सुभाष पंत
सुबह जागते ही बहुत व्यस्त हो जाती है संतो। एक-एक करके सब मरीजों के पास जाकर उनके हालचाल पूछती है। उसकी आत्मीय मुस्कान में गजब की ताकत है। निबिड अंधकार में जैसे एक प्रकाश किरण।
‘रात कैसी तबीयत रही बाबूजी?’ लकवे के मरीज से पूछती है।
‘ठीक रही, वरना तुझे ही पुकारता बेटी।’
‘अच्छा थोड़ा पैर हिला-डुला दूं। कसरत से ही पैर पूरी हरकत में आएगा।’ और वह मरीज के ना करने के बावजूद उसके पैरों की कसरत कराने लगती है।
‘कैसे हो काका?’ वह दमे के मरीज से पूछती है।
‘दमा है, दम लेकर ही जाएगा।’ मरीज जवाब देता है।
‘कैसी बात कह रहे हो काका! थोड़ी देर ताजा हवा में बैठो। चलो, मैं बाहर छोड़ आती हूं।’
‘और तुम्हारा हाल बबुआ?’ ममता के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछती है।
‘ठीक है संतो दी…’
‘अच्छा, बता बबुआ। यह चाकू-छुरे का खेल क्यों खेला तुमने?’
‘क्या बताऊं? यह एक लम्बी कहानी है, संतो दी। तुम पहले मिल जाती तो ये खेल नहीं खेलता।’
बबुअा को कॉलेज के झगड़े में चाकू लगा था। जब वह अस्पताल लाया गया तो इतना रक्तस्राव हो रहा था कि बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। संतो ने रात-दिन एक कर दिया था उसके लिए।
‘गुड मॉर्निंग आंटी।’ विपुल बैड से कूदकर उसके पास आता है।
‘जाग गया रे विपुल। चल मंजन-वंजन कर। मैं तेरा नाश्ता तैयार करती हूं।’
पता नहीं कैसा बुखार है। मरा छोड़ता ही नहीं। मां किसी स्कूल में मास्टरनी है। पिता नहीं है। कितना दौड़ रही थी। घर, अस्पताल, स्कूल, बाजार। संतो ने ही उसे सहारा दिया था, ‘इतनी दौड़-भाग क्यों कर रही बहन जी। मैं हूं न मदद के लिए।’
एक-एक करके सब मरीजों की खोज-खबर लेती है। जिसे भी जैसी मदद की जरूरत होती है, उसकी वैसी मदद कर देती है। पचास मरीजों की गृहस्थी है उसकी। दम मारने की फुर्सत नहीं मिलती। चकरघिन्नी की तरह डोलती है।
पहले दौर का काम निपटाकर अनन्तु के पास लौटती है। उसे उस सुबह का इंतजार है, जिस सुबह अनन्तु के चेहरे पर जिंदगी में लौटने का विश्वास जागेगा। लेकिन वह पाती… अनन्तु तो और हार गया है। गीले कपड़े से उसका बदन पोंछकर उसे चम्मच से चाय पिलाती है। वह निःसंग भाव से चाय निगलता रहता है। पिलाते रहो, इनकार नहीं। रोक दो, मांग नहीं। बहुत निराश हो जाती है संतो। लेकिन अगले ही क्षण अपने को संभालती है। वही हार जाएगी तो सब कुछ गड़बड़ा जाएगा। उसे लड़ते रहना है और अपनी उम्मीद को जिंदा रखना है।
