चंद्र त्रिखा
कई बार ऐसा लगा है कि यदि उर्दू शायरी देवनागरी लिपि में न आ पाती तो युवा पीढ़ी का एक बड़ा वर्ग इससे वंचित रह जाता। दूसरा तथ्य यह भी है कि देवनागरी में उर्दू अदब की प्रस्तुति से हिंदी भाषा में लिप्यांतरित साहित्य को भी समृद्धि मिली है।
प्रस्तुत कृति एक नए अर्थ में एक नया प्रयोग है। इसमें एक पाकिस्तानी शायर अज़हर फ़राग़ और एक हिंदुस्तानी शायर कमाल परवाज़ी की ग़ज़लें एक साथ दी गई हैं। यानी भारतीय उपमहाद्वीप में कमोबेश समान स्तर पर जारी सृजनशीलता की एक अनूठी झलक देने का प्रयास है यह कृति।
कहीं-कहीं अलगाव की पीड़ा भी अनायास ही झलक आती है। इसी संकलन में भारतीय शायर परवाज़ी की ग़ज़ल का एक शेअर हैं :-
‘ये भी अच्छा है, मगर इससे भी अच्छा होता/ साथ चलते तो, उजाले पे उजाला होता/ उनसे कल हाथ मिलाने की तमन्ना की थी/ और अब सोच रहा हूं कि मेरा क्या होता।’
मगर, कुल मिलाकर प्रकाशकीय टिप्पणी भी सार्थक दिखती है। ‘शायरी के मुरीदों को इस बात से कोई सरोकार नहीं कि शायर किस देश का है। लगभग डेढ़ सौ साल से भी ज़्यादा पुरानी ग़ज़ल कहने की परंपरा अविभाजित भारतीय उपमहाद्वीप के दक्कन से लेकर दिल्ली, लखनऊ और कराची तक प्रचलित थी। लेकिन 1947 में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सरहदें खिंचने के साथ ही शायरों की पहचान भी हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी हो गई।’
इस दिशा में देवनागरी लिपि में यह प्रयास सराहा जाना चाहिए और इसका स्वागत होना चाहिए, लेकिन इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना शेष है।
पाक उर्दू शायर अज़हर फ़राग़ में भी उपमहाद्वीपीय साझेदारी की तड़प तो वैसी ही है, जैसी भारतीय शायर में। मगर अज़हर फ़राग़ थोड़े व्यावहारिक संकेत भी देता है। एक शेअर देखिए :-
‘एक होने की कसमें खाई जाय/ और आखिर में कुछ लिया दिया जाय/ ये खमोशी मेरी खमोशी है/ इसका मतलब मकालमा किया जाये।’
इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों शायरों ने अनछुए मुद्दे उठाए हैं। कहीं वक्त से रूबरू होकर कलाम किया गया है तो कहीं तीखे तंज़ हैं, हालांकि तंज़ के लिए ग़ज़लों में कम जगह होती है। फिर भी ‘ख्वाबों से निकलकर हकीकत का सामना करते हुए चराग़ लेकर हवा से मुकाबला’ करने की जि़द भी कायम है। परवाज़ी का एक तेवर देखें, ‘बहुत तवील सफ़र से गुज़र के आया हूं/ मैं तुमसे मिलने सडक़ पार करके आया हूं।’
इसी तेवर में एक नया प्रयोग भी देखें :-
खिलौने बाद में, पहले तू इस रसीद से खेल/ ए मेरे लाल तिरी फ़ीस भरके आया हूं।’
छठे व सातवें दशक में इस दिशा में प्रकाश पंडित व कुछ अन्य ने उर्दू शायरी को देवनागरी में जिस खूबसूरती से पेश किया था, वह वाकई अद्भुत थी। उस परंपरा में यह एक अगला आयाम है। प्रस्तुति व चयन भी आकर्षक है।
पुस्तक : सरहद के आरपार की शायरी सम्पादक : तुफैल चतुर्वेदी, प्रकाशक : राजपाल, नयी दिल्ली, पृष्ठ : 184 मूल्य : रु. 265.