होर्हे लुईस बोर्हेस
उस रात किसी ने उसे नाव से सरककर तट पर आते हुए नहीं देखा। कुछ ही दिनों के भीतर वहां रहने वाले हर व्यक्ति को यह पता चल गया कि बहुत कम बोलने वाला वह व्यक्ति दक्षिण दिशा से आया था, और यह भी कि वह नदी के ऊपरी छोर पर स्थित असंख्य गांवों में से एक का रहने वाला था, जहां की स्थानीय बोली यूनानी भाषा से दूषित नहीं हुई थी और जहां कुष्ठ-रोग विरल था।
असल में पके हुए बालों वाले उस आदमी ने पहले कीचड़ को चूमा था। फिर लड़खड़ाता हुआ वह उस ऊंचे किनारे पर चढ़ा था (हालांकि वहां उगी कंटीली झाड़ियां उसकी त्वचा को भेद रही थीं, किंतु वह उन्हें परे नहीं हटा रहा था, शायद वह अपनी त्वचा के छिलने के दर्द को महसूस भी नहीं कर पा रहा था)। लहूलुहान और अशक्त वह किसी तरह खुद को घसीटते हुए उस गोल अहाते तक ले गया, जहां किसी घोड़े या बाघ की पत्थर की प्रतिमा स्थापित थी जो पहले कभी आग के रंग की थी, पर अब राख के रंग की रह गई थी। वह गोल दायरा एक मंदिर था, जिसे कोई प्राचीन अग्निकांड तबाह कर चुका था। अब मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों से भरा एक जंगल उस मंदिर की बची-खुची पवित्रता को नष्ट कर रहा था।
दूसरे दिन जब उसकी नींद खुली तो सूरज आकाश में बहुत ऊपर चढ़ आया था। उसने यह महसूस किया कि उसके घाव अब ठीक हो रहे थे। उसने अपनी निस्तेज आंखें बंद कर लीं और वह सो गया…। जो मकसद उसे यहां लाया था, उसे प्राप्त करना असंभव तो नहीं था, किंतु वह अलौकिक जरूर था। दरअसल वह आदमी के बारे में सपना देखना चाहता था। इस जादुई परियोजना ने उसकी पूरी आत्मा को निचोड़कर उसे निशक्त बना दिया था। यह निर्जन और ध्वस्त मंदिर उसे अपने लिए सही जगह लगी, क्योंकि यहां ज्ञात दुनिया का हस्तक्षेप नहीं के बराबर था। इलाके के किसानों का आस-पास होना भी उसके लिए फायदेमंद था, क्योंकि वे उसकी थोड़ी-बहुत जरूरतों को पूरा कर सकते थे। अब वह अपने एकमात्र उद्देश्य सोकर सपने देखने के लिए खुद को समर्पित कर सकता था।
शुरू में उसके सपने बेहद अव्यवस्थित थे। बाद में उसे द्वंद्वात्मक किस्म के सपने आने लगे। अजनबी ने सपना देखा कि वह एक गोल रंगभूमि के केंद्र में था जो कि इस जले हुए मंदिर जैसा ही था। शांत छात्र सीढ़ियों पर ऐसे बैठे थे गोया वे छात्र न हो कर आकाश में लटके बादल हों। वह अजनबी उन छात्रों को शरीर की रचना, ब्रह्मांडिकी और जादू आदि विषयों पर भाषण दे रहा था। सभी चेहरे उत्सुकता से सुन रहे थे और समझदारी के साथ प्रश्नों के जवाब दे रहे थे, जैसे उन्हें इस परीक्षा के महत्व की जानकारी हो। वह अजनबी अपने जगे होने और सपने देखने-दोनों ही अवस्थाओं में अपने आभासी छात्रों के उत्तर सुनता। वह ढोंगियों को फौरन पकड़ लेता, जबकि कुछ छात्रों की बुद्धिमत्ता को तेजी से विकसित होते हुए देखता। वह एक ऐसी आत्मा की खोज कर रहा था जो इस ब्रह्मांड में भागीदारी के काबिल साबित हो। नौ या दस रातों के सपनों के बाद वह अजनबी कुछ कड़वाहट के साथ यह समझ पाया कि वह ऐसे आभासी छात्रों से कोई उम्मीद नहीं रख सकता था जो निष्क्रियता से उसकी शर्त स्वीकार कर लेते थे, लेकिन ऐसे छात्रों से उम्मीद की जा सकती थी जो कभी-कभार उसकी बातों का तार्किक खंडन करते थे। उसकी शिक्षा को ज्यों की त्यों स्वीकार कर लेने वाले कल्पित छात्र उसके स्नेह के काबिल तो थे, किंतु वे कभी भी वास्तविक व्यक्ति के स्तर तक नहीं पहुंच सकते थे। एक दिन दोपहर के समय (अब वह दोपहर में भी नींद और सपनों के आगोश में चला जाता था, अब वह सुबह के समय कुछ घंटों के लिए ही जागता था) उसने उस अवास्तविक महाविद्यालय के छात्रों को सदा के लिए वहां से रवाना कर दिया और अपने पास केवल एक छात्र को रखा।