डाक्टर का राउंड होने पर वह फिर सतर्क हो जाती है। इसके साथ ही उसकी व्यस्तता का दूसरा दौर शुरू हो जाता है। राउंड के बाद नर्स की लिखी चिटें मरीजों के पास आती हैं। अधिकतर मरीजों की दवाइयां और अन्य जरूरत का सामान खरीद लाती है। उनके जूठे बर्तन मांजने, कपड़े धोने वगैरह के दीगर काम भी कर देती है। बदले में मरीज जो पैसा उसके हाथ में पकड़ा देते हैं, वही उसका आर्थिक आधार है, जिसके सहारे उसकी और अनंतु की गाड़ी खिंच रही है।
राउंड का काम निपटाने के बाद अनन्तु के बैड के नीचे से उसका स्टोव निकल आता है। वरांडे में स्टोव जलाकर अपना खाना बना लेती है। अस्पताल में खाना बनाने की मनाही है, लेकिन उसने सारी सांठगांठ भिड़ा रखी है।
दिन में भी उसे क्षणभर की फुर्सत नहीं मिलती। नर्सें भी सामान्य रूप से उसे आदेश दे देती हैं, ‘संतों, जरा फलां बैड के मरीज का ड्रिप देखती रहना। ये कम्बखत वार्ड ब्वाय पता नहीं कहां उगट जाते हैं।’
आवाज के साथ ही वह हाजिर हो जाती। बहुत अनुभव हो गया है उसे। मरीज की हालत और ट्यूब से उतरते ग्लूकोज-सेलाइन की गति देखते ही बता देती है, ड्रिप ठीक है या नहीं। अनाथ मरीज भी सहायता के लिए उसे ही पुकारते हैं। वह सिविल अस्पताल के जनरल वार्ड चौदह की जरूरत बन गई है। मानो वह सारे वार्ड में हर जगह है और सारा वार्ड उसके भीतर धड़क रहा है।
जब उसने पहली बार अनंतु के साथ यहां कदम रखा था तब वह भीतर तक दहल गई थी। मरीजों की चीखों और कराहों से उसका मन विचलित हो गया था। अनंतु को बेड पर लिटा दिया गया था। वह सिर दर्द से बेहाल था।
बहरे हैं क्या सब? उसने सोचा था। मरीजों के चीखने-चिल्लाने का किसी पर भी कोई असर नहीं होता…
अनन्तु ने पानी मांगा तो वह चौकन्नी हो गई। पानी के लिए कोई बर्तन तो वह लेकर आई नहीं थी। वह दौड़कर सिस्टर के पास पहुंची।
‘डाक्टरनी जी पानी के लिए कोई बर्तन मिल जाएगा?’
सिस्टर तुनक गई थी, कैसे-कैसे लोग चले आते हैं? ‘वह बोतल ले ले।’ ग्लूकोज की खाली बोतल की ओर इशारा करते हुए उसने कहा था।
बोतल लेकर वह गुसलखाने की ओर दौड़ी। नल में पानी नहीं था। ‘भाई जी, कहीं थोड़ा पानी मिल जाएगा।’ उसने बाहर निकलकर वार्ड ब्वाय से पूछा।
‘पानी तो यहां सुबह दो घंटे के लिए आता है। अस्पताल के बाहर सड़क का नल है, वहां टराई करके देख लो शायद…’ उसने कहा और सीटी बजाते हुए चला गया।
सड़क के नल ने खंखारने का सौजन्य भी नहीं दिखाया था। वह एकदम हारी हुई खाली हाथ लौटी थी।
एक मरीज अपने डगमगाते हाथों से अनंतु को पानी पिला रहा था।
मरीज के प्रति कृतज्ञ होने के बावजूद वह आभार प्रकट नहीं कर सकी और बेड पर झुक कर सिसकने लगी थी।
