सुनो! सोनोवर : The Dainik Tribune

कहानी

सुनो! सोनोवर

सुनो! सोनोवर

चित्रांकन : संदीप जोशी

हरि मोहन

‘तुम्हारी आंखों में वैसी ही कशिश है, पहले वाली...’

‘कैसी?’

‘ठीक वैसी, जैसी दस साल पहले थी, बुलाती, बोलती, चुप्पी-सी... उमड़कर आती लहर-सी। जो देखने वाले के पास तक आते-आते ठिठक जाती है...’

‘कैसी बातें करते हैं आप?...’ कहने के साथ ही सोनाली ने अपना चेहरा विनय के सामने से दूसरी ओर फेर लिया। भीतर से उमंग भाव की लय बिखर गई। फिर विनय से कुछ भी नहीं बोला गया।

‘ऐसा मैंने कहा ही क्यों...?’ विनय पश्चाताप‍ में सीझने लगा। एक बार को खीझ भी हुई, लेकिन सोचने लगा खीझने से क्या होगा? अब जो है, सो है। इसे न बदला जा सकता है, न मिटाया जा सकता है।

कुछ महीने के अन्तराल के बाद उसने कोशिश की थी कि सोनाली के मन को बदलकर देखेगा। शायद कुछ बदलाव आ जाए। इसीलिए वह उसे लेकर यहां आया था। शिमला। उसे अच्छा लगा था कि वह आने के लिए तैयार हो गई थी, जिसकी उसे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। वह दो बार उसके ऐसे प्रस्तावों को किसी न किसी बहाने से ठुकरा चुकी थी। ऐसा व्यवहार यह क्यों करती है? विनय आज तक नहीं समझ पाया।

सितंबर के इस भरे-पूरे मौसम में खुशनुमा पहाड़ों के ऊपर खूब साफ और चमकीला आसमान बंधा है। कभी-कभी बादलों के कुछ हल्के और पारदर्शी टुकड़े आ जाते हैं। थोड़ी देर ठहरते हैं, फिर पता नहीं क्या सोचकर अपने आपको बांट देते हैं और इधर-उधर खो जाते हैं। वह उनको यों ही देखता रहता है, जैसे अपने भीतर उठते भावों को बिखरता देख रहा हो। रीती आंखों से। ‘रीती आखें... रीते बादल... रीता आकाश...। रिक्तता ही जैसे इस जीवन का स्थाई-भाव हो चुका है।’ वह सोचता है।

ऊपर आसमान पर टंगी उसकी खाली दृष्टि नीचे उतर आई। उसने एक बार फिर उस ओर देखा, जिस ओर सोनाली बैठी हुई थी, लेकिन सोनाली अब वहां नहीं थी। उसके बैठने की जगह खाली थी। जैसे किसी ने एक खूबसूरत चित्र को रबर से मिटा दिया हो। खाली वह उतनी जगह साफ दिखाई दे रही थी। उसे चिढ़ाती हुई-सी! सोनाली कब उठकर होटल के कमरे में चली गई, उसे पता नहीं चला। उसके भीतर कुछ शेष था, जो वह इस खालीपन को देखकर दरक गया।

‘क्या बात है, मूड क्यों ऑफ है?’ सोनाली ही बोली।

विनय ने सिर्फ सिर हिलाकर असहमति व्यक्त की।

वह बोलता भी क्या?

