सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
‘तिश्नगी’ शायर परविंदर ‘शोख’ का आठवां हिन्दी ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें 94 ग़ज़लियात व एक नज़्म की शुमारी है। इससे पहले वे सात मजमूआ-ए-ग़ज़ल’, ‘आगाज़’, ‘सफ़र’, ‘मंजि़लें’, ‘गुफ्तगू’, ‘मुहब्बत’, ‘तसव्वुर’ एवं ‘फ़ासिले’ अदब के नाम कर चुके हैं। ‘कभी तो शाद रहता है कभी बेज़ार रहता है/ मिरे अन्दर न जाने कौन-सा किरदार रहता है।’ यह इसी समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़ल का मतला है जो कि शायर ‘शोख’ साहिब की अदबी तबीअत पर ‘फिट’ बैठता है। उनके कलाम में ‘मुस्कान’ और ‘दर्द’ एक साथ करवट लेते हैं।
‘तिश्नगी’ की ग़ज़लियात में हुस्न की शोखियां, रअनाइयां, नज़ाकत, नफ़ासत, जफ़ा, वफ़ा तो रिश्तों की पेचीदगी, सामाजिक मसायल की उलझन, इंसानियत के रंग बदलते अन्दाज़ बख़्ाूबी देखने को मिलते हैं। ग़ौर फ़रमाएं :-
‘मुहब्बत जिस्म तक महदूद है अब/कहा दिल ‘शोख’ मिलते हैं दिलों से।’ ‘मंज़र तमाम शह्र के फिर खुशनुमा हुए/निकला मैं जब भी आप को आंखों में डाल कर।’
रिवायती ग़ज़ल की खुशबू तो जि़न्दगी के फ़लसफ़े की झलक के साथ गहरे तसव्वुरात का आईना है ‘तिश्नगी’। इस ग़ज़ल संग्रह में शामिल ग़ज़लियात के कुछ अश्आर का ‘लेबल’ बहुत उम्दा है, मगर चन्द इक ग़ज़लियात की शुमारी में ज़ल्दबाज़ी भी लगी। ‘तिश्नगी’ से गुज़रने के बाद तसल्ली होती है कि ‘ग़ज़ल’ को ‘ग़ज़ल’ की तरह से ही कहा गया है। इल्म-ए-अरूज़ की कसौटी पर खरी उतरती ‘शोख’ साहिब की ग़ज़लियात के भाव पाठकों के जि़ह्न में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहेंगे, ऐसा महसूस किया है।
पुस्तक : तिश्नगी शायर : परविंदर ‘शोख’ प्रकाशक : लोकगीत प्रकाशन, मोहाली पृष्ठ : 95 मूल्य : रु. 295.