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संवेदनहीन कानून न्याय नहीं कर सकता : जस्टिस सूर्यकांत

भावी सीजेआई से विशेष बातचीत

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उनके लिए न्याय किसी ऊंचाई से सुनाया गया फैसला नहीं, बल्कि जाग्रत अंतरात्मा से आती विवेक की आवाज है। करुणा को सर्वोच्च शक्ति मानने वाले जस्टिस सूर्यकांत कहते हैं, जो कानून महसूस नहीं कर सकता, वह उपचार नहीं कर सकता।

भारत के चीफ जस्टिस नियुक्त होने के बाद ट्रिब्यून के साथ पहली विशेष बातचीत में जस्टिस सूर्यकांत ने न्यायिक व्याख्या को निर्देशित करने वाले नैतिक दिशासूचक, तर्क और संवेदना के बीच संतुलन तथा समय के साथ खुद को बदलते रहने के न्यायपालिका के कर्तव्य पर विचार साझा किये। उन्होंने कहा, ‘हर संस्था को सुधार की आवश्यकता सिर्फ इसलिए नहीं होती कि वह असफल हुई है, बल्कि इसलिए कि जिस दुनिया की वह सेवा करती है, वह निरंतर बदलती रहती है। सुधार असफलता की स्वीकारोक्ति नहीं, बल्कि दूरदृष्टि का कार्य है।’

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जस्टिस सूर्यकांत 24 नवंबर को सीजेआई के रूप में शपथ लेंगे। वह कहते हैं कि न्यायपालिका को एक जीवंत संस्था बने रहना चाहिए, परिवर्तन की लय से जुड़ी हुई, फिर भी अंत:करण में स्थिर। उन्होंने कहा, ‘सभी के लिए न्याय एक दैनिक कर्तव्य है। किसी भी व्यवस्था की असली कसौटी यह है कि वह सबसे कमजोर और सबसे जरूरतमंद लोगों को कितनी कोमलता से छूती है।’ उनके लिए संवेदना के बिना निष्पक्षता खोखली है और प्रतिशोध को न्याय समझ लेना, क्रूरता है।

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उनका कहना ​​है कि न्यायपालिका के प्रतीक भी विनम्रता की याद दिलाते हैं। ‘न्यायाधीश की पोशाक अधिकार नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व का प्रतीक है, जो रोजाना याद दिलाती है कि एक न्यायाधीश को न्यायिक होने से पहले इंसान बने रहना चाहिए।’

संविधान को गणतंत्र का नैतिक दिशासूचक बताते हुए वह कहते हैं, ‘यह कांच में सुरक्षित रखने वाली कोई विरासत नहीं है, बल्कि निष्पक्षता के हर कार्य, सच्चाई की हर आवाज, साहस के हर निर्णय के माध्यम से नवीनीकृत होने वाला एक जीवंत विश्वास है।’ वह कहते हैं कि एक लोकतंत्र की ताकत ‘गरिमा को ठेस पहुंचाए बिना स्वतंत्रता की रक्षा करने और स्वतंत्रता को खामोश किए बिना गरिमा की रक्षा करने’ की क्षमता में निहित है।

तकनीक के मुद्दे पर जस्टिस सूर्यकांत सावधान करते हैं कि दक्षता, संवेदना पर हावी न हो। देरी को वह न्याय का सबसे गहरा घाव मानते हैं। वह कहते हैं, ‘विलंबित न्याय केवल प्रक्रियागत चूक नहीं, यह एक नैतिक विफलता है। अनिर्णय में बीता हर दिन किसी न किसी की गरिमा से वंचित करने वाला दिन है।’

श्ोष पेज 10 पर

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