यश गोयल
लगभग पच्चीस व्यंग्य किताबों के रचयिता प्रतिष्ठित साहित्यकार अशोक गौतम ने भारत में घुस आये कोरोना-19 के नौ महीनों से पहले ही ‘लोकडाउन’ संग्रह की उत्पत्ति करा कर पाठकों को आश्चर्य में डाल दिया। लॉकडाउन अंग्रेजी का शब्द है। संग्रह का शीर्षक लोकडाउन है अर्थात् लोक का, जनता का डाउन। किताब में अमित कुमार का कवर पाठकों को आकृष्ट कर याद दिलाता है कि तीन माह के लॉकडाउन में प्रवासी मजदूर वर्ग ने परिवार सहित कैसे शहरों से कठिन परिस्थितियों में पलायन कर अपने गांवों की ओर माइग्रेट किया था।
पुस्तक में लेखक ने 41 व्यंग्य आलेख समाहित किये हैं जो पारिवारिक और सामाजिक बिंदुओं पर केंद्रित हैं। और तो और कवर फ्लैप पर भी पूरा एक व्यंग्य लिख कर पत्नी का समाज में कोरोना बीमारी की जागरूकता पर फोकस किया है। अपने कथन में लेखक लिखते हैं, ‘हम आज सभी मानसिक, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक यंत्रणाओं के बीच जीने के लिये विवश हैं। कल भी रहेंगे। आज तो बस, सारे काम बंद कर, यंत्रणाओं के बीच जीने के रास्ते खोजने की प्रक्रिया जारी है। परंतु इस सब के बीच व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो हिचकोलों के बीच भी खड़े होने का मुस्कराते हुए आदमी को सहारा देती रही है। चिढ़ते हुए उठने में वह आनंद नहीं, जो हंसते हुए उठने में है।’
लेखक की इस अभिव्यक्ति को मान लें तो इस कोरोना-काल में (जो अभी भी जारी है बावजूद वैक्सीन उपलब्धता के) जितने कार्टून, व्हाट्सएप टिप्पणियां, चुटकुले, राजनीतिक मजाक और टिक-टॉक बने, उसने हरेक इनसान को सुकून दिया। इन सबने थोड़ी देर के लिए ही सही, इस वेदना में एक मलहम का फोहा जरूर रख दिया।
सभी शीर्षक अपने आप में ‘सेल्फ एक्सप्लेनेटरी’ हैं जैसे थैंक गॉड बच गया, कोरोना के नाम पाती, आदमी कोरोना है, नीम हकीम खतरे कोरोना, लॉकडाउन में मोबाइल की व्यथा, कोरोना की कोख से उपजा ताजा कवि, कोरोना उदास है, कोविड उन्नीस, पब्लिसिटी बीस, घरेलू डॉक्टर और कोरोना, रुक कोरोना रुक, साहब और कोरोना में खलयुद्ध, बाबूजी ने कोरोना दुहा।
इस सभी व्यंग्य आलेखों में पात्रों के बीच संवाद, तर्क-कुतर्क, सुझाव, हां-न, और कोरोना बीमारी के इर्द-गिर्द की बहस और लेखक का अपना विश्लेषण है जो पाठक को उसमें निहितार्थ ढूंढ़ने को बाध्य करता है। कोरोना से बिगड़ी अर्थव्यवस्था में व्यंग्य प्रेमी पाठक को किताब का मूल्य अखरेगा।
बहरहाल, इसके बावजूद कोरोना-19 की महामारी से उपजी बेरोजगारी, प्रवासी लोगों का पलायन, व्यवसाय और शिक्षा का ठप होना, अपनों का बीमारी से निधन और अज्ञात में उनके दाह-संस्कार की पीड़ा के विस्तार को व्यंग्य संग्रह में अपेक्षित जगह नहीं मिल पायी।
पुस्तक : लोकडाउन (व्यंग्य संग्रह) व्यंग्यकार : अशोक गौतम प्रकाशक : देशभारती प्रकाशन, अशोक नगर, दिल्ली पृष्ठ : 160 मूल्य : रु. 350