इंदौर, 11 अगस्त (एजेंसी)
‘आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो…ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो…रास्ते आवाज़ देते हैं सफ़र जारी रखो…एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो, दोस्ताना ज़िंदगी से, मौत से यारी रखो…’और ‘दो गज़ सही मगर यह मेरी मिल्कियत तो है …ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया’ जैसे शे’र लिखने वाले मशहूर शायर राहत इंदौरी का यहां मंगलवार को एक निजी अस्पताल में निधन हो गया। 70 वर्षीय इंदौरी का कोरोना वायरस संक्रमण का इलाज चल रहा था। अस्पताल के छाती रोग विभाग के प्रमुख डॉ. रवि डोसी ने बताया, ‘इंदौरी के दोनों फेफड़ों में निमोनिया था और उन्हें गंभीर हालत में अस्पताल लाया गया था।’
जिला प्रशासन के अनुसार इंदौरी हृदय रोग, किडनी रोग और मधुमेह सरीखी पुरानी बीमारियों से पहले से ही पीड़ित थे। इंदौरी ने मंगलवार सुबह खुद ट्वीट कर अपने संक्रमित होने की जानकारी दी थी। अपने ट्वीट में उन्होंने कहा था, ‘दुआ कीजिये (मैं) जल्द इस बीमारी को हरा दूं।’
इंदौरी का असली नाम राहत कुरैशी था। परिवार के करीबी सैयद वाहिद अली ने बताया कि शहर के मालवा मिल इलाके में करीब 50 साल पहले उनकी पेंटिंग की दुकान थी। वह साइन बोर्ड पेंटिंग के जरिये आजीविका कमाते थे। उर्दू में ऊंची तालीम लेने के बाद वह एक स्थानीय कॉलेज में प्रोफेसर हो गये थे। बाद में नौकरी छोड़ दी और वह अपना पूरा वक्त शायरी और मंचीय काव्य पाठ को देने लगे थे। उन्होंने कुछ हिन्दी फिल्मों के लिये गीत भी लिखे थे, लेकिन बाद में फिल्मी गीतों से उनका मोहभंग हो गया था।
इंदौरी के बेटे सतलज राहत ने अपने पिता की मौत से पहले मंगलवार सुबह बताया था, ‘कोविड-19 के प्रकोप के कारण पिता पिछले साढ़े 4 महीनों से घर में ही थे। वह केवल अपनी नियमित स्वास्थ्य जांच के लिये घर से बाहर निकल रहे थे।’ इंदौरी को पिछले पांच दिन से बेचैनी महसूस हो रही थी। जब एक्स-रे कराया गया, तो इनमें निमोनिया की पुष्टि हुई थी। बाद में वह कोरोना वायरस से संक्रमित पाये गये थे।
कुछ यादगार शे’र
रोज़ तारों की नुमाइश में खलल पड़ता है
चाँद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है
उसकी याद आई है सांसों, जरा धीरे चलो
धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है।
बन के इक हादसा बाज़ार में आ जाएगा
जो नहीं होगा वो अखबार में आ जाएगा
चोर उचक्कों की करो कद्र, कि मालूम नहीं
कौन, कब, कौन सी सरकार में आ जाएगा।
लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं
मोड़ होता हैं जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यही आके फिसलते क्यों हैं।
दिलों में आग, लबों पर गुलाब रखते हैं
सब अपने चहेरों पर, दोहरी नकाब रखते हैं
हमें चराग समझ कर भुझा ना पाओगे
हम अपने घर में कई आफ़ताब रखते हैं।