फागुनी रंगों की शरारत : The Dainik Tribune

कहानी

फागुनी रंगों की शरारत

फागुनी रंगों की शरारत

चित्रांकन : संदीप जोशी

प्रकाश मनु

होली थी। खूब रंग-रंगीली, छैल-छबीली होली। और उसके मस्ती भरे रंगों की चमक जितनी खुशी और गोलू के चेहरे पर थी, उतनी ही मम्मी-पापा के चेहरे पर भी।

सुधाकर बाबू घर के आगे वाले बगीचे में गेंदा और गुलाब की क्यारियों के पास धीरे-धीरे टहल रहे थे। आह, फागुन में उनकी क्या रंगत, क्या खुशबू थी! जैसे फागुनी हवाओं से उन्होंने जमकर होली खेली हो, और अब शरमाकर मीठी हंसी बिखेर रहे हों।

गेंदा और गुलाब। उनके दोनों प्यारे फूल। वे आनंद में विभोर थे। शायद किसी नए फागुनी गीत की दो-एक पंक्तियां भी होंठों पर नाच रही थीं।

बीच-बीच में देख लेते कि खुशी और गोलू पूरे जोश से होली खेलने की तैयारी में जुटे हुए थे। उन्हें देख, मन में फागुन का रंग और गाढ़ा हो जाता।

अभी हवा में कुछ ठंडक थी। सुधाकर बाबू सोच रहे थे, थोड़ी धूप निकले तो मोहल्ले के मित्रों को गुलाल लगाकर होली का मजा लें। तब तक देवयानी को भी फुरसत मिल जाएगी। बरसों से नियम था। दोनों पति-पत्नी साथ-साथ निकलते थे मोहल्ले में होली खेलने। इस बहाने सबसे मिलना हो जाता।

हरा, पीला और गुलाबी—तीन रंगों के गुलाल की थैलियां उनके कुर्ते की जेब में फुदक रही थीं। उन्हीं से खेलते थे रंग। मित्रों को तिरंगा बनाने में मजा आता था।

पर बच्चों के जोश का तो क्या कहना! उन्हें तो कई दिनों बाद आज मौका मिला था मस्ती करने का, जिसका इंतजार न जाने वे कब से कर रहे थे। अपनी-अपनी बाल्टी और पिचकारी लेकर सब बाहर आ गए थे। एक-दूसरे पर ‘हा-हा, ही-ही, ठी-ठी-ठी...!’ करके रंग डाल रहे थे।

सुधाकर बाबू बगीचे से बच्चों की यह रंगीन खिल-खिल देख रहे थे और मुस्करा रहे थे।

इतने में सामने वाले घर में बालकनी से झांकती सात-आठ बरस की निक्की दिखाई पड़ी। उसके हाथ में रंग से भरा गुब्बारा था, जिससे फेंकने के लिए वह छिपी हुई नजरों से इधर-उधर देख रही थी। किसी बढ़िया शिकार की तलाश में थी।

गोलू ने नीचे से ही उस पर पिचकारी चलाई तो निक्की को मौका मिल गया। उसने झट गुब्बारा उस पर दे मारा। गुब्बारा फूट गया और गोलू रंग से एकदम सराबोर हो गया।

गोलू हंसा, ही-ही-ही, हा-हा-हा...! हंसते-हंसते वह एकदम लोटपोट हो गया।

और फिर हुआ वही, जिसका सुधाकर बाबू को डर था। अब बाकायदा गोलू की जिद शुरू हो चुकी थी, ‘सुन लो खुशी दीदी, मैं भी गुब्बारा लूंगा। गुब्बारे में भर-भरकर रंग डालूंगा। ...सुन लिया न! ...सुन लिया...?’

***

खुशी को मालूम था कि पापा को पसंद नहीं है कि दूर से गुब्बारा फेंककर रंग डाला जाए। उसने गोलू को समझाया, पर इतनी आसानी से मान जाए तो भला गोलू को गोलू कौन कहेगा?

