प्रगति गुप्ता
समय की शिलाओं से निरंतर युद्ध करने वाले व्यक्तित्व समाज में विद्यमान विसंगतियों को न सिर्फ अवलोकित करते हैं, बल्कि वह स्वयं से संवाद करते हुए सोच-विचारों में भी गहरे उतरते चले जाते हैं। भावों और संवेदनाओं को छू पाने की उनकी क्षमता, समाज में विद्यमान सूक्ष्म विषमताओं के विश्लेषण करने में सहायक बनती है। ‘अधखिली धूप’ कुछ ऐसी ही अभिव्यक्तियों से जुड़ा संग्रह है जो हल्की-हल्की कुनकुनी गर्मी-सा अनुभव देती है। साथ ही आशाओं की किरणों-सा उदास मनों में नव श्वासों का संचार करती हैं।
‘तिमिर से लड़ने को/ उम्मीद के दीपक जगमगाए हैं/ मरने से पहले क्यों मरूं? ज़िंदगी से पलायन क्यों करूं?…’
कवयित्री की रचनाओं में आशाओं के स्वर सकारात्मकता के भाव जगाते हैं।
‘चलो आज जी भर के/ मुस्कुराते हैं/ ख्वाबों का महल बनाते हैं….
ज़िंदगी में खुशियों के रंग भर लेंगे/बुरे वक्त को अब/ कभी नहीं वक्त देंगे….’
एक ओर ‘चाह’ कविता सुंदर भावों से जुड़ा सृजन है दूसरी ओर ‘कब्रिस्तान’ कविता की अर्थपूर्ण पंक्तियां गूढ़ता संजोये हैं….
‘यह खामोशी कभी-कभी टूटती है/ जब किसी की सांसों की डोर टूटती हैं/ …मुझमें एक खामोशी तारी हो रही है, क़ब्रिस्तान सी।’
प्रेम से जुड़ा हुआ सृजन अभिव्यक्तियों में गहराई व विविधता देता है। निश्चल मन हमेशा प्रेम की ओर आकर्षित होता है। तभी समाज में विद्यमान विभिन्न रिश्ते-नातों और संबंधों में इसकी खोज की जाती है। प्रेम के बगैर जुड़ाव व कर्तव्यबोध संभव नहीं है।
‘कितने ही अकेले हो/ कितने ही झमेले हो/ मिटने नहीं देंगे आपसी विश्वास/ देखो! सिमट रहे हैं वो पास-पास…’
‘मिलन की घड़ी/ बहुत छोटी क्यों होती है/ ज़िंदगी किसी की याद क्यों ढोती है?’
‘सूना आंगन’ कविता में रिश्तों के छूटने का दर्द बखूबी उतरा है।
‘तीज तो हर साल आती है/पर सूनी सी रह जाती है/ घर के सूने से आंगन में/ सब रिश्तों की याद बहुत सताती है।’
घरौंदा मिट्टी का, मां, एक-सी कहानी, अस्मत, नई सुबह, आहट, दीवाना, पुलिस की व्यथा, खाक़ी, संकल्प, न्याय कि गुहार पठनीय सृजन है। संग्रह में आमजन रक्षक पुलिस पर कई अच्छी कविताएं रची गई हैं।
छोटी-छोटी कविताओं में कवयित्री ने निश्चल से भावों को उतारने की कोशिश की है।
पुस्तक : अधखिली धूप कवयित्री : डॉ. राजश्री सिंह प्रकाशक : संस्मय प्रकाशन, इंदौर पृष्ठ : 120 मूल्य : रु. 300.