मैं हूं छाता
धूप और बारिश से बचाता। मैं हूं छाता-मैं हूं छाता।।
मैं हूं केवल नहीं नाम का, सभी समझते मुझे काम का।
गांव-नगर में पाया जाऊं, जन-जन में अपनाया जाऊं।
नाम सार्थक मैं कर जाता। मैं हूं छाता-मैं हूं छाता।।
हर एक को लगता मैं प्यारा, धनी और निर्धन का सहारा।
किसी को मुझसे नहीं परहेज, रखते हैं सब मुझे सहेज।
समय पे सबके काम हूं आता। मैं हूं छाता-मैं हूं छाता।।
बारिश हो या धूप कड़ी, रक्षा करता मैं तगड़ी।
क्षमता भर करता हूं काम, मैं वसूल कर देता दाम।
गुण सबको अपना दिखलाता। मैं हूं छाता-मैं हूं छाता।।
बच्चों के हाथों में सजता, बड़ों के हाथों में भी जंचता।
भिन्न-भिन्न आकार हैं मेरे, सतरंगी परिधान हैं मेरे।
सेवा देते नहीं लजाता। मैं हूं छाता-मैं हूं छाता।।
– वसीम अहमद नगरामी
इसीलिए तो आई
क्यों तन कर बैठी हो ऐसे, बोलो रूठारूठी!
मुंह तुम्हारा लटका-लटका, आंखें दुखी-दुखी।
चलो चलें हम चलकर बाहर, खेलें पकड़म पकड़ी।
क्यों बैठी हो सिमटी सिमटी, ऐसे जकड़म जकड़ी।
अगर चलोगी वहां मिलेगी, हवा खुली खुली सी।
हंसती-गाती घास मिलेगी, अरे धुली धुली सी।
नन्हें पौधे फूल हिलाकर, खुशबू तुमको देंगे।
चलते-फिरते बादल मिलकर, ठंडी तुमको देंगे।
देखो, मैं हूं दोस्त तुम्हारी, प्यारी ‘मनीमनाई।’
मेरा काम है तुम्हें मनाना, इसीलिए तो आई।
-दिविक रमेश