‘ऐसे नहीं हारते बेटी’ मरीज ने उसे दिलासा दी, ‘भगवान सब ठीक करेगा। मैं अपंग हो गया था। अब दो-चार कदम चल लेता हूं। हौसला छोड़ देता तो… हौसले में बहुत ताकत होती है।’
‘संतो,’ अनन्तु कराहा, ‘पता नहीं क्या टूट रहा मेरे भीतर…’
वह दौड़कर सिस्टर के पास गई थी, ‘डाक्टरनीजी मेरे आदमी की तबीयत ठीक नहीं… आप जरा देख लेतीं…’
सिस्टर झंुझला गई थी। ‘डाक्टर राउंड पर देखेगा। तुम्हारा आदमी ही अकेला बीमार नहीं है। ऐसा चाहती हो कि नर्स हर समय तिमारदारी में खड़ी रहे तो मरीज को किसी नर्सिंग होम में ले जाना था।’
वह चुपचाप वापस लौट कर अनन्तु का सिर सहलाने लगी थी।
‘क्या बात है बेटी?’ लकुए के मरीज ने पूछा था।
‘बड़े वाहियात लोग हैं। आदमी को तो कुछ समझते ही नहीं।’ वह भभक गई थी।
‘तुम जो जबान बोल रही हाे, ये इसे नहीं समझते। आदमी इनके लिए बटुवा है। रुपयों से भरा बटुवा या खाली बटुआ।
तब वह यहां के दमघोटू माहौल, आहों, खांसी, कराहों से भरी हवा और दवाइयों की महक से बुरी तरह घबरा गई थी। जैसे वह कत्लगाह हो। अब उसे अस्पताल, अस्पताल नहीं लगता, अपना घर लगता है।
ड्रिप समाप्त हो जाता तो वह फिर अनन्तु के पास आकर बैठ जाती है। क्या जीवट का आदमी था यह। कितना गठा हुआ शरीर। गांव की कितनी लड़कियां उसके सपने देखती थी, लेकिन उसकी आंखें जुड़ी तो उससे। वह उसे बल्लम और लाठियों के बीच गांव से शहर ले आया। उसके लिए उसने जात-बिरादरी की सारी दीवारें तोड़ दीं। घर, जमीन और पशुओं का मोह छोड़ दिया। उसे लेकर शहर आ गया और रिक्शा खींचने लगा। गजब का हौसला था उसमें। सारी चीजों को अपने पक्ष में बदल देने का हौसला। वह उसके सीने में सिर छुपा लेती तो लगता जैसे भटकती चिड़िया को बसेरा मिल गया।
सब कुछ ठीक चल रहा था। अभाव थे, लेकिन प्रेम के सामने वे बहुत बौने थे। एक दिन शाम को लौटा तो सिर टेककर बैठ गया। दर्द था। हर दिन दर्द रहने लगा तो उसने कहा डाक्टर को दिखा दें। वह टाल गया। बस, यही लापरवाही ले डूबी। दर्द बहुत बढ़ गया और एक रात वह बेहोश हो गया। वह उसे बेहोशी की हालत में अस्पताल लेकर आई थी।
विपुल ने पीछे से आकर उसकी आंखें बंद कर ली। उसके तपते हुए हाथों को महसूस करके वह कांप गई। ‘तू उछल-कूद क्यों मचा रहा। बुखार है। आराम नहीं करेगा तो कैसे ठीक होगा। तेरी मां को क्या जवाब दूंगी जो अपनी नौकरी के लिए तुझे मेरे भरोसे छोड़ जाती है।’
‘नींद नहीं आती आंटी।’
‘कहानी सुनकर सोएगा।’
‘कौन-सी कहानी सुनाओगी आंटी?’
