सुभाष रस्तोगी
नीरज खरे मुख्यत: आलोचक के रूप में जाने जाते हैं, हालांकि वे कविता भी लिखते हैं। उनकी प्रकाशित आलोचना पुस्तकों में ‘बीसवीं सदी के अन्त में हिन्दी कहानी’, ‘कहानी का बदलता परिदृश्य’ और ‘आलोचना के रंग’ चर्चित रहीं। उनकी सद्य: प्रकाशित आलोचना कृति ‘हिन्दी कहानी वाया आलोचना’ बीसवीं सदी की प्रतिनिधि कहानियों के मूल्यांकन पर केन्द्रित है। नि:संदेह कृति बीसवीं सदी की हिन्दी कहानी की संरचना और स्वभाव को समझने में मदद करती है।
इस आलोचना कृति की भूमिका में सम्पादक की यह मान्यता गौरतलब है, ‘साहित्य के विविध रूपों में कहानी अपने विधागत गुणों के चलते ज़्zwnj;यादा लोकप्रिय रही है। कविता की लम्बी परम्परा के परिप्रेक्ष्य में कहानी ने विविधता, कलात्मकता और विस्तार को अपेक्षाकृत कम उतार-चढ़ाव में ही अर्जित कर लिया। कविता को साहित्य की ‘मूल’ विधा माना जाता है, पर ‘कथा’ उसकी समानान्तर और सहवर्ती आदि समय से ही रही है। प्राचीन महाकाव्य कविता और कक्षा के समन्वय से ही रचेे गए थे।’
‘हिन्दी कहानी वाया आलोचना’ कृति में बीसवीं सदी की 73 प्रतिनिधि कहानियों की मार्फत बीसवीं सदी की हिन्दी कहानी की नब्ज टटोली गई है और यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि अपनी शुरुआत में ही हिन्दी कहानी ने अपना शिखर छू लिया था। इस किताब की 70 आलोचनाएं 45 आलोचकों ने लिखी हैं यथा नामवर सिंह (उसने कहा था), प्रियम अंकित (ताई : विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक), मृत्युंजय पांडेय (हार की जीत : सुदर्शन), सत्यकाम (पूस की रात : प्रेमचन्द) आदि।
दूसरे खंड में आलोचकों ने ऐसी कुछ बहुचर्चित कहानियों की विवेचना की है जो संरचना और स्वभाव में स्वयं के नए होने की तसदीक करती हैं। यह 24 कहानियां हैं जो ये हैं– ‘गुलरा के बाबा : मार्कण्डेय’, ‘रसप्रिया : फणीश्वरनाथ रेणु’, ‘चीफ की दावत : भीष्म साहनी’, ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम : फणीश्वरनाथ रेणु’, ‘डिप्टी कलेक्टरी : अमरकान्त’, ‘जिंदगी और जौक : अमरकान्त’आदि।
तीसरे खंड में साठोत्तरी और उत्तर सदी की 29 प्रतिनिधि कहानियों की संरचना और स्वभाव को युग के बदलते परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित और काफी हद तक मूल्यांकित भी किया है। यह कहानियां हैं– ‘घ्ांटा’, ‘पिता’ (ज्ञानरंजन), ‘काला रजिस्टर’ (रवीन्द्र कालिया), ‘कविता की नई तारीख’, ‘अपना रास्ता लो बाबा’ (काशीनाथ सिंह), ‘फट जा पंचधार’ (विद्यासागर नौटियाल), ‘धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्र’ (दूधनाथ सिंह) आदि।
अच्छा होता यदि ‘हिन्दी कहानी वाया आलोचना’ के सम्पादक नीरज खरे एक लेखक की एक ही कहानी को बीसवीं सदी की प्रतिनिधि कहानियों की फेहरिस्त में शामिल करते। हालांकि प्रेमचंद की प्रतिनिधि कहानियों का चयन करते समय किसी एक ही कहानी पर उंगली रखना उतना आसान भी नहीं होता। लेकिन फणीश्वरनाथ रेणु और अज्ञेय के साथ ऐसी दुविधा शायद नहीं होती क्योंकि दृष्टि सीधे रेणु की ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ तथा अज्ञेय की ‘रोज’ कहानी पर जाकर ठहरती है।
समग्रत: प्रत्येक दृष्टि से नीरज खरे की सद्यः प्रकाशित संपादित आलोचना कृति ‘हिन्दी कहानी वाया आलोचना’ की प्रासंगिकता बीसवीं सदी की प्रतिनिधि कहानियों के मूल्यांकन के मद्देनजर एक संदर्भ-ग्रंथ के रूप में कभी काल-कवलित नहीं होगी। विषय की व्यापकता को देखते हुए इसका महत्व और सार्थकता स्वत: सिद्ध है।
पुस्तक : हिन्दी कहानी वाया आलोचना सम्पादक : नीरज खरे प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज पृष्ठ : 467 मूल्य : रु. 399.