सत्यवीर नाहड़िया
एक दोहा तथा दो रोला के मेल से बनने वाला मात्रिक छंद कुंडलियां बेहद प्राचीन छंद है। कुंडलियां का नाम आते ही अनायास ‘कह गिरिधर कविराय’ नामक कुंडलियां-चरण याद हो उठता है, किंतु गिरिधर जी के बाद ऐसा कोई समर्थ कुंडलिकार नहीं हुआ, जिसकी रचनाएं आमजन की जुबान चढ़कर इतरायी हों।
हरियाणवी बारामासी कुंडलियां नामक इस संग्रह में हरियाणवी रचनाकार दलबीर ‘फूल’ ने लोकजीवन के बहुआयामी पक्षों को बड़ी सहजता से इस छंद में कलमबद्ध किया है। माटी की सोंधी महक से सराबोर इन रचनाओं को प्रदेश का सांस्कृतिक दर्पण कहा जा सकता है।
इन कुंडलियों में लोक में पगे दीवाली-दशहरा, होली-धुलैंडी, कनागत-कार्तिक स्नान, जाडा-पाला, साढू-सामणू, जेठ-बैसाख, गोवर्धन-भाई दूज, सांझी- गणगौर, पिट्ठू-खुलिया, सीठणा-लोकगीत, भादो-मेले, सावण-कांवड़ आदि मुंह बोलते चित्र हैं। संग्रह में जीवन के सोलह संस्कारों पर भी रचनाएं शामिल की गईं हैं। अमावस से जुड़े खान-पान व रीति-रिवाज़ पर केंद्रित एक छंद देखिए :-
मावस आल़ी लापसी, बणती घुटमा खीर।
चुल्हा-चाक्की लीप कै, ल्यावैं ताजा नीर।
ल्यावैं ताजा नीर, मरद वै ज्योत जल़ावैं।
पंडत आवै चाल, बिठाकै खूब जिमावैं।
कहै दलबीर ‘फूल’, मनावैं छुट्टी हाली।
जमकै खाते खीर,सभी वा मावस आली।
संग्रह के अंत में शामिल की गई करीब चालीस कुंडलियां विभिन्न लोकगायकों पर केंद्रित हैं। संग्रह का भावपक्ष बेहद उज्ज्वल है, किंतु शास्त्रीय पक्ष में अभी रचनाकार से अतिरिक्त साधना अपेक्षित है। छंद के मूल विधान, मात्रिक पक्ष तथा वर्तनी की अशुद्धियां अखरती हैं।
पुस्तक : हरियाणवी बारामासी कुंडलियां रचनाकार : दलबीर ‘फूल’ प्रकाशक : शब्दांकुर प्रकाशन, नई दिल्ली पृष्ठ : 109 मूल्य : रु.200.