
अरुण नैथानी
निस्संदेह, लोकतांत्रिक मूल्यों के दमन और प्रताड़नाओं भरा आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का ऐसा कालंखड है जिसका समग्र विवेचन अभी बाकी है। इस बारे में खूब लिखा गया लेकिन वैचारिक प्रतिबद्धताओं और नीर-क्षीर विवेक के अभाव में स्याह सच हर बार नयी व्याख्या की जरूरत महसूस करता रहा। लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये प्राणपण से संघर्ष करने वाले अनेक योद्धाओं के योगदान का मूल्यांकन होना अभी शेष था। इस कमी को पूरा करने का प्रयास किया गया है, प्रभात प्रकाशन की हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘कैसे भूलें आपातकाल का दंश- शुभ्र ज्योत्स्ना’ में। इतिहास की उद्वेलित करने वाली घटनाओं पर पैनी निगाह रखने वाले साहित्यकार डॉ. चंद्र त्रिखा,डॉ.अशोक गर्ग तथा सुभाष आहूजा की त्रय जोड़ी ने आपातकाल के कुछ भूले-बिसरे लोकतंत्र के योद्धाओं से रू-ब-रू कराया है। ग्रंथ रूप में प्रकाशित पुस्तक में काले दौर के दस्तावेज चित्रों, प्रमाणिक दस्तावेजों, काल-कोठरियों, त्रासद समय में सृजित साहित्य तथा आंदोलन के अग्रदूतों के भाषणों से कालखंड का जीवंत चित्र उकेरने का प्रयास किया गया है।
पुस्तक ‘कैसे भूलें आपातकाल का दंश - शुभ्र ज्योत्स्ना’ को बारह अध्यायों में बांटा गया है। पहले चार अध्यायों में आपातकाल की इबारत, मीडिया परिदृश्य, हरियाणा में समांतर प्रचार व्यवस्था तथा शुभ्र ज्योत्स्ना की प्रथम किरणें तत्कालीन परिदृश्य का जीवंत चित्रण है। पांचवें अध्याय में आपातकाल के उन महानायकों का विस्तृत उल्लेख है जो उस दौर में सत्ता की निरंकुशता तथा दमन के खिलाफ सिर पर कफन बांध लोकतंत्र-रक्षा के लिये लड़े जा रहे जन-रण में उतरे थे। इसमें समग्र क्रांति के महानायक लोकनायक जयप्रकाश नारायण, नानाजी देशमुख, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, बालासाहेब देवरस, जॉर्ज फर्नांडिज,चंद्रशेखर, डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी, रामनाथ गोयनका, पीलू मोदी, अशोक मेहता, प्रो. समर गुहा, सिकंदर बख्त,बीजू पटनायक, मधु दंडवते, माधवराव मूले, चौधरी देवीलाल, डॉ. मंगल सेन, प्रकाश सिंह बादल जैसे जीवट वाले नेताओं के जीवन व संघर्ष का दस्तावेजी विवरण शामिल है। इसी तरह अन्य अध्यायों में आजादी की दूसरी लड़ाई कहे जाने वाले इस महासमर में लोकतंत्र के सेनानियों के जज्बे, संघर्ष, मीडिया की सक्रिय भूमिका, गोपनीय ढंग से चलाये गये आंदोलन तथा क्रूर दमन का विस्तृत वर्णन है।
पुस्तक के खंड सात में सृजन के सेनानियों द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों की पक्षधरता वाला साहित्य विद्यमान है। वह साहित्य जो लोकतांत्रिक मूल्यों की पुरजोर वकालत करता है। जिसमें रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की बहुचर्चित कविता- ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’ जो कालांतर लोकतंत्र की आजादी के दीवानों का मंत्र बन गया था। इसी तरह भवानी प्रसाद मिश्र की रचनाएं, धर्मवीर भारती की ‘मुनादी’, दुष्यंत कुमार की ‘साये में धूप’ तथा अटल बिहारी वाजपेयी, विश्वमोहन की कविताएं व विचारोत्तेजक लेख शामिल हैं। पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आपातकाल के खिलाफ लड़ाई का विस्तृत विवेचन शामिल है। पुस्तक बताती है 1971 के युद्ध में शिखर की सफलता के बाद दुर्गा कहे जाने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री कैसे निरंकुश साम्राज्ञी बन गई और कैसे निरंकुशता के बीच दमन, भ्रष्टाचार व लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन का दौर शुरू हुआ।
पुस्तक : कैसे भूलें आपातकाल का दंश - शुभ्र ज्योत्स्ना संपादक : डॉ. चंद्र त्रिखा, डॉ. अशोक गर्ग तथा सुभाष आहूजा प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 328 मूल्य : रु. 900.
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