‘अच्छा, चल, जाकर पापा से पैसे ले आ।’ खुशी ने दांव चला, ताकि गोलू पापा के पास जाए और पापा उसे अच्छी तरह समझा दें।

‘पर पापा ने न दिए तो? मेरी प्यारी बहन, तू ही लेकर आ जा ना!’ गोलू ने चापलूसी करते हुए कहा।

‘अच्छा चल, मैं भी चलती हूं तेरे साथ!’ खुशी हंसकर बोली। फिर पापा के पास जाकर कहा, ‘पापा... पापा, गोलू को पैसे चाहिए गुब्बारे के लिए।’

‘गुब्बारे...! क्यों भई?’ पापा ने चौंककर कहा, ‘गुब्बारे किसलिए...? गोलू बेटा, इससे तो किसी को नुकसान हो सकता है। होली तो हंसी-खुशी और प्यार का त्योहार है न!’

‘पापा, बिना गुब्बारे के मजा नहीं आता।’ गोलू ने लंबूतरा मुंह बनाकर कहा, ‘गुब्बारे से कितना अच्छा लगता है। बस, दूर से निशाना लगाकर फेंको, जैसे बम का गोला। ही-ही-ही...!’

गोलू को खुद अपनी बात पर ही हंसी आ गई थी।

सुधाकर बाबू ने प्यार से झिड़का, ‘अरे पागल, होली क्या लड़ाई का मैदान है? यह तो प्यार का त्योहार है। जिस पर रंग डालो, वह भी हंसे, तुम भी हंसो—तब मजा है होली का! हमारे जमाने में तो कोई एक-दूसरे पर गुब्बारे नहीं फोड़ता था। तो क्या हम होली का आनंद नहीं मनाते थे?’

‘अच्छा पापा, तो क्या आप भी बचपन में होली का हुड़दंग मचाते थे। खूब? ...ऐसे ही जैसे हम बाल्टी और पिचकारी लेकर बाहर सड़क पर निकल आए हैं।’ कहते-कहते गोलू की आंखें फैलती जा रही थीं।

‘और क्या? खूब रंग डालते थे, खूब हल्ला होता था। होली का पूरा कमाल और धमाल...! समझो, धरती तो क्या, पूरा आसमान ही रंग जाता था। ...हा-हा, हा-हा-हा...!’

सुधाकर बाबू जोरों से हंसे। फिर हंसते-हंसते बोले, ‘और भई गोलू महाराज, एक दिन तो बड़ा तमाशा ही हो गया। ऐसा कि बस पूछो ही मत।’ कहते-कहते वे रुक गए। बोले, ‘रहने दो, लंबी कहानी है। फिर कभी...!’

मगर खुशी ने जिद ठान ली, ‘एक दिन... क्या हुआ था? क्या हुआ था पापा एक दिन, बताओ ना?’

‘कहानी, कहानी...!’ गोलू उछलकर तालियां बजाने लगा। कहानी के चक्कर में वह गुब्बारा व पिचकारी दोनों भूल गया था।

***

अगले ही पल खुशी और गोलू दोनों पापा के बिल्कुल पास खिसक आए। दोनों ने बड़ी मनुहार करते हुए कहा, ‘सुनाओ ना पापा, किस्सा वही वाला...!’

‘उस दिन हुआ क्या था?’ गोलू ने आंखें गोल-गोल घुमाते हुए पूछा।

‘अरे, होना क्या था?’ सुधाकर बाबू बोले, ‘अच्छा चलो, सुन ही लो वह किस्सा।’ और फिर वे जैसे बचपन में ही पहुंच गए। सुर में आकर लगे सुनाने वह किस्सा :

