स्नेह गोस्वामी
बिमला को इस महानगर में आए हुए पूरे नौ साल हो गये हैं। गांव में तो उसका कोई नाम ही नहीं था। सब उसे चंपक की कनिया कह कर ही बुलाते। मायके में सब उसे केसर की बिटिया कहते। अकेली माई ही कभी-कभी विंती पुकार लेती। इस शहर ने उसे एक पहचान दी है बिमला। और इस नाम के चलते उसे लगने लगा है कि वह भी चौरासी लाख जून भुगत के इनसान की जून में आ गयी है।
जहां उसका डेरा है, वह है महानगर की हाईवे सड़क। आठ लंबी चौड़ी सड़कें साथ-साथ लेटी हुई हैं। सामने फ्लाईओवर का उतार है। उतार से कुछ पहले ही एक बड़े से खाली मैदान में कुछ अधकच्ची, अधपक्की झुग्गियां बनी हैं। कुछ तो चिकनी मिट्टी और गोबर के लेप से पुती सजी-संवरी खड़ी हैं। कुछ पेड़ की टहनियों और मोमजामे के टुकड़ों से बनी हैं। ये वे लोग हैं जो पिछले तीन-चार साल में गांवों से रोजी-रोटी की तलाश में इस शहर में आए थे। सामान के नाम पर इनके पास हैं थोड़े से बर्तन, दो-चार रंग उड़ी घिसी चद्दरें, एक-दो घी के खाली कनस्तरों को ढक्कन लगवा कर बनाई पेटी, एक-आध कनस्तर, दो-चार कपड़े लत्ते और एक अदद फोल्डिंग चारपाई। कुल इतनी ही जमा पूंजी के सहारे इनकी सात-आठ सदस्यों वाली गृहस्थी चल रही है।
जो पिछले आठ-नौ साल से यहां आ बसे हैं, वे इसी झोपड़पट्टी के पास बने डेरों में रहते हैं, बाकायदा किराया देकर। इन डेरों में चारदीवारी के भीतर एल शेप में बने हैं दस से बारह कमरे। हर कमरे पर सीमेंट की चादरों की छत है। फर्श के नाम पर ईंटें बिछी हैं। हर कमरे के बाहर मिट्टी का चूल्हा बना है। आंगन के एक तरफ हाथ नल लगा है। इसी के नीचे ये लोग नहा-धो लेते हैं। इसी नल का पानी पीने और खाना पकाने के काम आता है। दिन-रात कोई न कोई पानी खींच रहा होता है तो एक अदद नाली बन गयी है, जिसकी कीचड़ भरी तली में मच्छर और दूसरे कीट कुलबुलाते रहते हैं। वैसे सड़क किनारे सरकारी नल भी है पर वहां झुग्गी वालों को ही पानी कम हो जाता है। हर रोज कोई न कोई पानी के लिए लड़ रहा होता है।
वैसे परेशानी इन घेरे हुए डेरों में भी कम नहीं है। जिस डेरे में बिमला रहती है, उसमें भी दस कमरे हैं। इन दस कमरों में से सात कमरों में सात परिवार रहते हैं और किसी परिवार के सदस्य पांच-छह से कम नहीं हैं। ये सभी सदस्य अपनी सामर्थ्य से कहीं अधिक काम करते हैं ताकि गुजारा हो सके। बाकी तीन कमरों में बीस-बीस लोग रहते हैं। कुछ दिन में मजदूरी करते हैं या रिक्शा चलाते हैं तो बाकी रात में चौकीदारी करते हैं या रिक्शा चलाते हैं। कमरे का दो हजार किराया बंट कर दो सौ हो जाता है। इस तरह हर समय दस आदमी यानी कि तीस मानस तो डेरे पर बने रहते हैं। और सुबह जब काम पर जाने के लिए यह लोग अपने-अपने कमरों और झुग्गियों से बाहर निकल सड़क किनारे खड़े होते हैं तो दो हजार से ऊपर की ये भीड़ छोटा बिहार ही लगती है।
औरतें और बच्चियां पास बनी कालोनी में झाड़ू-बर्तन कर लेती हैं। और बच्चे दिनभर कचरा बीन कर बोतलें, गत्ते जैसा सामान इकट्ठा कर शाम को कबाड़ी को बेच लेते हैं। कुल मिला कर संतोष से जी रहे हैं। सुख की बात ये कि गांव जैसी बेगार यहां काटनी नहीं पड़ती।
