारा कहकर दया दिखाते हैं। मगर लेखक बार-बार स्थापना करते हैं कि इन्हें किसी की दया और बेचारगी का भाव नहीं चाहिए। चाहिए तो बस यह कि इन्हें इनसान मानिए। मानवीय सम्बंधों की जो गरिमा होती है, उसमें जगह दीजिए।
कितने चरित्र हैं–मनीष, मुकेश, महेश, शिवतेज, पार्वती, बाबुल आदि। बेशक इनकी मुश्किलें हम से बिल्कुल अलग हैं। लेकिन सपने तो आम इनसान और हम- आप जैसे ही हैं। इन्हें माता-पिता और समाज का प्रेम चाहिए जो कि अक्सर नहीं मिलता है। शिक्षा चाहिए, जिसके साधन भी बहुत कम हैं। इन्हें दृष्टिहीनता के कारण सूरदास जैसा नाम नहीं चाहिए, जो अक्सर रख दिया जाता है। इन्हें भी ऐसी ही नौकरियां चाहिए जो न केवल इनका और यदि परिवार है, तो उसका भरण-पोषण कर सकें। इनके सपनों को भी नई उड़ान दे सके। आरक्षण ने इनकी थोड़ी- बहुत मदद की है। इनके दिल में भी प्रेम बसता है। सारे बंधन तोड़कर शादी भी करते हैं। जैसे कि मुकेश ने पल्लवी से की। लेकिन उसे फ्राड के चक्कर में जेल हो गई। पल्लवी के घर वाल उसे ले गए। एक अधेड़ से शादी तय कर दी। और पल्लवी ने आत्महत्या कर ली। इसी तरह मनीष, भारती सिन्हा से सम्बंध होने पर भी पुरानी दृष्टिबाधित मित्र पार्वती से शादी करना चाहता है, मगर वह इस ओर ध्यान नहीं देती।
ये लड़के अक्सर इस दुविधा में रहते हैं कि शादी किसी ठीक आंख वाली से करें या दृष्टिबाधित से। इसी तरह कोयल नाम की लड़की बाबुल नाम के दृष्टिहीन लड़के से प्रेम करती है, मगर बाबुल को विवेक के साथ कम्प्रोमाइजिंग सिच्युएशन में देखकर सोचती है कि इन आंखों ने ऐसा देखा ही क्यों और एक भयानक निर्णय लेती है।
ये भी समाज सेवा करना चाहते हैं। लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए उपन्यास के पात्र सरीन की तरह पदयात्रा करते हैं। महेश की तरह एनजीओज बनाकर पैसा कमाना चाहते हैं।
इन्हें भी बेइमानियां करना आता है। ये भी तरह-तरह की चालाकियां बरतते हैं। ऐसा न करें, तो जिएं भी कैसे। ये भी फ्लर्ट कर सकते हैं। इनमें भी होमोज और लेस्बियंस होते हैं। ये भी तरह-तरह के शोषण से गुजरते हैं। लड़कियों पर यह मार दोहरी है, एक तो लड़की ऊपर से दृष्टिबाधित। जिन संस्थाओं को इनकी मदद के लिए बनाया जाता है, वहां भी शोषण से कोई मुक्ति नहीं होती। इसीलिए इनमें भी सरकारों, राजनीतिक दलों और समाज के प्रति बेहद शिकायतें जगती हैं। कुल मिलाकर इनकी सारी खूबियां और कमियां हम सब जैसी ही हैं।
प्रदीप सौरभ की नजर इनकी मामूली-सी बातों को भी पकड़ती है। लेखक हाय-हाय करने वाली भावुकता के मुकाबले इनकी तमाम तरह की समस्याओं को सामने लाते हैं। इसीलिए इसे बार-बार पढ़ने का मन करता है।
पुस्तक : ब्लाइंड स्ट्रीट लेखक : प्रदीप सौरभ प्रकाशक : नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 191 मूल्य : रु. 250.