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इतिहास की भूली-बिसरी कड़ियां जोड़ने की कोशिश

पुस्तक समीक्षा
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राजवंती मान

पुस्तक : किंगमेकर्स उपन्यासकार : राजगोपाल सिंह वर्मा प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज पृष्ठ : 232 मूल्य : रु. 299

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राजगोपाल सिंह वर्मा का समीक्षाधीन उपन्यास ‘किंगमेकर्स’ अठारहवीं सदी की प्रथम चौथाई में विखंडित होते मुगल साम्राज्य पर भारी दो सैयद भाइयों— सैयद अब्दुल्लाह खान और सैयद हुसैन अली खान के उत्कर्ष और पतन की कथा है।

राजगोपाल सिंह वर्मा इतिहास के अध्येता और साहित्यकार हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर उनके लिखे कई चर्चित उपन्यास हमें उन ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों से परिचित करवाते हैं। वर्ष 1857 के क्रांतिकारी, बेगम समरू का सच, दुर्गावती : गढ़ा की पराक्रमी रानी, जॉर्ज थॉमस : हांसी का राजा, ऐसी ही किताबें हैं जो इतिहास के अनखुले पन्नों को खंगालती-खोलती हैं।

औरंगजेब के लंबे शासन काल 1679 से शुरू होकर 1707 तक के दौरान पराक्रम, अनुशासन और निष्ठा के साथ-साथ षड्यंत्रों, सत्ता संघर्षों और अनिश्चित घटनाकर्मों का बोलबाला भी हो गया, उसी दौर में सैयद भाइयों के फर्श से अर्श और अर्श से फर्श तक जाने का विशद‍् और तार्किक विश्लेषण यह पुस्तक करती है।

मुगल साम्राज्य के विखंडन अर्थात‍् 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद बुरी तरह से लड़खड़ाती बादशाहत में सत्ता के लिए खूनी संघर्ष, षड्यंत्र, साजिश आम बात हो गई थी। वर्ष 1707 में उत्तराधिकार के सीधे और खूनी संघर्ष में बहादुर शाह को बादशाहत मिली। उसके डांवाडोल शासन के समय में सैयद भाइयों का उत्कर्ष हुआ।

मार्च, 1712 में जहांदार शाह कुर्सी नशीन हुआ। इस सत्ता संघर्ष में सैयद भाइयों की भूमिका मजबूत होती गई। दोनों भाई कर्मठ, ईमानदार और अच्छे रणनीतिकार भी थे। अपने पराक्रम और वीरता के लिए विख्यात सैयद बंधु बहुत शक्तिशाली बनकर उभरे। इतिहासकार उन्हें राजा निर्माता कहने लगे।

वर्ष 1713 में फार्रुखसियर की माता ने अपनी व्यवस्था का वास्ता देकर उन्हें सत्ता संघर्ष में भावनात्मक रूप से अपने बेटे के पक्ष में कर लिया, वह बादशाह बन गया और सैयद बंधुओं का ऐसा सिक्का चला कि वे बादशाह पर भारी पड़ने लगे। शाही फैसलों से लेकर रोजमर्रा के कार्यों में उनका निर्णायक दखल हो गया। अपने आचार-विचार, व्यवहार, रहन-सहन, परिवेश पहनावे, परंपराओं से वे भारतीयों जैसे लगते थे और पूरे मन से लोक-भलाई के कामों में रुचि लेते। हिंदू त्योहारों होली ,वसंत उत्सव आदि में दिल खोल कर भाग लेते। सैयद अब्दुल्लाह खान का दिल्ली की पटपड़गंज नहर के निर्माण में योगदान चर्चा में रहा।

लेकिन बुलंदी के साथ विरोध भी पैदा होता है इसलिए विरोधी खेमा भी बढ़ता गया। स्वयं बादशाह भी उनसे पिंड छुड़ाने के लिए नई-नई तरकीबें खोजने-लगाने लगा और 1719 में खुद उन्हीं साजिशों का शिकार होकर मर गया।

अंततः सन‍् 1720 में छोटे भाई सैयद हुसैन अली खान का एक रणनीति के अंतर्गत धोखे से कत्ल कर दिया गया। बाद में बड़े भाई सैयद अब्दुल्ला खान को भी संघर्षपूर्ण युद्ध के बाद बंदी बना लिया गया और दो साल कैद में रखने के बाद कभी बहुत शक्तिशाली रहे इस किंग मेकर को बादशाह मोहम्मद शाह, इतिहास में ‘रंगीला’ के नाम से मशहूर, के निर्देश पर ज़हर दे दिया गया।

राजगोपाल सिंह वर्मा की यह पुस्तक पठनीय तो है ही, अपनी प्रामाणिकता तथा विश्वसनीयता से पाठकों को इतिहास की घटनाओं और पात्रों से सुरुचिपूर्ण ढंग से परिचित करवाती है।

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