वह पीली त्वचा वाला एक शांत लड़का था जिसके तीखे नैन-नक्श किसी स्वप्नद्रष्टा-से लगते थे, हालांकि वह लड़का थोड़ा हठी और जिद्दी भी था। अपने सहपाठियों के यूं अचानक हटा दिए जाने से वह घबराया नहीं बल्कि कुछ विशेष कक्षाओं के बाद उस लड़के की प्रगति ने उसके शिक्षक को भी हैरान कर दिया। फिर भी एक दिन अनर्थ हो गया। वह अजनबी अपनी नींद से यूं जागा, जैसे वह किसी चिपचिपे रेगिस्तान से निकला हो। उसने दोपहर की रोशनी को देखा और उसे भ्रम हो गया कि वह सुबह का समय है। तब जाकर वह समझा कि वास्तव में उसने कोई सपना नहीं देखा था। पूरा दिन और पूरी रात एक असहनीय, प्रांजल, अनिद्रा-रोग उसे पीड़ित किए रहा। खुद को थका देने के लिए वह जंगल में इधर-उधर भटका, किंतु इसके बावजूद उसके हिस्से में नींद के कुछ सतही पल ही आए। कच्ची नींद के उन पलों में उसे जो चितकबरी परछाइयां दिखीं, वे सब बेकार थीं। उसने उस काल्पनिक महाविद्यालय के छात्रों को फिर से जुटाने का प्रयास भी किया, किंतु अभी उसने उनके सामने अपना भाषण शुरू ही किया था कि सारे चेहरे विकृत हो कर गायब हो गए। इस अनिद्रारोग की लगभग चिरस्थायी अवस्था में उसकी प्राचीन आंखें क्रोध के आंसुओं से जलने लगती थीं।
वह जानता था कि हालांकि वह हर प्रकार की दुनियावी और अलौकिक उलझनों और पहेलियों को सुलझा सकता था, किंतु सपने जिन असंबद्ध और चकरा देने वाले तत्वों से बने थे, उन्हें अपने मन के मुताबिक ढाल पाना किसी भी इनसान के लिए बेहद कठिन काम था। वह समझ सकता था कि इस काम में शुरू में विफल होना अवश्यंभावी था। उसने कसम खाई कि वह उस विशाल दृष्टिभ्रम को भूल जाएगा, जिसने उसे शुरू में भटका दिया था। अब उसने एक दूसरा तरीका आजमाना चाहा। उसने सपने देखने के बारे में पहले से सोच-विचार करना छोड़ दिया। ऐसा करने से वह दोबारा अपनी नींद को पा सका।
अब वह दिन में काफी समय तक सोया रहता। इस दौरान उसे कभी-कभार सपने भी आए, लेकिन उसने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया। अपने कार्य को दोबारा शुरू करने के लिए उसने पूर्णिमा की प्रतीक्षा की। उस दिन दोपहर के समय उसने नदी के पवित्र जल में स्नान करके उसने खुद को शुद्ध किया, सभी आसमानी देवताओं की पूजा की, सर्वशक्तिमान ईश्वर की वंदना की और फिर सोने चला गया। सोते ही उसने एक धड़कते हुए हृदय का सपना देखा।
सपने में वह हृदय सक्रिय, गरम, गुप्त और बंद मुट्ठी जितना बड़ा था। वह गहरे लाल रंग का था और इनसान की देह में छाती के पास धड़क रहा था। उस इनसानी देह का न कोई चेहरा था, न कोई लिंग। चौदह प्रांजल रातों तक उसने बेहद स्नेह से यह सपना देखा। उसने उस हृदय को छुआ नहीं बल्कि वह केवल उसे ध्यान से देखता रहा। चौदहवीं रात में उसने पहले हृदय की मुख्य धमनी को उंगली से छुआ, फिर उसने पूरे हृदय को भीतर और बाहर से महसूस किया। इस जांच से वह संतुष्ट हुआ।