हां तो बेटा गोलू, और खुशी बिटिया, सुन लो तुम भी! ...उस दिन हुआ ये कि मैं थोड़ा ज्यादा ही रंग में आ गया। बचपने का जोश। चारों तरफ होली का हुड़दंग था। ‘होली है, होली है...!’ हर तरफ बस यही आवाजें सुनाई देती थीं। और मैं कितना बड़ा था तब? बस, यह समझ लो खुशी बेटी, कि मैं तुम्हारी ही उम्र का था तब। पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ता था। तो होऊंगा कोई पांच-छह बरस का। थोड़ा जिद्दी भी था, एकदम गोलू की तरह। ...फिर उन दिनों होली के त्योहार की तो बात ही क्या थी। बड़े ही जोश-खरोश से मनाया जाता था।

और छोटी होली वाले दिन... यानी जिस रोज होलिका-दहन होता था, हमें रंग डालने की पूरी छूट मिल जाती थी। वह दिन पूरी तरह हमारी आजादी का दिन होता था। रंग की कई-कई बाल्टियां लग जाती थीं, तब भी हमें चैन नहीं पड़ता था। हमें लगता था, कोई हमारी गली से निकले और बिना रंग डलवाए सूखा ही निकल जाए, तो यह बड़ी शर्म की बात है।

कहते-कहते सुधाकर बाबू थोड़ा रुके। जैसे किसी पुरानी किताब के पन्ने पलट रहे हों। फिर एकाएक सुर में आ गए। हंसते-हंसते बोले—

तो भई, ऐसी ही छोटी होली वाले दिन का यह किस्सा है, जो मैं तुम्हें सुना रहा हूं। पूरा दिन यों ही हुड़दंग करते बीत गया था और अब शाम होने को थी। बाल्टी में थोड़ा ही रंग बाकी था। हम सोच रहे थे किसी पर डालें और फिर आज का यह रंगारंग प्रोग्राम बंद किया जाए।

इतने में खूब शानदार आसमानी सूट और बढ़िया जूते पहने, टाई लगाए एक लंबे-चौड़े, रोबदार शख्स दिखाई पड़े। चमचमाते जूते, खूब अकड़ भरी चाल! हम समझ गए, ये साथ वाली गली के मिस्टर खरैतीलाल हैं, जो किसी दफ्तर में काम करने जाते हैं। बड़े अफसर हैं।

उन्हें इस कदर शान और बेपरवाही से जाते देखकर टोली में मानो सन्नाटा-सा छा गया। सबने एक-दूसरे की ओर देखा, है किसी में हिम्मत इन पर रंग डालने की? सभी की हिम्मत जवाब दे रही थी। फिर सबने मेरी ओर देखा। मैं टोली का नायक जो ठहरा!

आखिर मैंने हिम्मत की। पूरी पिचकारी भरी और हलके कदमों से, चुपके-चुपके उनके पीछे हो लिया। जब थोड़ा उनके पास आ पहुंचा तो मैंने पूरी पिचकारी चला दी—छिर्र...छिर्-र्-र्- र...!

आहा, क्या देखने वाला दृश्य था! मगर खरैतीलाल...? पिचकारी की आवाज सुनकर पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं आया कि रंग उन्हीं पर डाला गया है। और फिर पता चला तो वे गुस्से में आग-बबूला हो गए।

वे बिजली की सी तेजी से पलटे और मेरे पीछे ऐसे दौड़े, जैसे अभी उठाकर पाताल में फेंक देंगे।

अब आगे-आगे मैं, पीछे-पीछे वो। ...भागते-भागते जैसे ही मैं घर की देहरी के पास आया, झट छलांग लगाकर एक ही बार में घर के अंदर जा पहुंचा।

मैं अब सुरक्षित घेरे में था। जैसे कोई राजा अपने किले की चारदीवारी के अंदर पहुंच गया हो।

मिस्टर खरैतीलाल ने भी मेरे पीछे भागते-भागते उसी तरह छलांग लगाने की कोशिश की, मगर वे जूते पहने हुए थे। फिर देहरी पर रंग भी बहुत सारा फैला हुआ था। वहां काफी गीलापन था। सो वे देहरी छलांगने के चक्कर में फिसले तो फिसलते ही चले गए।

अब तो उनके कोट-पेंट की हालत बुरी थी। जितना रंग हमने नहीं डाला था, उससे अधिक तो जमीन पर फिसलने से खुद-ब-खुद लग गया था। यानी मिस्टर खरैतीलाल ‘मल्टीकलर’ हो चुके थे। बेचारे...!

