राजकिशन नैन
इतिहास लेखन में सिद्धहस्त डॉ. शंकर शरण ने अपनी ताजा विचारोतेजक कृति ‘मुसलमानों की घर वापसी क्यों और कैसे?’ में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच चली आ रही सहअस्तित्व और सहिष्णुता की उदात्त भावना को संकीर्णता से ऊपर उठकर इतनी शालीनता के साथ संशोधित किया है कि यह महज एक कृति न होकर एक उम्दा दस्तावेज बन गया है।
‘मुसलमानों की घर वापसी’ की संभावनाओं को सुखांत बनाने की दिशा में यह पुस्तक एक असंदिग्ध अंतर्दृष्टि प्रदान करेगी। भारत में मुसलमानों के साथ हिंदुओं को कैसा विचार-विमर्श करना चाहिए? विविध धार्मिक मान्यताओं तथा उनके दावों का सच क्या है? खुली विचार स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र का न होना क्या गर्व करने लायक है? जब सारी दुनिया के लोग धर्म-भाषा-क्षेत्र से निरपेक्ष होकर समान रूप से साइंस-टेक्नोलॉजी-उद्योग के लाभ उठाते हैं। काव्य, दर्शन, कला और गीत-संगीत के जरिये अपना आत्मिक उत्थान करते हैं। तब उससे मुसलमान ही क्यों वंचित रहें? ऐसे तमाम बिंदुओं पर इस पुस्तक में गहन विचार किया गया है।
एकाध अपवाद के सिवाय धार्मिक विविधता को प्रश्रय देने वाले भारत में मुसलमानों के साथ हिंदुओं का सहअस्तित्व कभी विवाद का विषय नहीं बना। न सामुदायिक झगड़े हुए। बल्कि मुसलमानों के बीच भी भारतीय, हिंदू ज्ञान परंपरा से लाभ उठाने वाले विद्वान और कवि खूब पाये जाते हैं। इनमें रसखान, रहीम, नजीर, बुल्लेशाह, गालिब, हाली, जायसी व साहिर जैसे कवियों, शायरों, ज्ञानियों की गौरवशाली परंपरा है। उनके समृद्ध दर्शन-लेखन-विचार में अवनत इस्लाम का कोई स्थान नहीं था।
सच तो यह है कि अरब समेत सब मुस्लिम देशों में भी अनेकानेक अकरणीय इस्लामी निर्देश और कानून स्वेच्छा से छोड़े जा चुके हैं। जैसे धार्मिक पुस्तकों के सिवाय कुछ और न पढ़ना; गैर-मुस्लिमों के शासन में न रहना; गुलामों को रखना-बेचना; काफिरों से मित्रता न रखना तथा जिहाद को राजकीय नीति बनाकर चलना आदि। इस इतिहास और वर्तमान से स्पष्ट है कि इस्लामी आदेशों के जबरन पालन करने कराने के बदले स्वविवेक से चलना और इनसानियत की आजादी सहज स्थिति है। इसको रोकने की कोशिश ही हर कहीं अशांति, विकृति, तबाही और पिछड़ेपन का कारण रही है। जिन मुस्लिम देशों ने गैर-मुसलमानों और गैर-इस्लामी जीवन रीतियों को छूट दे रखी है, वे देश उद्योग-व्यापार व ज्ञान-विज्ञान का भरपूर लाभ उठा रहे हैं।
तुर्की मुस्लिम देश होते हुए भी रूढ़िवादिता की उपेक्षा करके चलता रहा है और इसी कारण यूरोपीय देशों जैसा विकसित हुआ है। भारत के मुसलमान और ईसाई बाहर के नहीं हैं, बल्कि यहीं के पुराने हिंदू हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों में धर्म-अध्ययन विभागों की स्थापना की जानी अनिवार्य है ताकि भारतीय धर्म पर भारत के अपने अकादमिक विद्वान, प्रतिष्ठित प्रवक्ता और समर्थ शोधकर्ता हों, जो हिंदू धर्म-दर्शन-इतिहास पर स्पष्ट दृष्टि विकसित करें।
पुस्तक : मुसलमानों की घर वापसी क्यों और कैसे ? लेखक : डॉ. शंकर शरण प्रकाशक : अक्षय प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 128 मूल्य : रु. 250.
