आलोक यात्री
डॉ. कुंअर बेचैन अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन उनके गीत, उनके शे’र, ग़ज़लें हिंदी साहित्य की वह विरासत हैं, जिन्हें आने वाली नस्लें शताब्दियों तक संजो कर रखेंगी। बीते कुछ वर्षों से डॉ. बेचैन भले ही कवियों की भीड़ का हिस्सा रहे हों, लेकिन मुझ जैसे लोगों ने, जिन्होंने उन्हें 40 साल पहले देखा और सुना हो, वह यह बात ठोक-बजा कर कह सकते हैं कि एक दौर था जब लोग कवि सम्मेलनों में डॉ. कुंवर बेचैन को सुनने जाते थे।
बुलंदशहर, अलीगढ़, बरेली, मुजफ्फरनगर, रामपुर, मुरादाबाद और ना जाने कहां-कहां। आखिरी बस में लटक कर उन दिनों हम लोग नुमाइश में होने वाले कवि सम्मेलन में इसलिए जाते थे कि डॉ. बेचैन को सुनना है। यूं तो डॉ. बेचैन 1965 से हमारे पड़ोसी थे। पांच घर छोड़ कर रहते थे। मेरी उम्र होगी 4 साल और उनकी बिटिया कविता की भी लगभग इतनी ही। जब तक दूर घर नहीं बना था तब तक पड़ोसी के नाते बेचैन साहब का परिवार सहित घर आना-जाना रहता था।
दस-ग्यारह साल की उम्र में उनका कविता संग्रह ‘पिन बहुत सारे’ हाथ में आया। बाल मन मस्तिष्क पर वह कविताएं ऐसी बैठीं कि आज तक उनकी अनुगूंज सुनाई दे रही है। पड़ोसी होने का सुख छूटने के बावजूद ‘पिन बहुत सारे’ के माध्यम से उन से जुड़ाव ऐसा बना कि किताब-दर-किताब उनसे वास्ता और मजबूत होता ही चला गया। पिता से. रा. यात्री के कथाकार होने के नाते मेरा कहानी से रिश्ता बन रहा था तो कविता से भी संबंध स्थापित हो रहा था। डॉ. बेचैन की कविता की सहजता सिर चढ़ कर बोलती थी।
साइंस की पढ़ाई बी.एससी. तक पहुंचती, इससे पहले ही उनके पांच संग्रहों ने हमारी शिक्षा की दिशा ही बदल दी। बी.ए. में दाखिला लेने सीधे उनके ही पास पहुंच गए। डॉक्टर साहब ने समझाया भी ‘बी.ए. में दाखिला लेकर करिअर बर्बाद मत करो’। लेकिन ‘जितनी दूर अधर से हंसना, जितनी दूर नयन से सपना, बिछवा जितनी दूर कुंवारे पांव से, उतनी दूर पिया तुम मेरे गांव से…’ जैसे गीत उनकी क्लास अटैंड करने का आमंत्रण देते थे।
वह जितने बड़े कवि थे, उतने ही श्रेष्ठ शिक्षक भी थे। निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर’ का उन्होंने क्या विश्लेषण किया था। उनके द्वारा किया गया विश्लेषण आज भी जेहन पर उसी शिद्दत से दस्तक देता है। पूरे तीन दिन व्याख्या चली थी क्लास में ‘वह तोड़ती पत्थर’ पर। सिलेबस में कहानी भी शामिल थी। डॉक्टर साहब ने कोर्स में शामिल वह कहानी पढ़कर सुनाई।
कहानी को न पल्ले पड़ना था, न पड़ी। कॉलेज से उनके घर तक के रास्ते में डॉक्टर साहब ने कहानी के तमाम पहलू खोल कर बताए। यह उन दिनों की बात है जब उनके घर पर हर शाम हम विद्यार्थियों का जमावड़ा लगता था। हम लोग बड़े फख्र से कहा करते थे ‘डॉ. कुंवर बेचैन’स क्लास’। डॉक्टर बेचैन की इस क्लास से निकले कई छात्र आज ऊंचे मुकाम पर हैं। इस क्लास में साहित्य के कई गूढ़ भेद खोले जाते थे। शायद इसी का नतीजा था कि उनका छात्र रहते हुए सारिका जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में मेरी कहानी प्रकाशित हुई तो विश्वविद्यालय का मोदी कला भारती सम्मान (कविता) भी मिला।
डॉ. कुंवर बेचैन किस कदर उदार थे, इसके लिए एक छोटा-सा उदाहरण ही काफी है। एक दिन वे कक्षा में काव्य दोष पढ़ा रहे थे। मैं सबसे आगे ही बैठा था। उनका एक-एक गीत, कविता और गजल मुझे कंठस्थ थी। मैंने उन्हीं में से तलाश कर काव्य दोष बता दिए। बता तो गया, लेकिन शर्मिंदगी का भाव भी साफ झलक रहा था।
क्लास के बाद डॉक्टर बेचैन मुझे घर के लिए साथ लेकर निकले। रास्ते में मुझसे पूछा ‘मेरे ही काव्य दोष क्यों गिनाए? तुम्हें लगता है यह काव्य दोष है?’
मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैंने कहा ‘गुरु जी आपके अलावा किसी को पढ़ते नहीं, पढ़ा भी नहीं, पढ़ा जाता भी नहीं…’
मेरे इस जवाब से वह खिलखिलाकर हंसते हुए बोले ‘यानी मुझे ही ओढ़ते-बिछाते हो तो किसी और के काव्य दोष कहां से गिनाओगे? इस साहस को जिंदा रखना… बहुत काम आएगा।’
गुरुवर का यह वाक्य आज याद आ रहा है। जब वह हमारे बीच नहीं हैं। इस आघात से मुक्त होने का साहस कहां से लाऊं? काश! यह भी वह बता कर जाते।