जान-बूझकर एक रात उसने कोई सपना नहीं देखा। अगली रात सपने में उसने हृदय को लिया और फिर एक ग्रह के नाम का आह्वान करके उसने प्रार्थना की। फिर वह मानव शरीर के किसी अन्य मुख्य अंग का सपना देखने में व्यस्त हो गया। एक वर्ष के भीतर ही वह कंकाल और पलकों तक पहुंच गया था। असंख्य बाल का सपना देखना सबसे कठिन काम था। जल्दी ही उसने एक संपूर्ण मनुष्य का सपना देखा। वह एक युवक था, किंतु वह युवक न हिल-डुल सकता था, न बोल सकता था। हर रात वह अजनबी उस युवक को सोया हुआ देखता था। उस अजनबी जादूगर के कई रातों की कोशिश से बना यह सपनों का आदम भी उस मिट्टी के आदम की तरह ही अनाड़ी, कच्चा और प्रारंभिक प्रयास जैसा था।
एक दिन दोपहर के समय उस अजनबी ने अपनी कृति को लगभग नष्ट ही कर दिया था, हालांकि बाद में उसे अपनी इस हरकत पर पछतावा हुआ। (यदि वह उसे नष्ट कर देता तो यह उसके लिए बेहतर ही होता)। जब उसने पृथ्वी और नदी के देवताओं की प्रार्थना समाप्त कर ली तो वह उस मूर्ति के सामने साष्टांग दंडवत की मुद्रा में लेट गया। वह मूर्ति संभवतः किसी बाघ की थी या शायद किसी घोड़े की थी। उसी शाम उसने उस मूर्ति का सपना देखा। सपने में वह एक जीवित, धड़कता हुआ जीव था। वह कोई ऐरा-गारा बाघ या घोड़ा नहीं था बल्कि इन दोनो ही प्रचंड जीवों का मिश्रण था। इस जीव में सांड, गुलाब और तूफान के अंश भी समाहित थे। बहुत सारे जीवों व तत्वों से बने इस देवता ने उस अजनबी को बताया कि पृथ्वी पर उसे अग्नि के नाम से जाना जाता था, और यह भी कि इस वृत्ताकार भग्न मंदिर में लोगों ने यज्ञ किया था तथा पशु बलि का चढ़ावा चढ़ाया था। इस देवता ने अजनबी से यह भी कहा कि वह उसके सपनों से उपजे सोए हुए छायाभासी मानव में जादुई शक्ति से प्राण डाल देगा, जिससे उस देवता या जादूगर को छोड़ कर बाकी सभी उस छायाभासी मानव को हाड़-मांस से बना जीवित इनसान मान लेंगे। देवता ने उस अजनबी जादूगर को आदेश दिया कि वह अपने छायाभासी जीव के लिए धार्मिक अनुष्ठान करे और फिर उसे थोड़ी दूर पर स्थित नदी के किनारे ही बने दूसरे भग्न मंदिर में ले जाए ताकि वहां ईश्वरीय चमत्कार की वजह से छायाभासी मानव पूर्णता को प्राप्त कर सके।
अजनबी जादूगर ने आदेश का पालन किया। उसने लगभग दो वर्ष की अवधि अपने सपनों के मनुष्य को ब्रह्मांड के रहस्य और अग्नि-देवता की पूजा-पद्धति के बारे में समझाने में लगा दी। हालांकि भीतर-ही-भीतर उसे उस आदमी से जुदाई का गम सताने लगा था। आखिर उसने अपने सपनों में उसका निर्माण किया था। वह उसे बेटे जैसा मानने लगा था। उसे ज्ञान देने के बहाने हर रोज वह अपने सपनों को और ज्यादा समय देने लगा। सपने में ही उसने उस छायाभासी मानव के दाएं कंधे को दोबारा बनाया, क्योंकि उसे उसमें कुछ कमी नजर आ रही थी। जब भी वह अपनी आंखें बंद करता, वह सोचता – अब मैं बेटे के साथ रहूंगा। कभी-कभी वह यह भी सोचता-जिस बेटे का मैंने निर्माण किया है, वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। यदि मैं उसके पास नहीं गया तो उसका अस्तित्व ही मिट जाएगा।
