भूपिंदर कौर वालिया
शहर के कुछ बुजुर्ग लोगों ने रोज शाम को सैर करने का प्रोगाम बनाया और हर दिन किसी न किसी पार्क में सैर और गप्पों का सिलसिला शुरू हो गया। सभी अपने दुख-सुख बांटते और बीते दिनों की बात करते। उनमें से तकरीबन सबके बच्चे विदेश में जाकर बस चुके थे। कभी कोई अपने बच्चों के पास 3-4 महीनों के लिये चला जाता। जिनके नाती-पोते छोटे थे उनका समय तो फिर भी घर के कामकाज में बीत जाता पर कुछ लोगों के लिये समय बिताना बहुत मुश्किल हो जाता था। खासकर जब बच्चे स्कूल या ऑफिस चले जाते। कुछ लोग रिटायरमेंट के बाद भी अपनी नौकरी के दिन को भुला नहीं पा रहे थे। वे डिप्रेशन का शिकार हो रहे थे। एक दिन एक शख्स ने कहा कि हम सब ही अपने-अपने काम में माहिर रहे हैं, कोई रिटायर्ड इंजीनियर है, कोई डाक्टर, कोई अध्यापक, कोई बैंक आफिसर और कोई वकील। कुछ और प्रोफेशन के लोग भी उन्हें पार्क में मिल जाया करते थे। आइडिया था कि मिलकर कुछ ऐसा किया जाये, जिससे समय भी अच्छा बीत जाये और सोसायटी का भी कुछ भला हो सके।
एक मित्र ने कहा कि मेरा एक बहुत बड़ा फार्म हाउस है अगर आप सब चाहें हम वहां मिल कर कुछ सकते हैं। तो क्यों न हम वहां पर एक प्राइमरी स्कूल और एक डिस्पेंसरी खोल लें। कुछ अनाथ बच्चों को पढ़ाया करेंगे। जो बच्चे वहां रहेंगे उनके खाने-पीने के लिये एक छोटा-सा मैस भी खोल देंगे। खाना बनाने के काम के लिये कुछ गरीब या विधवा महिलाओं को रख सकते हैं। इस तरह सबके खाने का भी इंतजाम हो जायेगा। शुरू में तो इस काम के लिए हमारी पत्नियां भी हमारी मदद कर सकती हैं। तय हुआ कि डाक्टर डिस्पेंसरी का काम संभालेंगे। इस तरह हर रिटायर इंसान को कुछ न कुछ काम मिल जायेगा। जो हम में वकील हैं वो सरकार से इस काम के लिये मंजूरी भी दिलवा सकते हैं। इस तरह हम सब का समय वहां लगेगा। अनाथ बच्चों की पढ़ाई और रहन सहन, विधवाओं को आसरा और गरीबों को रोजगार और सबको एक सुरक्षित भविष्य मिल जायेगा। उसकी ये बात सुनकर सब बहुत खुश हुए और सबने अपनी-अपनी सहमति देते हुए इसे अच्छा नेक और समाज में सुधार लाने वाला काम बताया।
विनोद ने कहा कि मैं अपनी जायदाद का एक हिस्सा स्कूल के निर्माण और उसके रख-रखाव के लिये लगाने को तैयार हूं। शर्मा जी बोले- मैं एनजीओ में जाकर इस बारे में बात करूंगा। जिससे वो इस तरह के जरूरतमंद बच्चों और महिलाओं को हमारे पास भेज सकें। मोहन जी जो इंजीनियर थे, ने कहा कि वह स्कूल के लिये जो जरूरत की चीजें हैं उन्हें एकत्र करके स्कूल की बिल्डिंग बनाने में मदद कर देंगे। पांडव साहब जो सरकारी वकील थे, बोले कि मैं इस प्रोजेक्ट के लिये जो भी सरकारी औपचारिकताएं हैं, पूरी करके सरकार से मंजूरी लेने में सहायता करूंगा। डॉ. गिल तो पहले ही तैयार थे कि डिस्पेंसरी का सारा काम वो अपने तौर पर सम्भाल लेंगे। इस तरह शुरुआत में तकरीबन 25-30 महिलाएं और पुरुष एकत्र हो गये। स्कूल डिस्पेंसरी और मैस का काम आसानी से शुरू हो गया। जो रिटायर इंसान खुद को बेकार समझने लगे थे फिर से बड़े उत्साह और मेहनत से नये काम में जुट गये। उनके जीवन में एक नई आशा जाग गई और धीरे-धीरे सारा काम सुचारु रूप से चलने लगा। छह महीने के अंदर ही स्कूल में