‘नाराज हो?’ मुस्कुराकर सोनाली ने विनय को छुआ।

‘...’ विनय ने अपने आपको ऊपर-ऊपर से छू जाने भर दिया।

‘जबरन मुस्कुराकर उसे छूती यह स्त्री एक पहेली है’ उसने सोचा और जैसे भीतर-ही-भीतर घायल होते हुए अपने आप से कहा, ‘कि कैसे बताऊं नाराज नहीं हूं, दुखी हूं कि अब नाराज नहीं हुआ जाता ...कि नाराज भी होऊं तो किस पर? क्यों और किस अधिकार से? ...कि नाराज और दुख में अन्तर होता है। ...कि तुम इस अन्तर को कभी नहीं समझोगी...।’

सोनाली अपनी जगह से उठी और बिना विनय की इच्छा पूछे ही उसने इंटरकॉम पर बैरे से दो कॉफी लाने का आर्डर दे दिया।

थोड़ी ही देर में कॉफी सामने थी। सोनाली कॉफी तैयार कर रही थी। उसने वैसी ही संक्षिप्त मुस्कान के साथ कॉफी का कप विनय के सामने रख दिया।

‘क्या सोचने लगे मियां?’ कहते हुए उसने विनय के गाल थपथपा दिए।

सोनाली के इस तरह मुस्कुरा कर देखने और कहने में न जाने क्या था कि विनय का सारा दुख पिघल गया। वह रोना चाहता था, लेकिन रो नहीं सका।

‘पता नहीं इस औरत में ऐसा कौन-सा जादू है कि रोता हुआ आदमी रो भी नहीं सकता और हंसने, प्यार करने की उत्कट इच्छा रखने वाला पुरुष आहत होकर रह जाता है।’ उसने ध्यान से सोनाली को देखा। जैसे नए सिरे से देख रहा हो। ‘शायद मैं ही इसे नहीं समझ सका हूं।’ उसने फिर सोचा। ऐसा वह अकेले में भी कई बार सोच चुका है।

बाहर हल्की-हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। इसीलिए चाहकर भी दोनों घूमने नहीं जा सके। लॉन में भी नहीं बैठा जा सकता था। इसलिए जल्दी खाना खाकर लेट गए।

नींद अंधेरे में छिपी चीजों की तरह थी। होते हुए भी, नहीं होती हुई। सोनाली जितनी पास और उतनी ही दूर।

‘सोना...’

‘...’

‘...’

‘सो गई...?’ एक अन्तराल के बाद फिर एक कोशिश।

‘...’ चुप्पी। वैसी ही निर्वात और लम्बी। और उस चुप्पी के भीतर से आती अपनी ही आवाज विनय ने सुनी। कमरे की दीवारें बोल रही थीं। सो जाओ, बहुत देर हो गई है। क्यों अपनी नींद खराब कर रहे हो। तुम अकेले हो। शापित, अजनबी, किसी और ही रास्ते के पथिक। किसी और ही दुनिया के प्राणी।

उसको प्रणय-बंधन में बंधे आठ साल हो गए थे। शुरू के चार-पांच साल तो बहुत अच्छी तरह गुजरे। सोनाली ने पूरे घर को सजाया-संवारा। हर बात का ध्यान रखा। खुद अपनी नौकरी जारी रखने की इच्छा व्यक्त की। विनय ने उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए उसे नौकरी करते रहने के लिए प्रोत्साहित किया। उसने अपने बिजनेस को सोनाली के परामर्श से आगे बढ़ाया। वह अपनी उपलब्धियों के पीछे सोनाली के अस्तित्व को मन में स्वीकार करता है, लेकिन पिछले दो सालों से सोनाली को न जाने क्या हो गया है? न ठीक से बर्ताव करती है, न उसकी सलाह पर ध्यान देती है। वह पूरी कोशिश करता है कि उसकी किसी बात से सोनाली को तकलीफ न हो। कोई बात बुरी न लगे। उसका मन आहत न हो। उसे ऐसा न लगे कि मैं अपनी इच्छाएं उस पर थोप रहा हूं।

कई बार विनय ने भी महसूस किया कि सोनाली उसका अतिरिक्त ध्यान रखने की कोशिश करती है। अपना व्यवहार संयत करने लगती है। ऐसे में दोनों के बीच एक अजीब-सी औपचारिकता आ जाती है। यह औपचारिकता बड़ी असहज लगने लगती है। नीरस और यांत्रिक।