‘शेर और मेमने की।’
‘ये तो मैं जानता हूं।’
‘राजा और उसके सात बेटे।’
‘ये भी सुनी हुई है आंटी।’
‘अलीबाबा चालीस चोर।’
‘ऊं हुं।’
‘बंदर और मगरमच्छ।’
‘नहीं, कोई नई कहानी सुनाओ आंटी।’
‘हां, सचमुच ये कहानियां पुरानी हो गई हैं’, वह कहती, ‘मैं तुझे नई कहानी सुनाऊंगी, लेकिन वो कहानी अभी अधूरी है। मालूम नहीं कैसे पूरी होगी। पूरी हो जाएगी, तब सुनाऊंगी।’
इसी बीच दमे के मरीज को दौरा पड़ जाता है। वह उसके पास दौड़ती है। बहुत लम्बी और लगातार खांसी है। सांस नहीं आ रही। हांफ रहा है। वह वार्ड ब्वाय को आक्सीजन सिलेन्डर के लिए आवाज लगाकर मरीज के सीने में मालिश करके सांस लेने में उसकी मदद करती है। मरीज का दौरा रुक जाता है और आंखें सामान्य होकर गड्ढों में वापस चली जाती हैं।
‘लगता है, आखरी वक्त आ गया।’ वह हांफते हुए कहता है, ‘एक बेटा था मेरा सत्ती। पांच साल पहले झगड़ा करके भाग गया। पता नहीं कहां होगा। कमबख्त ने कभी जीने नहीं दिया… अब चैन से मरने भी नहीं दे रहा…’
जितने मरीज हैं वार्ड में, उतनी कहानियां हैं। जितनी कहानियां है, उतने दुःख हैं। संतो अकेली है… लेकिन दुःखों की दुनिया में वह अकेली नहीं है… बहुत साथी हैं उसके।
चाय का छोकरा आ जाता है। उसके आते ही चारों ओर से चाय की फरमाइश शुरू हो जाती है। अस्पताल में चाय बहुत राहत की चीज है। चाय बांटकर वह संतों के पास आकर बैठ जाता है। एक गिलास चाय वह अनन्तु के लिए देता है और दूसरा गिलास संतो के लिए। हर दिन वह दो गिलास चाय उनके लिए निकाल लेता है। कान में खुसी बीड़ी निकालकर जलाता है।
‘अब कैसा है तेरा आदमी?’
‘क्या बताऊं भैया कोई फरक ही नहीं पड़ रहा।’
‘मूं पे पैसे नहीं मारेगी तो बस ऐसेई चलेगा। जैसे कोई लावारिस हो, सौ-दो सौ खरच कर…’
वह यहीं कमजोर पड़ जाती है। पता नहीं कैसी जुगाड़ करके तो वो जिन्दा है। इन्हें क्या मालूम आदमी की तकलीफें क्या होती हैं।
शाम हो जाती। मरीजों से मिलने के लिए शुभचिंतकों की आवाजाही शुरू हो जाती है। बीमार मानसिकता के बीच कुछ स्वस्थ आहटें सुनाई देने लगतीं और अस्पताल के माहौल, सूनेपन और मनहूसियत को झटककर फेंक देती। शामें ऐसी खिड़कियां हैं अस्पताल में, जिससे बाहर की दुनिया के रंग दिखाई पड़ते हैं। लेकिन संतो इस वक्त बहुत उदास हो जाती। उसका कोई भी नहीं है जो दुःख की घड़ियों में उससे दो बात कर सके। उसके लिए अस्पताल के बाहर शहर एक जंगल है और गांव कमान पर खिंचा विषभरा तीर है।
रात आती है तो उसके साथ गहरा सन्नाटा उतर आता है। नर्सों के चेहरे थक जाते हैं। मरीजों की खांसियां ज्यादा आतंकित करने लगती हैं और उनकी कराहें ज्यादा कारुणिक और बोझिल हो जाती हैं। खांसियां, कराहें, ऊंघती हुई रोशनियां और छत का बोझ उसके सीने पर पर उभर आता है। वह जमीन पर कम्बल बिछाकर सोने की कोशिश करती है, नींद नहीं आती। सारी जमा पंूजी अनन्तु की बीमारी चूस गई। सोचती रहती है, कल क्या होगा। हर दिन एक युद्ध लड़ रही है संतो। पता नहीं वह कितनी बार अस्पताल के चिपचिपे फर्श पर भूखी सोई है।