धीरे-धीरे उसने अपने छायाभासी बेटे को वास्तविकता का आदी बना दिया। एक बार उसने उसे दूर स्थित पहाड़ की चोटी पर झंडा लगाने का आदेश दिया। अगले दिन दूरबीन से देखने पर झंडा वहां लहराता हुआ दिखा। उसने अपने उस छायाभासी बेटे पर और भी कई प्रयोग किए। हर प्रयोग पिछले से ज्यादा साहसिक था। उस रात उसने अपने छायाभासी बेटे को पहली बार चूमा और उसे नदी के किनारे के घने जंगल और दलदल के पास वाले गोल खंडहर में स्थित दूसरे भग्न मंदिर में भेज दिया। लेकिन वह नहीं चाहता था कि उसका बेटा खुद को छायाभासी समझे। वह चाहता था कि उसका बेटा खुद को अन्य लोगों की तरह ही वास्तविक माने। इसलिए उसने ऐसा करने से पहले अपने बेटे के जहन से उसके प्रशिक्षु होने के समय की पुरानी सारी यादें हटा दीं।
अब वह अजनबी जादूगर अपने भीतर जीत और सुकून महसूस कर रहा था, लेकिन थकान उस पर हावी थी। सुबह और शाम के झुटपुटे के समय वह पत्थर की मूर्ति के सामने साष्टांग प्रणाम की मुद्रा में प्रार्थना करता। उसे यह उम्मीद थी कि उसका छायाभासी बेटा भी उस समय नदी किनारे स्थित किसी भग्न मंदिर में मौजूद मूर्ति के सामने ऐसे ही आराधना कर रहा होगा। अब रात में वह पहले की तरह सपने नहीं देखता था। यदि कभी-कभार उसे सपने आते भी थे तो वे आम लोगों के साधारण सपनों जैसे होते थे। अब उसे ब्रह्मांड के सभी स्वर और रूप फीके लगते थे। उसका सारा ध्यान अपने अनुपस्थित बेटे की ओर होता, जिसे उसकी आत्मा सींच रही थी। उसके जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया। अब उसके भीतर आह्लाद भरा था।
उस अजनबी जादूगर की कथा के कुछ वाचकों के अनुसार कुछ वर्षों बाद एक रात दो नाविकों ने उसे गहरी नींद से जगाया। अंधेरे में वह उनके चेहरे नहीं देख सका, लेकिन उन्होंने उसे उत्तर दिशा में स्थित एक मंदिर में रहने वाले जादूगर के बारे में बताया, जो बिना खुद जले धधकती आग में चल सकता था। अजनबी जादूगर को अचानक ईश्वर का कथन याद आ गया। उसे याद आया कि विश्व में मौजूद सभी जीव-जंतुओं और तत्वों में केवल आग को ही उसके बेटे के छायाभासी होने के रहस्य के बारे में पता था। उसे भय था कि उसका बेटा कभी अपने विशिष्ट होने के बारे में सोच-विचार कर सकता है। ऐसे में उसे यह पता लग सकता है कि वह एक छवि मात्र है।
उसके चिंतन-मनन का अंत अचानक ही हो गया, हालांकि कुछ संकेत इस ओर पहले से ही इशारा करने लगे थे। एक लंबे सूखे के बाद दूर की पहाड़ी पर किसी चिड़िया जैसा हल्का और तेजी से उड़ने वाला बादल का टुकड़ा प्रकट हुआ। फिर, दक्षिण दिशा की ओर आकाश का रंग किसी तेंदुए के मुंह जैसा गुलाबी हो गया। इसके बाद चारों ओर ऐसा धुआं छा गया, जिसने लौह-रातों को भी जैसे खुरच डाला। अंत में जंगल से भयातुर जानवरों के भागने की अजीब घटना घटी। अग्नि-देवता के मंदिर के गोल खंडहर एक बार फिर धधकती आग में नष्ट हो गए। चिड़ियों से रहित एक सुबह उस अजनबी जादूगर ने खुद को उस गोल खंडहर में चारों ओर से भीषण आग से घिरा पाया।
एक पल के लिए उसके मन में नदी में पनाह लेने का विचार आया, किंतु फिर वह समझ गया कि मौत उसके बुढ़ापे का आलिंगन करने के लिए आ रही थी ताकि उसे अपने श्रम से मुक्ति मिल सके। फिर वह लपलपाती लपटों के बीच चला गया। किंतु उन लपटों ने उसकी त्वचा को जलाया नहीं। वे उसे अपने आगोश में ले कर पुचकारने लगीं। उसे कोई गर्मी या जलन महसूस नहीं हो रही थी। और तब राहत, अपमान और भय के मिले-जुले भाव से वह अजनबी जादूगर यह समझ गया कि दरअसल वह स्वयं भी मात्र एक छायाभासी था, किसी अन्य वास्तविक व्यक्ति के सपने की उपजभर था।
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय
साभार : हिंदी समय डॉट कॉम