***

उसे याद आ रहा है। सोनाली की कम्पनी का एक महत्वपूर्ण फंक्शन था। सोनाली की खुशी में शामिल होने के लिए विनय अपनी एक बहुत जरूरी बैठक छोड़कर पहुंचा था। वह सोनाली की उपलब्धियों पर हमेशा खुश होता था, बल्कि और बहुत कुछ करने के लिए उसे प्रोत्साहित किया करता था। सोनाली को उसकी कम्पनी ने सर्वोत्तम एक्जीक्यूटिव का पुरस्कार देने के लिए चुना था। जब कम्पनी के जनरल मैनेजर और एमडी ने उसे डायस पर पुकारा तो विनय की आंखों में खुशी के आंसू छलछला उठे। सोनाली का चेहरा एक अलग ही दीप्ति से दीप्त हो उठा था। सोनाली ने अब अपनी मम्मी के बराबर वाली सीट पर बैठे विनय की ओर मुस्कुराकर देखा तो उसकी काठ बनी आत्मा खिल उठी। मोमेंटो और फूलों का गुलदस्ता उसके हाथों में थमाकर सोनाली अपने सहकर्मियों की भीड़ में खो गई थी। उसने खुशी में छलछला आए आंसुओं को रोका नहीं। बह जाने दिया। रूमाल से नहीं, आंसू अपनी हथेलियों से पोंछे। उसकी लोकप्रियता पर, अपने सहकर्मियों में उसके प्रति सम्मान-भावना पर उसे गर्व हुआ था। शाम को बातों ही बातों में सोनाली ने एक सीधी-सी बात को घुमा-फिरा कर कहा। विनय चौंका। बात इतनी-सी थी कि विनय ने यों ही पूछ लिया कि दिनेश जी ने अपने मोबाइल में कई फोटो लिए थे। ‘नहीं तो।’ सोनाली ने तपाक‍् से कहा। फिर कुछ सोचकर कहा, ‘अरे! हां, वो ऐसा था कि जीएम के साथ मेरी एक फोटो लेनी थी।’ सोनाली ने संभलकर कहा। लगा जैसे कोई सफाई दे रही हो। सुनकर विनय जैसे बहुत गहरे में जा गिरा। आगे उसने न कुछ पूछा, न सुना। वह सोचने लगा, जब सुबह सोनाली बता रही थी कि कौन-कौन फंक्शन अटेंड करने जा रहे हैं तो उसने बहुत ही जल्दी में लगभग सभी के नाम बताए थे। दिनेश का नाम नहीं लिया था। उसने सारी व्यवस्था समझाई थी कि कौन किसकी गाड़ी से जाएगा। तब भी जिक्र नहीं किया था कि दिनेश की भी गाड़ी रहेगी और उसमें ये-ये लोग जाएंगे। फिर शाम को पार्टी के बाद वह उसके साथ निकल गई थी और बहुत देर बाद घर लौटी थी। तब तक वह सो चुका था।

‘नाराज हो?’ उसने पूछा था।

‘नहीं तो।’

‘क्या बात है?’ जबरन मुस्कान ओढ़ते हुए उसने अपने आपको हल्का बनाने की कोशिश की थी।

‘कुछ नहीं थकान हैं, नींद आ रही है...’ कहते हुए उसने करवट बदल ली थी।

वह सचमुच थक गया था। वह एक जरूरी मीटिंग को छोड़कर आया था, उसका मानसिक दबाव था।

विनय सोनाली को समझाना चाहता था, ‘सोनाली, मेरी बात ध्यान से सुनो। देखो मेरे मन में उस आदमी के प्रति कोई ऐसी-वैसी बात नहीं है। मुझे दुख इस बात का है कि तुमने स्पष्ट रूप से उस आदमी के बारे में कभी नहीं बताया। कभी नाम तक नहीं लिया। अरे, पगली, तुझे मुझ पर, अपने विनय पर, इतना भी भरोसा नहीं है?’