बिमला और उसकी दस साल की बेटी कजरी ने भी पास के पटेल नगर मोहल्ले में दस कोठी का काम पकड़ रखा है। सात कोठी का झाड़ू-पोछा, तीन कोठी में साथ में बर्तन भी। कुल मिलाकर मां-बेटी तेरह-चौदह हजार महीना कमा लेती थी। चंपक रात को रिक्शा चलाता है तो रिक्शा का किराया चुका कर पांच सौ तो कमा ही लेता था। तीन बालक और छोटी कारो आंगनबाड़ी जाते हैं। दो अक्खर पढ़ने के साथ कपड़े, जूते, किताब तो मिलती ही हैं, खिचड़ी, दलिया भी खाने को मिल जाता है। कभी-कभी किसी दिन किसी अमीर सेठ के बेटे का जन्मदिन हो तो समोसा या पेस्ट्री जैसा कुछ भी मिल जाता है।
सब कुछ मजे में चल रहा था। रोटी आराम से मिल रही थी कि सब कुछ उलट-पुलट हो गया। अचानक पीली कोठी वाली आंटीजी ने बताया कि कल से काम करने मत आना बिमला। कोरोना फैला है तो वह पल्लू मुंह में डाल हंसती रही थी–ये क्या नाम हुआ को रोना। रोना क्यूं। पर दो दिन में ही समझ आ गया कि बात इतनी सीधी न है। ये बीमारी तो सचमुच का रोना है। सारे घरों ने उन्हीं दो दिनों में उसे बुला कर हिसाब चुकता कर दिया था–कल से मत आना।
सड़क पर पुलिस की गाड़ियां अलग सायरन बजाती घूम रही थी। सड़क पर कोई चलता हुआ मिल जाता तो उसकी शामत आ जाती। पुलिस उठक-बैठक कराती। कान पकड़वाती। दहशत के मारे लोग घर के बाहर पैर न रखते।
लोग बीमार हो रहे थे। लोग सांस न आने से मर रहे थे। फैली महामारी ने चारों ओर हाहाकार मचा दी थी। हर तरफ दहशत और खौफ का माहौल बन गया था। ऊपर से सरकारी लाॅकडाउन। दुकानें, मिल, बाजार सब बंद। सड़कें सुनसान। रिक्शा ऑटो सब एक कोने में उदास खड़े थे। मजदूरों की मजदूरी छिन गयी। दिहाड़ी वालों की दिहाड़ी। आजकल सब मर्द बड़े नीम के पेड़ के नीचे ताश खेलते रहते हैं। जितनी देर जुआ खेलते हैं, उतनी देर उनकी हंसी और तीखी मिर्ची जैसी बातें पूरे आंगन में गूंजती है। बाजी उठते ही माहौल पर तनाव तन जाता है। जो जीत जाता है, वह सबके लिए मुर्गे और दारू का इंतजाम करता है। देर रात तक यह दावत चलती है, तब तक जब तक एक-आध हाथापाई न हो जाए। औरतें बच्चों समेत यह लीला देखती रहती हैं। जिसने टोका, उसका पिटना तय है। हर रोज एक न एक की ठुकाई पक्की। इसलिए कोई औरत अपने मर्द को नहीं टोकती। उन पर उदासी का तंबू तन गया है। काम के बिना पेट भरने का जुगाड़ कैसे हो।
पुरुष तो छुट्टियां मनाने के मूड में थे। जब से होश संभाला, तभी से खट रहे थे। अब मौका मिला है तो थोड़ा सांस ले लें। पर यह सिलसिला बहुत लंबा नहीं चल सका। भले ही दावत दूसरे के पैसों से उड़ाई जाती, पर पन्द्रह दिन में ही सब की जेबें खाली हो गयी। अब क्या हो। सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं ने भोजन, दवाएं, मास्क और रोजमर्रा की जरूरत की छोटी-छोटी चीजें बांटनी शुरू की। पर भूख, गरीबी और बेरोजगारी के मारे इन लोगों का न तन भरता, न मन। कुछ लोगों ने गांव लौटने का फैसला किया। शाम ढलने से पहले ही गट्ठरियां बांधी जाने लगीं। सब औरतें उदास मन से सामान समेट रही थी। बीच-बीच में अपने मन को तसल्ली के लिए पड़ोसन की टोह ले आती कि उसने कितना काम निपटाया। सिमली ने बिमला को हाथ पर हाथ धरे देखा तो चली आई।
जिज्जी, यूं क्यूं बैठी है, चलने का टैम तो होने वाला है। फेर लोग हल्ला मचान लगैंगे।
उठ जल्दी कर। ला मैं करवा दूं कुछ।
ना बहना। रहन दे। तू अपना करले।
ठीक है। जैसी तेरी मरजी।