सहसा आशा की किरण फूट गई उसके हिए मैं। फिजीशियन की बदली हो गई। उसके स्थान पर जो डॉक्टर आया है वह बहुत गरीबपरवर है। डॉक्टर का अनन्तु पर विशेष ध्यान है। उसकी बहुत अच्छी तरह जांच करने के बाद कितनी तरह के पैथोलॉजिकल और रेडियोकल टैस्ट करवाने के लिए लिख दिया है डाक्टर ने।
‘मेरे आदमी को बचा लीजिए डॉक्टर साब।’ संतो करुणा विगलित प्रार्थना करती है।
‘मैं पूरी कोशिश करूंगा।’ डॉक्टर उसे आश्वस्त करता है।
इसके बाद अनन्तु को महत्व दिया जाने लगता है। उसके मल-मूत्र और रक्त का परीक्षण होता है। कई तरह के एक्स-रे होते हैं।
कई दिनों तक रिपोर्टों का अध्ययन करने और विशेषज्ञों की राय लेने के बाद डॉक्टर संतो को अपने चैम्बर में बुलाकर बहुत सहानुभूति के साथ उससे कहता है, ‘आपके पेशेंट को ब्रेन ट्यूमर है। खेद है उसका यहां इलाज संभव नहीं है। देर बहुत हो चुकी है, लेकिन मैं निराश नहीं हूं। आप पेशेंट को दिल्ली एम्स ले जायेंें। मैं आपके पेशेंट को डिस्चार्ज करता हूं और आपको सलाह देता हूं कि आप कतई वक्त न गंवाए। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।’
संतो को लगता है जैसे उसके सीने में दनदनाता हुआ घूंसा मार दिया गया है। वह चीखना चाहती है, ‘आप मुझे ऐसे नहीं निकाल सकते डॉक्टर साहब। यह अस्पताल अब मेरा घर है।’ लेकिन उसके गले से आवाज ही नहीं निकलती। वह मरी हुई चाल से वार्ड में वापस लौट पड़ती है। सोच रही है, कहां लेकर जाएगी वह अनन्तु को। अस्पताल के अलावा उसका कोई घर नहीं है। किराये के घर से तो मकान मालिक किराया न चुकाने के कारण पिछले महीने ही उसे बेदखल कर चुका है। लेकिन वार्ड तक पहुंचने पर वह पाती है, कुछ न होने के बाद भी ‘कुछ’ है उसके भीतर जो उसे हारने नहीं देता और कह रहा है, ‘हिम्मत कर संतो रास्ते खुद खुलेंगे।’
वह अपना सामान बांधती है तो मरीज उसे घेर लेते हैं।
‘इतना ही साथ था…’ वह रुंधे गले से कहती है, ‘अब दिल्ली जाना है।’
विपुल रोने लगता है, ‘आंटी तुम तो कह रही थी, कहानी सुनाऊंगी।’
‘मेरी कहानी अधूरी है अभी। पूरी हो जाएगी तो तुझे सुनाने आऊंगी विपुल।’
‘ये कुछ पैसे रख लो आंटी। लियो गन खरीदने के लिए जमा किए थे। मना मत करना। अब मुझे लियो गन नहीं खरीदनी।’
बबुअा की आंखें नम हो गई हैं। ‘ठीक होता संतो दी तो तुम्हें दिल्ली तक छोड़ आता। लेकिन… ये थोड़े पैसे रख लो… देखो, मना मत करना मेरा दिल टूट जाएगा।’
एक-एक करके सब मरीजों से मिलती है संतो। मना करने पर भी वे उसकी मुट्ठी में कुछ न कुछ थमा देते हैं…
वह अनन्तु को संभालकर तांगे में बैठ जाती है। तांगा चलता है। वह अपनी भीगी पलकें उठाकर देखती है। वार्ड के बारामदे में उसे विदा करने के िलए अनेक हाथ हिल रहे हैं। वह उन हिलते हुए हाथों को पहचानने की कोशिश करती है। दमे वाले काका का हांफता हुआ हाथ है… आहिस्ता-आहिस्ता हिलता हुआ लकुवा खाया हाथ है। ये रहा विपुल का तपता हुआ हाथ… और यह हाथ… यह हाथ… हिलते हुए हाथ धूमिल पड़ते हुए अदृश्य हो जाते हैं और नए घर की तलाश में दौड़ते घोड़े की टापें गूंजने लगती हैं…