सत्यवीर नाहड़िया
आज़ादी के अमृत महोत्सव के दौरान कृतज्ञ राष्ट्र ने अपने स्वतंत्रता सेनानियों तथा शहीदों का भावपूर्ण स्मरण किया है। इनमें कुछ स्वतंत्रता सेनानी ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने कलम के जरिये आज़ादी की अलख जगायी। हिंदी पत्रकारिता के मसीहा तथा हिंदी गद्य के जनक कहे जाने वाले हरियाणा गौरव स्व. बाबू बालमुकुंद गुप्त इसी श्रेणी में आते हैं। ‘भारतेंदु युग के सेनापति’ गुप्त जी को आज भी राष्ट्रीयता के अग्रदूत के रूप में याद किया जाता है। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को हिंदी पत्रकारिता, भाषा एवं साहित्य के अलावा स्वतंत्रता आंदोलन में भी बेहद अहम माना जाता है।
बाबू बालमुकुंद गुप्त का जन्म विक्रम संवतzwj;् 1922 के कार्तिक मास की शुक्लपक्ष चतुर्थी यानी 23 अक्तूबर, 1865 को हुआ किंतु उनके पौत्र हरिकृष्ण गुप्त उनकी जन्मतिथि 14 नवंबर, 1865 बताते रहे हैं। वर्तमान रेवाड़ी जिले के गांव गुड़ियानी में लाला पूरणमल के घर जन्मे बालक बालमुकुंद गुप्त की माता का नाम राधा देवी था। तीन बहनों तथा दो भाइयों के परिवार में बालमुकुंद ने विकट परिस्थितियों के चलते परिवार को संभाला, भाई-बहनों को पढ़ाया तथा खुद भी पढ़े।
1875 में राकिम स्कूल में दाखिला लेने वाले बालमुकुंद बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि रहे। किंतु 15 वर्ष की आयु में पहले पिता व फिर दादा के निधन के चलते बालमुकुंद को पढ़ाई छोड़ कर पैतृक बही-खाते उठाने पड़े।
वर्ष 1880 में उनका विवाह रेवाड़ी वासी गंगा प्रसाद की बेटी अनार देवी से हुआ। बालमुकुंद ने अपनी पढ़ाई जारी रखी व तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में ‘शाद’ नाम से लिखने लगे। बीएम ‘शाद’ के नाम से उनकी पहली रचना 1884 में उर्दू के तत्कालीन समाचारपत्र ‘अवध-पंच’ में प्रकाशित हुई। उन्होंने झज्जरवासी पंडित दीनदयालु शर्मा के संपादन में प्रकाशित होने वाले उर्दू पत्र ‘मथुरा अखबार’ के लिए लेख लिखे व संपादन में सहयोग किया। उन्होंने 1886 में मिडल पास की।
फिर पत्रकारिता में पदार्पण करने का मन बनाकर, उन्होंने उ.प्र. के चुनार से प्रकाशित होने वाले ‘अखबारे चुनार’ से नई पारी की शुरुआत की। 1888 में वे लाहौर से प्रकाशित होने वाले उर्दू अखबार ‘कोहिनूर’ के संपादक बने।
इस दौरान अनेक विद्वानों एवं संपादकों ने उन्हें हिंदी में लिखने के लिए भी आग्रह किया, जिनमें मेरठ के विद्वान गौरी दत्त शर्मा तथा महामना मदन मोहन मालवीय के नाम उल्लेखनीय हैं। मालवीय जी उन्हें अपने पत्र ‘हिंदोस्थान’ में कालाकांकर ले गए। उन्होंने हिंदी में पहली कविता ‘भैंस का स्वर्ग’ लिखी। सरकार के ख़िलाफ़ सख़्त लिखने के कारण उन्हें हिंदोस्थान छोड़ना पड़ा। आगे चलकर 1893 में वे हिंदी बंगवासी के सह-संपादक बने। 16 जनवरी, 1899 को उन्होंने कोलकाता के भारतमित्र के संपादक का कार्यभार संभाला जहां निर्भीक पत्रकारिता की। शिवशंभू के चिट्ठे सरीखे स्तंभ से लॉर्ड कर्ज़न को फटकार लगाते हुए नवजागरण की अलख जगाई।
वर्ष 1907 में अगस्त माह में गंभीर बीमार हो गये। 14 सितंबर को दिल्ली पहुंचे व इलाज करवाने को रुके जहां 18 सितंबर, 1907 को राष्ट्रीयता के इस अग्रदूत ने अंतिम सांस ली। मात्र 42 वर्ष की आयु में गुप्त जी ने साहित्य, पत्रकारिता एवं भाषा के क्षेत्र में स्मरणीय मानक स्थापित किए।
उनके निधन के नब्बे वर्षों बाद तक उनकी जन्मस्थली गुड़ियानी स्थित पैतृक हवेली पर ताला लगा रहा। इसमें रखा उनका अनमोल साहित्य व पांडुलिपियां आदि दीमक की भेंट चढ़ गए। फिर परिषद् के संरक्षण में ‘बाबूजी का भारतमित्र’ नामक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। उनकी स्मृति से जुड़े रचनात्मक अभियानों में दैनिक ट्रिब्यून के वर्तमान संपादक नरेश कौशल, पूर्व संपादक विजय सहगल व हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. चंद्र त्रिखा की सक्रिय भूमिका रही।
बाबू बालमुकुंद गुप्त पत्रकारिता एवं साहित्य संरक्षण परिषद्, रेवाड़ी प्रतिवर्ष उनकी पुण्यतिथि तथा जयंती पर साहित्यिक आयोजनों विचार गोष्ठी, पुस्तक मेले, हवेली दर्शन, कवि सम्मेलन, पुस्तक चर्चा, बाबू बालमुकुंद गुप्त पुरस्कार आदि के माध्यम से उनका स्मरण करती है। गुप्तजी के नाम से अकादमी पुरस्कार, गुड़ियानी स्कूल का नामकरण, मीरपुर (रेवाड़ी) स्थित इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय में उनकी पीठ की स्थापना, आदि कार्य संपन्न हो चुके हैं। पैतृक हवेली में ई-लाइब्रेरी खोलने का कार्य चल रहा है। हिंदी पत्रकारिता, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में गुप्त जी के विराट व्यक्तित्व को देखते हुए अभी उन पर बहुत कुछ होना बाकी है।