‘...’ सोनाली सिर्फ सुन रही थी। बोली कुछ नहीं।

‘हम प्रायः कोई बात, कोई नाम, कोई जगह दूसरों से तब छिपाते हैं, जब उस बात को खुद गलत समझते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि तुम गलत हो। ऐसा मैं बिल्कुल नहीं कह रहा। मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि तुम्हें उस आदमी के बारे में कभी तो मुझे बताना चाहिए था। परिचय करातीं। सीधे-सीधे उसका जिक्र करतीं। इसका मतलब यही हुआ न कि तुमको मुझ पर बिल्कुल भरोसा नहीं है।’ उसने दुख के साथ कहा। फिर जैसे भीतर-ही-भीतर वह विलाप कर उठा, ‘तुमने मुझे कभी समझा नहीं। इससे बड़ी अपमानजनक बात मेरे लिए और क्या होगी? एक पति अपनी पत्नी को अपना विश्वास तक न सौंप सका हो।’

‘...’ उधर फिर वही चुप्पी। अपने में बन्द।

‘...’ चुप्पी वैसी ही थी। तनी हुई। जैसे कहना चाहती हो, तुम पुरुष हमेशा से ईर्ष्यालु रहे हो। तुम्हारे दिमाग में तो बेकार की बातें भरी रहती हैं।

‘ऐसा कुछ नहीं है, जैसा तुम सोच रहे हो।’ उधर से इतना ही आया।

विनय जानता था सोनाली का यही जवाब होगा। वह या तो नाराज हो जाएगी या फिर कोई बहाना ढूंढ़ेगी। वह यह भी कह सकती है कि सुबह बताया तो था। जबकि उसे खूब याद है, एक-एक शब्द याद है कि उसने सुबह सब लोगों के नाम लिए थे कि ये-ये लोग फंक्शन में चलेंगे। पार्टी में ये-ये लोग रहेंगे। दिनेश का नाम उसने बिल्कुल नहीं लिया था। फिर भी उसने इतना ही कहा, ‘मैं ऐसा क्या सोच रहा हूं?’

‘यह तो तुम बेहतर जानते होंगे।’

‘देखो मैं फिर कहता हूं, मैंने न कभी कोई गलत बात तुम्हारे प्रति सोची और न अब सोच रहा हूं।’ उसे लगा मैं सफाई दे रहा हूं। कुछ ज्यादा ही दयनीय हो रहा हूं। मुझे इतना निरीह नहीं होना चाहिए।

‘...’ चुप्पी की बर्फ गिर रही थी। गिरती रही। नि:शब्द। एक ही लम्बी लय में।

रिश्ते बहुत कोमल होते हैं। विश्वास की नींव पर टिके। अगर विश्वास का आधार खिसक जाए तो रिश्तों की खूबसूरत इमारत ढह जाती है। एक साथ, भरभराकर गिर जाती है। उसके मलबे में स्मृतियों को ढूंढ़ते रहते हैं। रात बहुत देर तक वह न जाने क्या-क्या सोचता रहा।

इन्हीं सोच-विचारों के बीच विनय को नींद आ गई।

***

रात गहरी हुई तो विनय को नींद में एक सुखद अनुभूति हुई। उसे अनुभव हुआ कि उसके तप्त माथे पर सोनाली अपने होंठ रख रही है। उसे बहुत अच्छा लग रहा था, लेकिन वह गुस्से में था और नहीं चाह रहा था कि सोनाली ऐसा करे। स्वप्न में भी वह उससे नाराज था। धीरे-धीरे उसकी नींद खुली। आंखें मूंदकर वह यूं ही पड़ा रहा। देर तक, लेकिन उसका ध्यान गया, सोनाली तो इस कमरे में कहीं नहीं है। फिर? क्या वह सपना देख रहा था? उसने अपने आपसे पूछा। स्वयं ही उत्तर मिला, ‘पास की खिड़की खुली है। हो सकता है ठंडी हवा हो, जो मेरा माथा छूकर निकल गई हो’ विनय ने खिड़की के पार देखा। आसमान में पीला चांद टंगा था और खिड़की से झांककर उसकी ओर देख रहा था। चांद भी उसे अपनी ही तरह अकेला, उदास और बेचारा लगा। ‘बेचारा चांद’ विनय के भीतर से एक करुण आह निकली। यह करुण आह चांद के प्रति कम, अपने प्रति अधिक थी।