बिमला की आंखों में वह दिन कौंध रहा था, जब वह ब्याही जा कर इकबालपुर आई थी। छोटा-सा गांव था। चार घर पण्डतों के, एक चौधरियों का, पांच घर सैनियों के और बाकी सब कामगर लोगों के थे। ये कामगर इन ऊंची जात वालों द्वारा अक्सर बुलवा लिए जाते। बदले में एक टाइम की रोटी-अचार की फांक और मट्ठा के साथ। बाकी दिन दिहाड़ी करते। चंपक भी और उसकी मां भी किसी के खेत में काम करते। बदले में जो मिलता,उससे एक टाइम की रोटी बड़ी मुश्किल से जुड़ती। चंपक के हमउम्र तीन-चार लड़के पंजाब मजदूरी को चले गये थे। जब भी गांव लौटते, उनका पहनावा और रंग ढंग देखकर गांव के लोग जल जाते। बढि़या नई चाल के कपड़े और नयी ढाल के बाल बनाए ये जब भी साल बाद छठ पूजने या होली पर घर आते, सब घरवालों के लिए ढेर सारी सौगातें लाते। चंपक को भी उन्होंने साथ चलने के लिए कहा पर बिमला ने सिर हिला दिया तो उस दिन चंपक का जाना कैंसिल हो गया।
एक दिन सुबह चंपक घर से काम से निकला ही था कि राह में मनन पाण्डे मिल गए। कहां जा रहा है चंपक भाई। अम्मा कै री थी अपनी लुगाई को एक-दो दिन भेज दे। अपनी कटोरी नैन गयी है किसी रिश्तेदार की शादी में, तीन दिन बाद मुड़ेगी। भाबी गेहूं पछोड़ कै पिसान कर देगी।
खेत जाना स्थगित कर वह घर लौट आया था। बिमला के नानुकर करने के बावजूद वह उसे पाण्डे के घर छोड़ आया था। अम्मा उसके इंतजार में चारपाई पर बैठी थी।
कनिया यूं कर। टोकरा उठा और अंदर से गेहूं निकाल ला।
उसने चुपचाप एक टोकरा गेहूं निकाल कर आंगन में ढेरी किए और दूसरा टोकरा लाने अंदर गयी। अभी वह झुकी ही थी कि किसी के मजबूत हाथों ने उसे दबोच लिया।
बाहर अम्मा बैठी है, चिल्लाऊं।
ठीक है फिर खेत में आ जाइयो और वह शरारती आंखों से देखता हुआ अंधेरे में अलोप हो गया।
कितनी देर तक वह अपनी ही धड़कन सुनती रही थी। फिर हिम्मत करके बाहर आई। गेहूं साफ करते हुए वह सभी संभावनाओं के बारे में सोचती रही। घर जाकर पति को बताए पर वह अपने नपुंसक क्रोध से इस अमीरजादे का क्या बिगाड़ लेगा। थाना, पंचायत, कचहरी सब अमीरों के साथ है। सास को बताए। वह तो बेटे को ही बताएगी। लगा बुझाके पिटवा और देगी। यहां इस बुढि़या को बताया तो अभी चिल्ला के उसी को दोषी ठहराएगी। सुना है, एक बार कोई औरत इन नवाबजादों की नजर में चढ़ गयी तो बचना नामुमकिन है। सभी हथकंडे आजमा डालते हैं। इन्हीं सोचो में सारे गेहूं साफ हो गए तो हाथ धो कर वह खड़ी हो गयी।
ले अम्मा ये तो हो गया। बाकी काम कल करूंगी। अभी मेरे घर का सारा काम बाकी पड़ा है।
और उत्तर का इंतजार किए बिना वह चली आई।
शाम को चंपक घर आया तो रोटी परोसते उसने पूछा–वो तेरा दोस्त क्या कह रहा था शहर जाने कू, कब जाना है सहर।
आज रात दो बजे की गाड़ी से जा रहा है। बता रहा था, वहां तीन-चार सौ रुपए रोज के दिहाड़ी के मिलते है।
चल फिर चलते हैं पर साथ में मैं भी चलूंगी। अकेले न जाने दूंगी। थोड़ा जम गए तो अम्मा को भी बुला लेंगे।
देख ले, शुरू-शुरू में बहुत मुश्किल होगी।
और वह एक पोटली और एक साल की बेटी को ले यहां लुधियाना आ गयी। एक महीना फुटपाथ पर सोए। फिर झुग्गी बना ली। साल बाद बेटा हुआ तो पोता देखने अम्मा भी आ गयी। बच्चों को अम्मा के हवाले कर वह तीन कोठी में काम करने लगी थी।
फिर धीरे-धीरे पैर जमते गये और पिछले तीन साल से वे डेरे में हैं। दस कोठी में काम कर रही है। बच्चे काम के साथ-साथ पढ़ भी लेंगे। हालात हमेशा ऐसे नहीं रहेंगे। को रोना का रोना जल्दी खत्म होगा और वह फिर से अपनी कोठियों में काम कर सकेगी। तब तक लंगर की रोटी बनाना क्या बुरा है। सेवा की सेवा हो जाएगी, दाल रोटी का प्रसाद भी मिल जाएगा। मजबूत मन से उसने गांव पैदल जाने का इरादा छोड़ दिया और दाल-चावल चढ़ाने के जुगाड़ में लग गयी।