जीतेंद्र अवस्थी
यायावरी मनुष्य मात्र की मूल प्रवृत्तियों में शामिल है। मन दूर-दूर की उड़ान भरता रहता है। घुमक्कड़ी मूलतः स्वांतः सुखाय ही होती है। लोगबाग घूम आते हैं और ज्यादा से ज्यादा मित्र दोस्तों से इसका जिक्र करके बैठ जाते हैं। लेकिन कदम-कदम किन्नौर के लेखक डॉ. बी. मदन मोहन कुछ अलग ही मिट्टी के बने हुए हैं। उन्हें प्रकृति से खास लगाव है। कुदरत उन्हें बुलाती रहती है। इस बुलावे को टालना उनके बस में कहां– मौका मिलते ही वह प्रकृति की गोद में हुलारे लेने चल पड़ते हैं। प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य को आत्मसात कर उनकी मन मेधा पूर्ण आत्मिक संतोष का अनुभव करती है। उनका मानना है इस परितृप्ति से मानव भावुकता, उदारता, सहिष्णुता, विनम्रता और समर्पण जैसे उदात्त मानव उचित गुण की प्राप्ति करता है। लेखक का मन यूं ही हिलोरे नहीं लेता। पर्वत, नदी, नाले, सरोवर के साथ-साथ संबंधित क्षेत्र का लोकाचार, संस्कृति, जनजीवन, इतिहास, मिथिहास के बारे में भी वह पूरी जानकारी हासिल करते हैं और लिपिबद्ध करके पाठकों के समक्ष परोसते हैं। यह कार्य वह उतनी ही शिद्दत और मोहब्बत से करते हैं, जितनी शिद्दत से यायावरी। प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने हिमाचल और उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों के यात्रा वृत्तांत पेश किए हैं। इनमें चूड़धार, किन्नौर और मणिमहेश के अलावा हर की दून, जौनसार, बाबर और रूपिन सूपिन घाटी के भ्रमण का दिलचस्प और सांगोपांग चित्रण है।
लेखक प्रकृति के आंचल में जितना आगे बढ़ता है, उतना ही इसके सौंदर्य और संस्कृति, जनजीवन, लोक आस्था व इतिहास में डूबता जाता है। बी. मदन मोहन का प्रकृति प्रेम बहुत उदात्तता लिए हुए है। यह सब विलियम वर्ड्सवर्थ और अन्य अंग्रेजी रोमांटिक कवियों की याद दिलाता है। वे प्रकृति का मानवीकरण ही नहीं करते बल्कि उसे साक्षात् परम तत्व मानते हैं। लेखक इसी भावना से प्रकृति के साथ-साथ हो जाता है। जो दिखता है, वही नहीं, उसके अलावा बहुत कुछ और भी है जो उन्हें आकर्षित करता है। प्रकृति के मानवीकरण के उदाहरण उनकी लेखनी में गुंथ चुके हैं। नदियां, पर्वत, उपत्यकाएं उन्हें मानव रूप में दिखती हैं। एक बानगी ‘सुंदर-सी छरहरी नदी किसी नायिका के पारदर्शी आंचल सी लहरा रही है या फिर रह-रह कर अंगड़ाई ले रही है लेकिन मन हरण कर मुस्कुरा रही है, यह सत्य है। टोंस नदी निरंतर गुनगुनाती नगमे सुनाती चलती है। ‘(देवलोक हर की दून)’ सीमा वन प्रांतर का सौंदर्य उर्वशी रंभा व मेनका-सा मनमोहक हो उठता है।’ प्रकृति भी हमारे साहस, दृढ़ इच्छाशक्ति और अपने प्रति समर्पण को देख मुस्कुराने लगी है।’ ‘गिरि नदी फिर हमारे साथ हो ली, मानो कह रही हो इतनी जल्दी अपने बच्चों को भूलने वाली नहीं हूं।’ जिन क्षेत्रों का भ्रमण लेखक और उनके साथी करते हैं, उनके बारे में विपुल जानकारी इस पुस्तक में दी गई है। यात्रा का उद्देश्य संबंधित क्षेत्र के बारे में अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर लोगों से मिलना-जुलना उनसे जानकारी हासिल करना और इस तरह पूरी जानकारी प्रस्तुत करना वास्तव में ही महती अभिप्रेत है।
मदन मोहन प्रकृति से घुलते-मिलते हैं, उससे बतियाते हैं। यह सब उल्लेख करते हुए वह कवि बन जाते हैं और नए-नए शब्द भी गिरने का मोह त्याग नहीं पाते। वह जितना धंसते हैं, उतने ही माणिक मोती निकाल लाते हैं। इससे ही प्रकृति का आध्यात्मिक रूपनुमाया होकर उभरता है। इससे पाठक मन ही मन लेखक के साथ-साथ प्रकृति भ्रमण पर उतर आता है। मदन मोहन लेखकीय बोध के अलावा सामाजिक दायित्व के प्रति भी पूरी तरह सचेत हैं। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन से उनकी आत्मा चीत्कार करती लगती है । क्षेत्र विशेष की सत्ता द्वारा अनदेखी भी उन्हें कचोटती है। इन पहलुओं पर भी वह खूब कलम चलाते हैं। प्रकृति के सानिध्य में पूरे वातावरण को उकेरते हुए वह आकर्षक शब्द चित्र बनाते और उत्सुकता जगाते हुए काव्य-कथा की रचना करते हैं। अगर चित्र भी साथ दिए होते तो यह दस्तावेज और भी जीवंत हो उठता।
पुस्तक : कदम कदम किन्नौर लेखक : डॉ. बी. मदन मोहन प्रकाशक : समदर्शी प्रकाशन मोदीपुरम, मेरठ पृष्ठ : 160 मूल्य : रु. 200.