तभी उसकी दृष्टि कमरे के दरवाजे पर गई। देखा सोनाली खड़ी है। उसने काले रंग की नाइटी पहनी हुई थी। पारदर्शी नाइटी सोनाली की देहयष्टि को बांधकर नहीं रख पा रही थी। विनय की इच्छा तीव्र हो उठी कि सोनाली अभी उसके पास आकर बैठ जाए और सचमुच सोनाली धीरे-धीरे चलकर उसके पास आ गई।

अब वे दोनों थे। तटों की तरह बंधे। उनके बीच में एक आदिम और परिचित-सी नदी बह रही थी। जो बहुत पहले कहीं खो गई थी। नदी का बहाव तेज, और तेज, और तेज होता जा रहा था। तट प्रगाढ़तम बन्धन में बंधते चले गए। कितने ही क्षण, कितने ही घंटे, कितने ही दिन, कितने ही महीने, कितने ही वर्ष, कितने ही युग इसी तरह बीत गए। नदी का बहाव जब कुछ कम हुआ, तब विनय ने धीमे से कहा, ‘सोनाली, तुम सोनोवर हो। सोनोवर यानी जन्नत का पेड़। तुम्हारी छांव में मैं अपने सारे दुख, सारे ताप भूल जाता हूं। तुम ऐसी ही बनी रहो। बस...’ ऐसे उत्कृष्ट क्षणों में विनय के भीतर से यही शब्द निकलते हैं। बिना कुछ सोचे। अपने आप। अमृत और ऊर्जा से भरे। छलकते। बहकते। कहीं गहरे तक डूबी। सोच रही थी कि इस आदमी को समझना कितना कठिन है। इतना बड़ा हो गया फिर भी बच्चों-जैसा है। जिद्दी। रूठ जाने वाला फिर जल्दी ही मान जाने वाला। कभी-कभी उसे विनय के इस व्यवहार पर गुस्सा भी बहुत आता है। झुंझलाहट हो आती है। लेकिन वह ये सोचकर द्रवित हो उठती है कि बेचारे को कभी ममता नहीं मिली, प्यार नहीं मिला। मां बचपन में ही नहीं रही। पिता अपने कामों में व्यस्त रहे। मां-पिता की छाया से दूर रहकर पला-बढ़ा। हॉस्टल में रहकर पढ़ाई की। उसे विनय पर नए सिरे से प्यार उमड़ आया। वह उसे दुलारने लगी। जैसे वही उसकी मां हो।

दोनों की आंखें गीली थीं। वे एक-दूसरे के आंसू पोंछ रहे थे।

‘सुनो! सोनोवर... तुम मेरी हो...’ विनय ने सोनाली के सीने में अपने आपको अबोध शिशु की तरह सुरक्षा की कामना के साथ सौंपते हुए कहना चाहा। शब्द बहुत भीतर, मन के गहन अतल से एक साथ उठे थे। सोनाली ने अपनी हथेली धीरे से उसके होंठों पर रख दी। ‘...अब कुछ और नहीं...’ वह फुसफुसाई। वैसी ही गहनता में, जैसी गहनता विनय की अधीर, आकुल और करुण पुकार में थी।

सोनोवर की पत्तियां रह-रहकर विनय के माथे पर गिर रही थीं।

खिड़की बन्द थी। अकेला चांद पता नहीं अब किस घर की खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया होगा।

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