
अरुण नैथानी
दिल्ली की एक अनाम जगह से उपजे एक लोकतांत्रिक व शांतिपूर्ण आंदोलन ने जिस तरह देश-दुनिया का ध्यान खींचा, उसने शाहीन बाग अभियान की सार्थकता ही स्थापित हुई। बच्चों से लेकर उम्रदराज महिलाओं तक ने जिस तरह सत्तारूढ़ दल की रीति-नीतियों का विरोध किया, उसने देश में एक परिपक्व-जीवंत लोकतंत्र का परिदृश्य ही उजागर किया। डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर व संस्कृति कर्मी भाषा सिंह की पुस्तक ‘शाहीन बाग-लोकतंत्र की नई करवट’ इसी आंदोलन को लेकर है।
दरअसल, पंद्रह दिसंबर, 2019 से शुरू होकर चौबीस मार्च, 2020 तक चले इस आंदोलन ने जिस तरह सुनियोजित ढंग से सत्ताधीशों के खिलाफ प्रतिरोध व्यक्त किया, उसकी देश-दुनिया में चर्चा हुई। युवा ही नहीं, दादियां व नानियां भी इस मुहिम में शामिल रहीं। वास्तव में दिसंबर, 2019 के दूसरे सप्ताह में नागरिकता संशोधन अधिनियम को संसद से पारित करवा लिया गया था। फिर सीएए और एन.आर.सी. के खिलाफ शुरू हुआ यह आंदोलन पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना। हालांकि, फिर कोरोना संकट के चलते बंदिशों के प्रभावों में आंदोलन का पटाक्षेप हुआ, लेकिन देश के जनमानस में यह आंदोलन एक विशिष्ट पहचान बनाने में कामयाब रहा।
दरअसल, आंदोलनकारियों के बीच नागरिकता से जुड़े मुद्दे को लेकर संशय व अनिश्चितता का भाव उभरा। जो कालांतर शाहीन बाग आंदोलन के रूप में मुखरित हुआ। नागरिकता के नाम पर असम में जो भी कुछ घटा दिल्ली के इस इलाके के लोगों को उसने असुरक्षा व अनिश्चितता से भर दिया। उनका मानना था कि इस मुल्क से हमारा रिश्ता महज एक कागज से नहीं है बल्कि यह रिश्ता हमारे पुरखों के खून-पसीने से जुड़ा है।
पुस्तक : शाहीन बाग-लोकतंत्र की नई करवट रचनाकार : भाषा सिंह प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पृष्ठ : 232 मूल्य : रु. 250.
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