पहली से छठी कलास तक 80 बच्चे पढ़ने लगे। उनकी पढ़ाई में श्रीमती गोयल, श्रीमती शर्मा, श्रीमती विनोद और श्रीमती गिल ने अपनी सेवाएं प्रदान कीं। एक-दो और भी रिटायर टीचर आ गये। उनमें से एक रिटायर टीचर चौबे जी के जानकार थे। इस तरह स्कूल दिन-प्रतिदिन तरक्की करने लगा। दूसरी तरफ मैस का काम भी जोर-शोर से चलने लगा था जिसको कुछ विधवा और बेसहारा, जरूरतमंद औरतों ने बखूबी संम्भाल लिया था। स्कूल के सारे बच्चों का खाना और बाकी सारे ही काम करने वालों के खाने का इंतजाम वहीं होने लगा।
स्कूल की इमारत पूरी होने के बाद कमेटी के सदस्यों ने फैसला किया कि अपने आसपास के गांवों के बच्चों को अपने स्कूल में दाखिल किया जाये। इस का दायित्व चौबे जी ने अपने ऊपर ले लिया। गांव में जाकर उन्हें स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने का सुझाव दिया। गांव वाले जो पहले ही इस स्कूल के खुलने से खुश थे और अपने बच्चों को वहां पढ़ाना चाहते थे, शीघ्र ही इसके लिये तैयार हो गये। क्योंकि इस स्कूल में पढ़ाने से उनके बच्चों का समय भी बच जाता जो कि पांच किलोमीटर दूर जाकर पढ़ने से बर्बाद होता था। गांव के बच्चे उस पाठशाला में जाने लगे और उन्होंने पाया कि उनके बच्चों को बड़ा ही स्वादिष्ट और पौष्टिक खाना स्कूल में ही मिल जाता है। उनकी पढ़ाई अच्छी हो रही है। उनकी छोटी-मोटी बीमारी का इलाज भी स्कूल की डिस्पेंसरी में हो जाता है। कुछ बच्चों के अभिभावक मिलकर गांव के सरपंच के पास गये और योगदान मांगा। सरपंच ने अनाज, दूध सब्जियां इत्यादि अपनी तरफ से उनको देकर उनकी सहायता का वादा किया। सरपंच अपने पंचायत के पंचों को साथ लेकर स्कूल की कमेटी के सदस्यों से मिला और उन्हें सारी चीजें देने की बात रखी। साल भर बाद स्कूल के नतीजे बहुत अच्छे आने पर सदस्यों ने एकत्र होकर एक वार्षिक उत्सव करने का निर्णय लिया। उसमें मुख्य मेहमान के रूप में वहां के डी.सी. को बुलाने का फैसला लिया। उनमें से पांच सदस्य मिल कर डी.सी. को आमंत्रित करने पहुंचे। उनके काम की सराहना डी.सी. साहब तक पहले ही पहुंच चुकी थी। इसलिए डी.सी. ने बड़ी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। संस्था के सदस्यों ने उन्हें अपने सालाना उत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में आने का निमंत्रण दिया तो वो बहुत खुश हुए।
स्कूल प्रोग्राम के दिन डी.सी. साहब आये। कार्यक्रम में बच्चों द्वारा प्रस्तुत रंगारंग कार्यक्रम और उनके सालाना परीक्षाफल पर इनाम देते हुए डी.सी. साहब ने संस्था की तारीफ करते हुए कहा कि किस तरह वो एक साथ स्कूल, भोजनालय, डिस्पेंसरी को चला रहे हैं और बच्चों का सर्वांगीण विकास कर रहे हैं। उन्होंने स्कूल को अपग्रेड करने, सरकार से वित्तीय सहायता और उसके लिये अनिवार्य रस्मी कार्रवाई पूरी करने का वायदा किया। इस सब की चर्चा अगले दिन काफी सारे अखबारों में चित्रों समेत हुई जिससे उस संस्था का नाम और भी उजागर हो गया।
संस्था के सारे मैंबरों ने इसके बाद एक कमेटी का गठन किया। उसके तीन विभाग बना दिये और उनके अपने कार्यक्षेत्र का एक-एक मुखिया बना। उन्हें अलग-अलग विभाग यानी डिस्पेंसरी स्कूल और भोजनालय का काम सौंपा गया।