हरियाणवी अंदाज़ में अभिव्यक्ति
सत्यवीर नाहड़िया
अरबी साहित्य से निस्सृत, फारसी में समादृत तथा उर्दू की केंद्रीय काव्य विधा रही ग़ज़ल आज अनेक भाषाओं में कही जा रही है, किंतु अपने छंद अनुशासन के साथ अपने खास मिजाज़ और अंदाज़ के चलते आज भी चार सदियों से उर्दू ग़ज़ल की अपनी मौलिक पहचान बनी है। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ ‘प्रेमिका से बातचीत’ जहां इसकी भाषा की शालीनता की ओर इशारा करता है, वहीं एक ही बहर में लिखे शे’रों के समूह की इस काव्य विधा में नयापन, रवानगी, नर्मी आदि मूल तत्वों के साथ मुट्ठी में आकाश व गागर में सागर होना अनिवार्य है। आजकल तो बोलियों में भी ग़ज़लें कही जा रही हैं। बोली से भाषा बनने की राह पर अग्रसर हरियाणवी में भी लंबे अरसे से ग़ज़लें कही जा रही हैं। आलोच्य कृति ‘फूल दरद के’ हरियाणवी ग़ज़लों का ऐसा ही एक गुलदस्ता है।
ग़ज़लकार रिसाल जांगड़ा का यह तीसरा हरियाणवी ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें विभिन्न प्रकार की छोटी-बड़ी बहरों की 91 ग़ज़लें शामिल हैं। इन ग़ज़लों में एक ओर जहां सामाजिक विषमताओं तथा विद्रूपताओं पर करारी चोट है तो वहीं दूसरी ओर सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं का मार्मिक वर्णन है। ठेठ हरियाणवी इन ग़ज़लों की विशेषता है। दोगलेपन पर करारी चोट करती एक बानगी देखिए :-
इस तरियां बी करे उजाले।
दिल म्हं गम के दीवे बाले।
मंदिर म्हं तै झाड़ू फेरै,
मन में झूठ-कपट के जाले।
विषय विविधता संग्रह की एक अन्य खूबी कही जा सकती है। एक दार्शनिक ग़ज़ल का मतला व शे’र :-
खेल बिगड़ज्या कद के बेरा।
सांस उखड़ज्या कद के बेरा।
माणस तै सै एक गुबारा,
फूक लिकड़ज्या कद के बेरा।
माटी की महक से सराबोर इन ग़ज़लों में लोक संस्कृति के बहुरंगी शब्द चित्र बेहद भावपूर्ण बन पड़े हैं। मेरे यार का हरियाणवी रूपांतरण मिरयार का समानांतर के रूप में कलात्मक प्रयोग देखिए :-
दिल म्हं हिम्मत डाट मिरयार।
दुख के परबत काट मिरयार।
लेणा-देणा चलै बराबर,
दुनिया सै इक हाट मिरयार।
संग्रह में हर ग़ज़ल के साथ कठिन हरियाणवी शब्दों का हिंदी में अर्थ देना काबिलेतारीफ है, किंतु संग्रह में कहीं-कहीं छंद दोष तथा वर्तनी की ढेर सारी अशुद्धियां अखरती हैं, जिन्हें अगले संस्करण में दूर किया जा सकता है।
पुस्तक : फूल दरद के रचनाकार : रिसाल जांगड़ा प्रकाशक : पुनीत बामनी वाला, कैथल पृष्ठ : 120 मूल्य : रु.250.
सरोकारों की कविता
कमलेश भारतीय
लाडो कटारिया न केवल एक रचनाकार बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता भी है। यह बात इनकी कविताओं में भी देखने को मिलती है। इनका नया काव्य संग्रह ‘शब्द अनुभूति के’ सामने है और इसमें हर सामाजिक समस्या को छूने की कोशिश साफ दिखाई देती है। सबसे बड़ी समस्या कन्या भ्रूण हत्या से लेकर निर्भया कांड यानी महिलाओं की त्रासदियों पर कविताएं और इनकी चिंता साफ झलकती है।
निर्भया पर तो दो-दो कविताएं हैं—दिल्ली और धुंध। दोनों निर्भया कांड पर केंद्रित हैं। नया साल कविता में नये संकल्प लिए गये हैं। ‘परम सत्य’ बहुत दार्शनिक कविता है कि हम अपने आपको जानने को कोशिश करें और खुद से मुलाकात करें। तंज ऐसी कविता जो यह साबित करती है कि तंज कुछ भी बना देता है। कोरोना पर भी दो कविताएं हैं ‘मंजर अजीब पा’ और ‘कुछ तो करो ना’।
जैसा शुरू में कहा कि लाडो कटारिया की कविताएं सामाजिक कार्यकर्ता की कविताएं ज्यादा हैं। इसमें होली, दीवाली, सुभाष चंद्र बोस, अब्दुल कलाम, हिंदी और पिताजी, दादाजी आदि पर कविताएं शामिल हैं। कविता संग्रह सुंदर प्रकाशित हुआ है और अपनी बहुओं को समर्पित किया है। यह भी अच्छा संकेत है। नयी सोच है।
पुस्तक : शब्द अनुभूति के रचनाकार : लाडो कटारिया प्रकाशक : सूर्य भारती प्रकाशन, दिल्ली पृष्ठ : 148 मूल्य : रु.450.