खैर, एक झटके के साथ वे उठे और फिर अंदर दौड़ पड़े। मेरी मां से शिकायत करते हुए बोले, ‘देख चाची, तेरे लाड़ले ने कैसी होली कर दी। पूरे सूट का सत्यानास...!’

इस पर मैंने बड़ी मासूमियत से कहा, ‘मां, मैंने तो जरा-सा ही रंग डाला था। ये हमारे चबूतरे पर फिसले तो फिसलते ही चले गए। खुद ही इतना सारा रंग लग गया।’

उनकी हालत देखकर मां को थोड़ी हंसी भी आ रही थी। पर गंभीर होकर बोलीं, ‘अरे खरैतीलाल, यह तो ठीक है कि बच्चों ने ठीक नहीं किया। मैं डांटूंगी इन्हें।...पर एक बात बता। ये तो बच्चे हैं, पर तूने कौन सी समझदारी दिखाई कि आज होली वाले दिन इतना बढ़िया और ड्राईक्लीन किया हुआ सूट पहनकर निकल आया बाहर...?’

खरैतीलाल बेचारे शर्मिंदा हो गए।

फिर मां ने मुझे भी समझाया, ‘बेटा, होली में झगड़ा किसी से नहीं करते। यह तो प्यार बढ़ाने वाला त्योहार है।’ गलती समझ में आ गई और हमने अपना हुल्लड़ काफी कम कर लिया।

***

अगले दिन होली थी। हमने सुबह से अपनी पिचकारी और बाल्टी निकाल ली थी और हा-हा करते हुए मजे में रंगों से खेल रहे थे।

इतने में ही घर में बड़ों की टोली आई। उनमें मिस्टर खरैतीलाल भी थे। मुझे लगा, कहीं कुछ कह न दें, इसलिए मैं नंदू भैया के पीछे जा छिपा। मगर खरैतीलाल भी कम नहीं थे। उन्होंने देख लिया। जोर से आवाज लगाई, ‘कहां गया चंदर, इधर तो आ! कल तो बड़ा शेर बन रहा था। आज भाई के पीछे छिपा है?’

चुनौती मिली तो मुझे भी जोश आ गया। अपनी बाल्टी उठाकर लाया और पिचकारी भर-भरकर उन्हें रंगने लगा। तभी एकाएक खरैतीलाल बोले, “वो देख, तेरा दोस्त आ गया!’ मैं पीछे मुड़ा तो उन्होंने पूरी बाल्टी उठाई और मेरे सिर पर उलट दी। मैं रंगों में सराबोर हो गया तो एक साथ हंसी छूट निकली, मेरी भी, मिस्टर खरैतीलाल की भी।

इतने में मां भीतर से लड्डू, गुझिया और नमकीन लेकर आई। हमारी हालत देखकर उनकी भी हंसी छूट निकली। सबने खूब गुझिया खाईं। खूब हंसे, खिलखिलाए और गाने गाए! ...तो अब समझ लिया ना खुशी, यह थी हमारी होली। हमारे जमाने की सीधी-सादी होली...!

कहानी सुनकर गोलू चहक पड़ा। बोला, ‘पापा...पापा, आपकी बात समझ में आ गई। अब मैं गुब्बारे नहीं लूंगा। मेरी तो पिचकारी ही ठीक है। पिचकारी से रंग डालने में ज्यादा मजे आते हैं।’

कुछ देर बार खुशी और गोलू पिचकारी लेकर फिर उसी तरह रंगों से खेल रहे थे। सुधाकर बाबू और देवयानी दोनों छत से देख रहे थे। देख रहे थे और हंस रहे थे।

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