मि. शर्मा को डिस्पेंसरी का चार्ज मिला। वो जोर-शोर से डिस्पेंसरी को आधुनिक अस्पताल में बदलने में लग गये। जहां भी उनकी वाकफियत थी वहां से उन्होंने नये-नये उपकरण और स्टाफ एवं डाक्टर लाने शुरू कर दिये। सिंह साहब जो सिविल इंजीनियर थे उन्होंने उसकी इमारत को अस्पताल के लायक बनाने में पूरा सहयोग दिया। इस तरह अस्पताल अच्छा और बड़ा बन गया। भोजनालय का काम चटर्जी साहब के हवाले आया तो वो भी उसे और ज्यादा अच्छा बनाने और ज्यादा लोगों को खाना मिल सके इसके इंतजाम में जुट गये। चपाती बनाने वाली मशीन ले आये, जिससे ज्यादा लोगों का व जल्दी खाना बन सके।
चौबे जी को स्कूल की प्रगति का काम सौंपा गया था। उन्होंने अपने एक दोस्त जो कि शारीरिक शिक्षा के रिटायर टीचर थे, को अपने स्कूल में लाकर खेलकूल में भी काफी उन्नति करवाई। टीचर ने बच्चों को हॉकी, फुटबाल, क्रिकेट, कबड्डी व एथलेटिक्स प्रतियोगिता में हिस्सा दिलवाकर राज्यस्तर तक पहुंचा दिया जिस करके खेलकूद में भी स्कूल का नाम राज्य स्तर तक पहुंच गया।
सबने मिलकर यह सोचा कि क्यों न हम अपने घर इस कंपाउंड के अंदर ही बना लें। इससे आने-जाने का समय भी बच जायेगा। तो सबने अपने-अपने घर बेच कर वहीं और जमीन लेकर अपने-अपने घर बना लिये। उसके चारों तरफ बाउंडरी वॉल इस तरह बनाई कि जिसके अंदर स्कूल, अस्पताल और भोजनालय सब कुछ आ सके। एक मुख्य घर बनाकर उसके द्वार पर ‘निराली दुनिया’ नाम लिखा। इस तरह स्कूल, डिस्पेंसरी और अस्पताल पर लिखा गया, अपना स्कूल, अपनी डिस्पेंसरी और अपना अस्पताल।
जिन्होंने इस संस्था की नींव रखी थी उन 9-10 व्यक्तियों ने मिलकर वरिष्ठ नागरिकों की खेलों की प्रतियोगिता करवाने का इंतजाम किया जिससे उनकी सेहत भी ठीक रह सके और वो खुश रहें। महिलाओं के लिये कुटीर उद्योग खुलवाया, जिससे वो आत्मनिर्भर बन सकें। सामूहिक विवाह करवाने का भी इंतजाम करने लगे। इस तरह बुजुर्गों को बच्चे मिल गये और अनाथ को परिवार मिल गया। बुजुर्गों को ये न महसूस होता था कि वो बूढ़े हो गये और वृद्धाश्रम में रह रहे हैं और न ही अनाथ बच्चों को ये लगता था कि वो अनाथ हैं और अनाथालय में रह रहे हैं।
इस निराली दुनिया की चर्चा जब विदेशों में पहुंची तो विदेशों में रह रहे सदस्यों के बच्चों ने उनकी सराहना की और आर्थिक रूप से भी सहायता की। इस तरह उस निराली दुनिया में न तो प्यार की कमी थी व न पैसों की। वो सारे ही त्योहार बड़ी खुशी से मिल-जुलकर मनाते थे। दीवाली, दशहरा, होली, ईद, क्रिसमस आदि। ऐसा लगता था जैसे इस निराली दुनिया में छोटा-सा भारत पनप रहा है।
15 अगस्त को जब राज्य के मुख्यमंत्री ने देश का झंडा फहराया तोे इस कमेटी के सदस्यों को खास तौर पर सम्मानित करते हुए कहा- इन्होंने एक अनोखा और सराहनीय काम किया है। जहां इस छोटी-सी निराली दुनिया में बुजुर्ग, बच्चे, औरतें सब एक साथ रह रहे हैं। जहां बुजुर्गों को यह महसूस नहीं होता कि वो बेकार हैं। अनाथ बच्चों को परिवार का प्यार, अच्छी शिक्षा और उन्नति के रास्ते नजर आये, विधवाओं को काम मिला। मेरा तो मानना है कि हर राज्य में ऐसी निराली दुनिया होनी चाहिए जिससे हम भारतीयों में देश के बाहर जाने की ललक ही न जागे।